दक्षिणपंथीयों ने किया था गोविन्द पानसरे के हत्या का समर्थन

चार साल पहले 16 फरवरी 2015 को कॉ. गोविन्द पानसरे को कोल्हापूर में गोलिया दागी गई। जिसके बाद 20 फरवरी को इलाज के दरमियान उनका निधन हो गया। आज तक पानसरे के हत्या के आरोपी धरे नही हए हैं

सरकार और एजेन्सीयों ने  जाँच के कई दिखावटी प्रयोग किए पर अब तक मुख्य आरोपी पकडे नही गए। बल्कि जो आरोपी पकडे थे उन्हे भी छोड दिया गया। मुंबई हाईकोर्ट द्वारा फटकार लगाने के बावजूद हत्या कि गुत्था अभी तक नही सुलझी है। जिससे लोग यह सवाल कर रहे हैं कि कहां छुपे है पानसरे के हत्यारे?

त्रपति शिवाजी महाराज के सेकुलर व्यक्तित्व की व्याख्या करने वाला मास्टरपीस ‘शिवाजी कोण होता?’ लिखने वाले वामपंथी नेता गोविन्द पानसरे 20 फरवरी 2015 को हमारे बींच से जा चुके थे।

आज उनकी हत्या को चार साल पुरे हो चुके हैं। ऐसे स्थिति में उनके हत्यारे अब भी पुलिस के पकड से दूरी बनाए हुए हैं। कॉम्रेड गोविन्द पानसरे कि हत्या होना देश के जनवादी आन्दोलन के लिए बहुत बड़ी क्षति थी जो आज तक पुरी नही हो पाई हैं।

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पानसरे अपनी पुरी जिन्दगी आन्दोलन से लेकर संगठनलेखन से लेकर रचनात्मक काम आदि तमाम मोर्चों पर सक्रीय रहे। वे एक निर्भीक वामपंथी कार्यकर्ता थें। मजदूरों के लिए लड़ते हुए वे सामाजिक प्रश्नों और शासन की नीतियों पर लगातार टिपण्णी करते रहे।

अपने हत्या के कुछ दिन पहले तक पानसरे जगह-जगह सभाएं लेकर आरएसएस की नथुराम गोडसे को शहीद के रूप में प्रतिष्ठित करवाने की कवायद के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थें। पानसरे मुंबई के 26/11 के हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे की हत्या के पीछे एक गहरे षड्यंत्र की ओर इशारा भी कर चुके थें।

मृत्यू के विगत कुछ दिनों शिवाजी विश्वविद्यालय मे शाहू ग्रन्थ महोत्सव’ में गोडसे पर अपने विचार रखने के बाद से ही उन्हें लगातार धमकियाँ मिल रही थीं। कोल्हापूर के भारतीय लोक आन्दोलन के लोग शहर में लगातार शांति का वातावरण बनाने के प्रयास में थे। फिर भी उनपर हमला हुआ।

हमले के बाद सभी को लग रहा था कि वे आयेंगे और कहेंगे चलो बहुत काम रुका हैजल्दी से पुरा करे’ पर अफसोस वे अस्पताल के बेड से उठ नही पायेचार दिन मेडीकल बुलेटीन देनेवाली समाचार एजन्सीयाँ अचानक मौत की खबर दे गई।

संयोगवश डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर मर्डर केस से इस हमले की समानता हैंमहाराष्ट्र की जनता चीख-चीख कर कह रही हैं कि पानसरे के मौत के जिम्मेदार वही लोग हैं जिसके हाथ दाभोलकर के खून से रंगे हैं। जिस तरह दिन-दहाडे मोटरसाइकिल पर सवार युवकों ने पानसरे भी गर्दन पर गोलियां चलाई जब वह सुबह टहल कर लौट रहे थे। ठिक उसी तरह दाभोलकर पर गोलियाँ चलायी गई थीं।

समाजसेवी और राजनितीक विश्लेशक इस हमले को विवेकवाद और अभिव्यक्ति पर हमला बताते रहे हैं,  2014 के बाद केंद्र कि मोदी सरकार के गठन के बाद तेजी से बढ रहे नथुराम पंथीय लोगो को हत्या की वजह समाजसेवी मानते हैंरुढीवादी और हिंदुत्ववादी ताकतो ने पहले दाभोलकर की हत्या की अब पानसरे की।

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इस विषय पर हू किल्ड करकरे’ के लेखक और महाराष्ट्र के भुतपूर्व आय. जी. शमसुद्दीन मुश्रीफ ने निजी समाचार चॅनल को प्रतिक्रिया देते हुये कहा था की, “26/11 के मुम्बई हमले पर लिखी मेरी किताब मे छ्पा सत्य विशेष व्याख्यानमाला के जरिये बाहर लाने के लिए पानसरे कटिबद्ध थेउन्हे पता था की पानसरे उनपर हावी हो सकते हैंइसलिए उन्हे मरवाया गया हैं।” 

पुणे में 23 फरवरी 2015 को साने गुरुजी स्मारक मे आयोजित निषेध सभा में शहर के सभी परिवर्तनवादी आंदोलन के समाजसेवी मौजूद थेवहाँ साफ तौर पे सभी ने कहा गया कि नथुराम और दक्षिणपंथी पंथीय गुट को इसका जिम्मेवार माना जाना चाहिए।

कोल्हापूर मे 2015 के दिसंबर मे हुई एस.एम. मुश्रीफ की किताब की परिचर्चा के अध्यक्षीय भाषण तथा विश्वविद्यालय मे दिये गये भाषण मे वहाँ के कुछ विद्यार्थी प्रतिनीधीयोसी हुई वैचारिक झडप भी हत्या की वजह मानी जा रही हैं। खैर जो भी हो महाराष्ट्र के एक कृतिशील कार्यकर्ता और समाजसेवी आज हमारे बीच नही हैं।

केंद्र में फासीवादियों के सत्‍ता में आने के बाद मॉब लिचिंग, रामजादे, अनुच्छेद-370, नागरिकता संशोधित कानून जैसे कुछ मामलों से आम जनता और सरकार के बीच की दूरीयाँ बढ गयी हैंकभी गोली मारो सालो को, लव जिहादगौरक्षा तो कभी जनसंख्‍या वृद्धि जैसे झूठे मुद्दों को उछालकर गरीब मेहनतकश जनता को बांटा जा रहा हैताकि सामाजिक और आर्थिक तौर पर उनकी लूट का कोई विरोध करने खड़ा ना हो। उसी तरह देश मे आये दिन आरटीआय अ‍ॅक्टिविस्ट मारे जा रहे है।

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धर्मनिरपेक्ष विचारक, बुद्धिजिवीसाहित्‍यकारोंसंस्‍कृतिकर्मीमीडियाकर्मी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हमले के शिकार हो रहे हैस्वच्छ छ्वी वाले प्रशासनिक अधिकारी बदले जा रहे हैं। अल्पसंख्यक समुदाय पर हमले बढ रहे हैं।

पानसरे के हत्या के बाद मानवाधिकार समूह एमनेस्टी इंटरनेशनल ने नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि, “भारत में नये शासन में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ी हैं। इससे साफ जाहीर होता हैं विशिष्ट भूमिका लेकर जीनेवालो कि खैर नही हैं।” 

अपने निधन से पहले गोविन्द पानसरे रोड टोल के मसले पर आन्दोलन की अगुआई कर रहे थें। उस समये के कई अखबारों ने अपने संपादकीय मे इसी टोल मसले को हत्या की वजह मानी थीं। कॉ. पानसरे ने पाँच साल पहले पुणे मे सूचना अधिकार कार्यकर्ता सतीश शेट्टी की हत्या की फाईल फिर से खुलवा दी थी।

मीडिया रिपोर्ट कि माने तो पानसरे का मानना था किटोल की उगाही न केवल अन्यायपूर्ण है बल्कि अन्तहीन भ्रष्टाचार की जड़ हैजो राजनेताओं को मालामाल करती है। महाराष्ट्र में सरकारी मिलीभगत के ज़रिये टोल टैक्स वसूली में हो रही धांधली पर जमकर प्रहार उन्होंने किया था। वे टोल प्रणाली को खत्म करने के लिए ही आंदोलन कर रहे थे। 82 साल के एक बुढे आदमी से समाज विरोधी और जनविरोधी ताकतें इतना डर गईं की उनकी हत्या कर डाली।

महाराष्ट्र मे पानसरे के हत्या के बाद बुद्धीजिवी वर्ग के खेमे में बडी चिंता थीविशिष्ट वैचारिक भूमिका लेनेवाले इस हत्या के बाद सकते आ गये थें। आज भी यह डर कम नही हुआ हैं।

डॉ. दाभोलकर हत्या के बाद महाराष्ट्र के संत साहित्य के शोधकर्ता डॉ. सदानंद मोरे को चुप हो जाओ वरना तुम्हारा दाभोलकर करेंगे’ इस तरह की धमकीयाँ मिलनी शुरू हो गयी थी।

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उसके बाद मराठी साहित्यिक श्रीपाल सबनीस, मीडियाकर्मी निखिल वागले, मानवी अधिकार कार्यकर्ता अ‍ॅड. असिम सरोदे जैसे कई लोगो को धमकिया मिलनी शुरू हुई थी। कॉम्रेड गोविन्द पानसरे को भी पिछले कुछ दिनो से फोन कॉल्स तथा धमकीभरे पत्र आते रहे थें।

पानसरे सर्वहारा वर्ग के मसीहा के रुप जाने जाते थेमहाराष्ट्र में उनकी पहचान एक बुद्धिजीवी तथा एक कुशल संघटक के रुप में थी। हमेशा समाज के हर वर्ग मे उनकी उठक-बैठक रही।

चायवाले से लेकर दिहाडी मजदूर ठेलेवाले, टपरीवालेअपने बौद्धिक तथा वैचारिक प्रतिद्वंदी से भी उनकी अच्छी जुगत रही हैं इनमें से तो कोई उनकी हत्या करने से रहाफिर प्रश्न उपस्थित होता हैं की हत्या किसने कीशक की सुई सिधे रुढीवादी के तरफ जाती हैं।

जिस तरह फेसबुक तथा अन्य मीडिया का दुरुपयोग किया वह चिंतनीय हैंयहाँ दहशत फैलाने का काम यहाँ नियोजनबद्ध तरिके से किया जा रहा है। दाभोलकर और पानसरे के हत्या के बाद सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी संगठनो द्वारा हत्या का समर्थन किया जा रहा था। महाराष्ट्र में दाभोलकर और पानसरे जैसों की हत्या समाज में वैचारिक द्वंद पैदा करने में सक्षम हुई हैं।

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तमाम दिखावटी जाँच के बावजूद आज तक दाभोलकर और पानसरे के हत्यारे पकड़े नहीं गए है। दाभोलकर के हत्या के अठाराह महिने बाद पानसरे की हत्या ने समूचे महाराष्ट्र और देश को सकते में डाल दिया था। इन दोनो के बाद एम. एम. कुलबुर्गी और गौरी लंकेश के हत्या ने ऐसे ही देश को सकते में डाल दिया था।

इन सारे हत्या के बाद अब तक सरकार ने किसी कि जवाबदेही तय नही की हैं। इन हत्या से एक बार फिर ये सिद्ध कर दिया है कि दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी ताकतों का मुकाबला करना बेहद मुश्कील होते जा रहा हैं। निश्चित रूप से कोर्ट-कचहरी की लड़ाई संवैधानिक हैंपरंतु 75 साल के इतिहास ने ये दिखा दिया है कि फ़ासीवाद के विरूद्ध कचहरी की लड़ाई से ही काम नहीं चल सकता और कोर्ट की अपनी भी कुछ सीमाएं हैं।

संवैधानिक दायरे के भीतर मौजूद जनवादी स्पेस’ का भी हमें अधिकतम इस्तेमाल करना होगा पर मात्र यही पर्याप्त नहीं है। उसी तरह महाराष्ट्र की सरकार और केंद्र की भाजपा सरकार की जिम्मेदारी है कि बुद्धिजीवी के हत्या के आरोपियों की तलाश करें और उन्हें सजा दिलवाएं।

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