इस देश में 80 प्रतिशत आबादी बड़े अर्थों में हिन्दू है। लेकिन उन में अभी भी वर्ण और जातिओं के वर्चस्व है, क्योंकि समाज में जन्मजात असमानता, अन्याय और शोषण की व्यवस्था में परंपरागत रूप से हजारों वर्षों से चली आ रही हैं। इसलिए अगर कोई भी इस तरह की असमानता और शोषण को बनाए रखते हुए हिन्दू या किसी मजहबीयों को राजनीतिक रूप से एकजुट करने की कोशिश कर रहा है, तो वह कभी सफल नहीं होगा।
इस विषमता भरे समाज में हिन्दुओं को संगठित नहीं किया जा सकता है। सबसे पहले धर्म, जाति, वर्ण, वंश, लिंग या किसी अन्य भेद की परवाह किए बिना, उनका मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार मान्य करना होंगा।
पिछले कुछ दिनों से विनायक सावरकर, उनकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा और हिन्दुराष्ट्र की उनकी अवधारणा, हमेशा बहस का एक गर्म विषय रहा हैं। सटीक तौर पर कहे तो, जबसे सावरकर को ‘भारत रत्न’ सम्मान / पुरस्कार देने की मांग उठी हैं, तभी से यह चर्चा अधिक गतिमान हुई है; लेकिन यह चर्चा देश के 100 करोड़ हिन्दू, उनका सार्वभौमिक विकास, उनकी प्राचीन संस्कृति के विकास और संरक्षण पर जोर देकर होनी चाहिए थी; लेकिन ऐसा हुआ नही हैं।
इसके विपरीत, यह चर्चा हिन्दुराष्ट्र कि परिभाषा, उसके कक्षों में आनेवाले हिन्दू और जान बूझकर मुसलमान, ईसाई तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को इस कक्षा से बाहर रखा गया था, उसके इर्द गिर्द घुमती रही। वास्तव में यह बहस तो सावरकर के हिन्दुराष्ट्र का आग्रह, उसके लिए पूरक हिन्दुवादी विचारधारा को लेकर व्यावहारिक और वस्तुदर्शी होनी चाहीए थीं।
इस तरह की चिकित्सक चर्चाओं से सावरकर के राजनीतिक दर्शन और राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का समुचित मूल्यांकन करना संभव हो सकता था। सावरकर के समर्थक और विरोधी, दोनों को सावरकर का सम्मान करते हुए, तथ्य और तर्कसंगतता के आधार पर सावरकर के व्यक्तित्व और सोच का सही मूल्यांकन करना चाहीए था। हालांकि, ऐसा किए बिना, दोनों पक्षों ने अपनी बहस को भावुकता की भावना में जकडे रखा।
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वंचितों का क्या?
कांग्रेस की तरह समाजवादी जैसे प्रगतिशील राजनीतिक दल और धर्मनिरपेक्षतावादी राजनीतिक संघठनों ने निर्भयता से ‘सेक्युलर’ भूमिका निभाने के बजाए हिन्दू समर्थक भूमिका अपनाई। नतीजतन, ‘यह भी गया, वोह भी गया और हाथ लगा कुछ नही’ जैसी उनकी स्थिति हो गई हैं।
दूसरी ओर, सामान्य हिन्दू समाज की मानसिकता पर हिन्दुवादी विचारधारा का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसके बावजूद, आज भी हिन्दू समाज का मेहनतकश, मजदूर, शोषित और पीडित समुदाय विकास से वंचित किया गया है।
जब तक हम (हिन्दू) अपने स्वयं के रीति-रिवाजों और राजनीतिक विचारों का समीक्षा नहीं करेंगे, तब तक शोषितों और वंचितों का सर्वकालिक विकास संभव नहीं हो पायेगा।
हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं में पुराना और कालातीत हिस्सा क्या है, इस बारे में हमे तर्कशिलता के आधार पर वैकल्पिक पर्याय विकसित करने के नए तरीके तलाशने की कोशिश करनी होंगी। लेकिन इस तरह के प्रयास तभी संभव हैं जब हम अपनी मान्यताओं और भावनाओं को अलग रखकर एक चिकित्सक समीक्षा का राह आगे बढ़ा सकते हैं।
पुण्यभू कौन तय करेंगा?
वी. डी. सावरकर नें 1923 में ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखी और ‘हिन्दू धर्म की विचारधारा’ तथा ‘हिन्दुराष्ट्र की अवधारणा’ के लिए एक व्यापक रूपरेखा तैयार की। उनकी परिभाषा के अनुसार, उत्तर सिंधु नदी से दक्षिण सिंधु तक भारत की भूमि है। इस में जिसकी ‘पितृभू’ और ‘पुण्यभू’ हैं, वही इस देश (भारत) के नागरिक हो सकते है।
इस परिभाषा में दो शब्द महत्वपूर्ण हैं, ‘पितृभू’ और ‘पुण्यभू’। इन शब्दों का अर्थ बताते हुए, सावरकर ने कहा कि जिनके पूर्वज यहां पैदा हुए थे, रहते थे और अंततः इस भूमि में विलीन हो गए, उन्हें इस पुश्तैनी दावे से नागरिकता की विरासत मिल सकती हैं।
यह भूमि उनकी पितृभू हो सकती हैं; लेकिन पुण्यभू नहीं हो सकती। क्योंकि उनके धर्म, धार्मिक परंपराएं, संस्कृति, त्योहार इस भूमि में ना ही पैदा हुए और ना ही विकसित हुए हैं। इन मानदंडों के कारण, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि को अपने आप इस सिद्धान्त के बाहर निकाल दिए जाते है। ऐसे स्थिति में, यह सवाल उठता है कि भारतीय मुसलमानों को क्या करना चाहिए? (यह विषय व्यापक है, यहाँ पर इसका विचार संभव नहीं है।)
सावरकर इस किताब में हिन्दू संस्कृति के उल्लेख कई जगहों पर आए हैं। इसके दो प्रतिनिधिक मुद्दों पर यहां विचार किया जा सकता है। पुस्तक में एक जगह सावरकर ने सवाल उठाया कि ‘संस्कृति क्या है?’, और कहा, “किसी राष्ट्र की संस्कृति का इतिहास अर्थात उसके विचारों, प्रथाओं और आचारों का संपादित विचार है।
राष्ट्र की वैचारिक ऊंचाइयां वांग्मय और कला में नजर आती हैं। इतिहास और सामाजिक संस्थाए उसके कर्मो और विरतापूर्ण कार्यो का दिग्दर्शन कराते हैं, कोई मनुष्य भी अपने आप को इन में से किसी से भी अलग नही कर सकता।”
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संस्कृति का समग्र विश्लेषण
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सावरकर ने उपरोक्त कुछ पंक्तियों के माध्यम से संस्कृति का समग्र रूप से विश्लेषण किया है और इससे कोई असहमति नहीं होगी। लेकिन दुनिया में सभी संस्कृतियों को दूसरे तरीके से सोचा जा सकता है और इसलिए ऐसा जरूर सोचा जाना चाहिए।
दुनिया की अधिकांश संस्कृतियों का इतिहास कुछ हज़ार वर्षों का रहा है। क्या इस तरह की संस्कृति ने इस लंबी यात्रा पर कोई हीन प्रथाएं और परंपरा तैयार की हैं? क्या समानता-न्याय जैसे उच्च मूल्यों को पराजित किया गया है? क्या शोषितों, वंचितो के साथ अन्याय और अत्याचार कम हुआ है?
इस संबंध में कई ऐसे सवाल उठते हैं, और उनकी संस्कृति का शोध और अनुसरण उस समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। यह इस तरह के एक विवेकपूर्ण अध्ययन से समझा जा सकता हैं कि हमारी संस्कृति में कौन सी कालबाह्य और रुढीवादी हैं। यदि इन जैसे विनाशकारी दृष्टिकोणों में से कुछ ने प्राचीन संस्कृति में प्रवेश किया है, तो यह निश्चित है कि उस संस्कृति का पतन शुरू हो गया हैं।
संस्कृति के बारे में, सावरकर ने ऐसा भी कहा हैं, “हम सभी के त्योहार और त्योहार समान हैं। जहां भी हिन्दू रहते हैं, उन सब के त्योहार जैसे दशहरा, दिवाली, रक्षा बंधन और होली खुशी और आनंद के समान है। सिख, जैन, ब्राह्मण और पंचम आदि समस्त हिन्दू जगत दीपावली के हर्षोल्लास में डूबे हुए रहते हैं।”
प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे उत्सव-त्योहारों का सावरकर द्वारा किया गया उपरोक्त विश्लेषण एक अर्धसत्य है। क्योंकि इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू जिसे हम आमतौर पर ‘हिन्दू धर्म’ कहते हैं वो उसी के अनुयायी हैं और उनके त्योहारों, समारोहों को उपरी तौर पर एक समान मानते हैं। लेकिन हिन्दू समाज जन्मजात असमानता, शोषण और दास प्रथा से पैदा हुआ है और कई जाति-समुदायों में विभाजित है।
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दास प्रथा पर खडा हैं हिन्दुत्व
यह हिन्दू समाज कभी एक नहीं रहा और अब भी नहीं है। क्योंकि अन्याय, शोषण, गुलामी जिस संस्कृति के विघटनकारी लक्षण हैं, जहां ऐसे समाज में उच्च जातियों के हित शामिल हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि यह संस्कृति जीवित रहे; लेकिन जहाँ 80 प्रतिशत लोगों के दरिद्र्यता और दास प्रथा पर जो संस्कृति खडी हैं, वहां उस संस्कृति को लेकर उनमें गर्व बना रहे, क्या यह कहने का अधिकार है?
अन्याय, शोषण या गुलामी से भरी इस प्राचीन भारतीय संस्कृति पर मराठी लेखक नरहर कुरुंदकर ने बहुत ही मार्मिक टिप्पणी की है। अपनी पुस्तक ‘शिवरात्र’ में लिखते हैं,
“उन्नीसवीं सदी के शुरुआती हिस्से तक इस देश में इतिहास के साक्ष्य मिलते हैं, तब जिस तरह जानवरों के लिए हफ्तेवारी बाजार भरते थे उसी तरह पुरुष और महिलाओं के बाजार सजते थे। उन बाजारों से खुलेआम महिला-पुरुषों कि खरीद-फरोख्त होती थीं। राजे-राजवाडे और जमींदार को देवी-देवताओं और धर्मों की जरूरत थी। इन सभी सामंती राजाओं ने बडी संख्या में दासीयां, नौकरानी, कलावंतीनी, नर्तकियों, वेश्याओं, देवदासियों को महल के राजाओं और देवताओं के मनोरंजन के लिए रखा था।”
प्राचीन हिन्दू संस्कृति में इस तरह जघन्य तत्वों पर ध्यान देते हुए, कुरुंदकर ने उच्च और उदार घटकों को भी उद्धुत किया है। इस संबंध में वे कहते हैं, “प्राचीन भारत में कालिदास हैं। शंकराचार्य, कबीर, ज्ञानेश्वर हैं। इसमें चंद्रगुप्त, शिवाजी, राणाप्रताप हैं। अजंता, वेरुल, मीनाक्षीपुरम हैं। इस सब के बारे में मेरे मन में सम्मान और गर्व है। क्योंकि यह मेरी अपनी संस्कृति की विजयगाथा है। लेकिन सड़े हुए, घिनौने और दासता का जीवन उसी संस्कृति ने निर्माण किया हैं, और मुझे इस बारे में गर्व हो ऐसी कुछ बात नजर नही आती।”
कुरुंदकर कि यह समीक्षा निश्चित रूप से कठोर है; लेकिन वस्तुनिष्ठ है इसलिए संतुलित है, इसे भुलाया नहीं जा सकता। हालांकि, सावरकर का लेखन इस तरह के कठोर और संतुलित विश्लेषण की कमी को दर्शाता है।
अगर हम प्रथाएं और परंपराओं में फंसे समाज में प्रगति और विकास चाहते हैं तो ऐसे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के अलावा कोई दूसरा और तरीका नहीं है। लेकिन एक परंपरावादी समाज में जिनके हित शामिल हैं, वे किसी भी बदलाव के विरोध में रहते हैं। ऐसे स्थिति में, सनातनी प्रवृत्तियों के साथ परिवर्तनवादियों का संघर्ष अपरिहार्य हो जाता है।
हालांकि, महाराष्ट्र को इस मामले में भाग्यशाली कहा जाना चाहिए। क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से एक परिवर्तनवादी आंदोलन चल रहा था। महात्मा जोतीराव और सावित्रीबाई फुले इस प्रगतिशिल आंदोलन के प्रणेता थे, जो आज सर्वमान्य हो गए है। भीमराव अम्बेडकर, छत्रपति शाहू, महर्षि शिंदे, गो. ग. आगरकर जैसे कई महान विभूती इस आंदोलन को मिले।
इस आंदोलन ने 100 प्रतिशत सफलता हासिल की, ऐसा कहा नही जा सकता; लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि जो सफलता मिली वह निश्चित रूप से अनदेखी के लायक नहीं है। इन सबका फायदा हिन्दू समाज और उस के स्त्रियों को बडे पैमाने पर हुआ। सावरकर अगर इस प्रगतिशील विचार को समझते तो कुछ और बात रहती।
(इस आलेख को मराठी से डेक्कन क्वेस्ट के लिए हिंदी अनुवाद कलीम अजीम ने किया हैं। मूल मराठी लेख यहाँ पढा जा सकता हैं।)
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लेखक मुंबई स्थित सामाजिक और राजकीय विश्लेषक हैं। पिछले पाँच दशको से वे भारतीय संविधान, इतिहास, राजनीति तथा मुस्लिम विषयो पर अंग्रेजी तथा मराठी भाषा में लिखते हैं। बहुत से समाजसेवी संघठनों से भी वे जुडे हैं।