सर्दी इतनी बढ़ गई थी कि मैं कूपे में टहलने पर मजबूर हो गया था। एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बाहर प्लेटफार्म से ‘चाय चाय’ की आवाजें आने लगीं। मैंने चाय वाले को आवाज दी लेकिन कोई नहीं आया। मैंने कुछ और ऊंची आवाज में चाय वाले को पुकारा लेकिन कोई नहीं आया। फिर मैं चीखने लगा लेकिन कोई चाय वाला नहीं आया।
ट्रेन रेंगने लगी। इतना चीखने चिल्लाने से सर्दी और ज्यादा लगने लगी थी लेकिन कूपे के अंदर टहलने के अलावा और कोई रास्ता न था। शायद मैं सभी कपड़े पहन चुका था क्योंकि बैग काफी खाली लग रहा था।
अगले स्टेशन पर भी यही हुआ। बात समझ में आई कि चाय वाले हैं फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट की तरफ नहीं आते। इसका मतलब यह था की पूरी रात मुझे चाय न मिल सकेगी और कूपे में टहलते हुए रात गुजारनी पड़ेगी।
लेकिन चाय के मामले में किस्मत इतनी खराब नहीं थी। एक बड़े स्टेशन पर चाय वाला आया मैंने उसे सौ का नोट दिया और पांच चाय मांगी। उस जमाने में पाकिस्तान में बीस रुपये की एक चाय मिला करती थी। चाय वाले ने मेरी तरफ कुछ अजीब नजरों से देखा लेकिन जल्दी ही खिड़की पर उसने छोटे-छोटे चाय के पांच कप रख दिए।
एक कप मैंने फौरन हलक में उंडेल लिया। लगा गला ऊपर से नीचे तक किसी ने चाकू से काट दिया हो। चाय सकरीन में बनाई गई थी। लेकिन इस तकलीफ के बावजूद मैं चार कप चाय और पी गया। सोचा हलक का जो हाल होगा सो देखा जाएगा फिलहाल सर्दी से बचने का इंतजाम जरूरी है।
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दिल्ली से आया हूँ
बहावलपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो कूपे में एक साहब आ गए। अधेड़ उम्र वाले दुबले पतले सज्जन ने ऊपर की सीट पर अपना बिस्तर बिछाया और सामने बैठ गए । मुझसे पूछने लगे, क्या मैं सिगरेट पी सकता हूं?
मैंने कहा, जरूर जरूर पियें।
मैं उनसे यह कह नहीं सकता था कि उनके आ जाने से मैं इतना खुश हूं कि अगर वो कुछ और भी कहते तो मैं उसके लिए भी तैयार हो जाता।
सिगरेट पीने के बाद सज्जन ऊपर चले गए। लेट गए और शायद जल्दी ही सो गए। मैं उनको दिखाने के लिए सीट पर लेट गया लेकिन नींद आने का सवाल न था। छोटी-छोटी झपकियां आती रहीं। इसी दौरान किसी स्टेशन पर तीन लोग कूपे में और आए। इनमें दो आदमी थे और एक महिला। आते ही तीनों ने लंबी तानी।
सूरज नहीं निकला था लेकिन हल्का सा उजाला हो गया था। मैंने खिड़की से बाहर देखा। दूर एक तालाब दिखाई दिया जिसका पानी चमक रहा था। तालाब के किनारे एक दो मंजिला कच्चा मकान नजर आया जिसकी एक खिड़की से रोशनी आ रही थी।
दूसरी तरफ खजूर के कुछ पेड़ भी खड़े थे। मैंने कैमरा निकाला और सोचा, रात भर तकलीफ उठाने के बाद अगर सुबह एक अच्छी तस्वीर मिलती है तो यह घाटे का सौदा न होगा।
मैंने कई बार कैमरा क्लिक किया। सामने की सीट पर लेटी महिला जाग गयीं।
उन्होंने मुझसे कहा – लगता है आपको फोटोग्राफी का बड़ा शौक है?
मैंने कहा – मैं जो कुछ देख रहा हूं वह शायद दोबारा न देख सकूंगा…. इसलिए चाहता हूं कि जो कुछ अच्छा नजर आ रहा है उसे कैमरे में कैद कर लूं।
महिला ने कहा – आप कहां से आए हैं?
पाकिस्तान में जिन लोगों ने मुझसे यह सवाल किया था कि आप कहां से आए हैं उनको मैंने एक ही जवाब दिया था और वह यह कि मैं दिल्ली से आया हूं।
इस जवाब के पीछे छिपी धारणा, विश्वास और विचार को जो लोग समझ लेते थे ले मुस्कुरा देते थे और जो नहीं समझते थे उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता था।
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भारत-पाकिस्तान की तुलना
दिल्ली सुनते ही ऊपर सोए दोनों आदमी नीचे उतर आए और हम लोगों के बीच बातचीत शुरू हो गई। महिला ने एक बड़ा सा फ्लास्क खोला गरम गरम चाय अपने दो साथियों को देने के बाद मेरी तरफ भी बढ़ाई। वाह मजा आ गया। कुछ खाने को भी था।
बातचीत पाकिस्तानी रेलवे पर होने लगी।
मैंने पूछा – सीटों पर जो रकसीन चढ़ा है उस पर ER क्यों लिखा है?
उनमें से एक ने कहा, यह पार्टीशन के टाइम मिला हुआ डिब्बा है।
मैंने पूछा – इतना पुराना अब तक चल रहा है?
एक ने कहा – पाकिस्तान रेलवे का हाल न पूछिए।
दूसरा बोला – रेलवे की न जाने कितनी ज़मीन बेंच कर खा गए।
पहले ने कहा – ज़मीन…. अरे साहब जमीन तो छोटी चीज है इन्होंने पटरिया बेच डालीं… सिग्नल बेंच डालें…. रेलवे को बिल्कुल खोखला कर दिया..
मैंने मैंने कहा – कोई पूछताछ करने वाला नहीं है।
एक बोला – जनाब इस पूरे मुल्क में किसी की काउंटेबिलिटी नहीं है, कोई जवाबदेही नहीं है। – लोग बैंकों से करोड़ों का लोन लेकर वापस नहीं करते कोई पूछने वाला नहीं।
– फौज इस मुल्क को खा गई ….पहले दो टुकड़े करवा दिए और अब दीमक की तरह लगी हुई है। मैं यह सब सुनकर बहुत हैरान न था। क्योंकि मुझे पता था कि ये लोग जो कह रहे हैं वह सच है। मुझे डॉ. आयशा सिद्दीका की किताब याद आ गई जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना द्वारा किए जाने वाले व्यापार पर लिखी है।
उन्होंने एक नया टर्म दिया है – Milbus यानी मिलिट्री बिजनेस। उन्होंने बहुत गंभीरता से, शोध करने के बाद, आंकड़े और उदाहरण देते हुए यह साबित किया है कि पाकिस्तान की सेना देश की सब से बड़ी लैंडलॉर्ड (ज़मीन की मालिक /भूस्वामी) है।
सेना जमीन बेचने का कारोबार ही नहीं करती बल्कि उसके अन्य व्यापार भी हैं जिसमें सिटी मॉल वगैरा भी शामिल है। सेना द्वारा किए जाने वाले इस व्यापार का मुनाफा सबसे ऊंची अधिकारी से लेकर सैनिक तक को मिलता है।
कुछ देर के बाद बातचीत भारत-पाकिस्तान की तुलना पर आ गई। बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान से आए लोग भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हुए पाकिस्तान को बड़ा और अच्छा सिद्ध करने की कोशिश करते थे। यह कोशिश काफी बचकानी होती थी लेकिन मध्यम वर्ग को आकर्षित करती थी।
जैसे पाकिस्तान में ‘टेरिलीन’ बहुत सस्ता है, जापानी गाड़ियां कितनी सस्ती है, खाना-पीना कितना सस्ता है, कितनी आसानी से मकान बनाया जा सकता है। कितनी आसानी से नौकरियां मिलती हैं।
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हर कोई भारत जाना चाहता है
बांग्लादेश बन जाने के बाद स्थिति बिल्कुल बदल गई है अब कोई पाकिस्तानी कभी यह नहीं कहता कि पाकिस्तान भारत से अच्छा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपए के बराबर है। भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में जो काम हुआ है (जो अपर्याप्त है और जिसकी हम सब आलोचना करते हैं) वह पाकिस्तान की तुलना में बहुत उल्लेखनीय है।
उनमें से एक ने कहा – आप चाहे जो कहें, भारत में लाख कमियां हो सकती हैं ..लेकिन भारत ने तरक्की की है…. और कोई मुल्क जब तरक्की करता है तो उसका फायदा सबको होता है…
महिला ने कहा- मेरी तो भारत जाने की बड़ी ख्वाहिश है।
एक आदमी बोले- पाकिस्तान में तो हर दूसरा आदमी भारत जाना चाहता है… देखने के लिए घूमने के लिए….
मैंने कहा – भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो एक बार पाकिस्तान आना, देखना और घूमना चाहते हैं
उनमें से एक ने कहा- लेकिन दोनों तरफ की सरकारें यह नहीं चाहतीं।
दूसरे ने कहा- देखिए किसी भी मुल्क के अवाम किसी भी दूसरे मुल्कों के अवाम के दुश्मन नहीं होते… अब पाकिस्तानी अवाम को भारत दुश्मनी से क्या मिल जाएगा? हां दोस्ती से बहुत कुछ मिल सकता है….. लेकिन अफसोस यह है कि सरकारों को दुश्मनी से बहुत कुछ मिलता है…..
मुझे रघुवीर सहाय की कविता ‘पैदल आदमी’ याद आ गयी।
कराची कंटोनमेंट रेलवे स्टेशन पर वे उतर गए। मैं अकेला रह गया। ट्रेन लगता था अपने गंतव्य पर पहुंचने के प्रति बहुत उदासीन है। इस तरह चल रही थी जैसे कोई ठेल रहा हो।
कराची रेलवे स्टेशन पर इतना सन्नाटा था कि मुझे बहुत बुरा लगा। स्टेशन तो बड़ा था लेकिन कोई चहल-पहल नजर न आती थी। न तो ट्रेनें ही खड़ी थीं, न मुसाफिर। यह लगता था जैसे इस स्टेशन का बहुत कम इस्तेमाल होता है।
अलीगढ़ के पुराने दोस्त डॉ जमाल नकवी जरूर मुझे लेने के लिए खड़े थे।
(समाप्त)
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लेखक जामिया विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यापक और जाने-माने लेखक हैं। नाटककार, लघु कथाकार और उपन्यासकार के रूप में वे परिचित हैं। उनके कई पुस्तकें प्रकाशित है। हिन्दी साहित्य में विशेष योगदान के लिए उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी और कथा यू.के. जैसी संस्थाओं ने पुरस्कृत किया है।