वामिक जौनपुरी का शुमार उन शायरों में होता है, जिनकी वाबस्तगी तरक्कीपसंद तहरीक से रही। जिन्होंने अपने कलाम से सरमायेदारी और साम्राज्यवाद दोनों पर एक साथ हमला किया। समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों के हक में अपनी आवाज बुलंद की।
अपनी शायरी में भाईचारे, समानता और इन्सानियत की आला कद्रों को हमेशा तरजीह दी। ‘भूका है बंगाल’ नज्म उनकी शायरी की मेराज है। यदि इस नज्म को लिख देने के बाद वामिक जौनपुरी और कुछ भी न लिखते, तो भी वे उर्दू अदब में हमेशा जिन्दा रहते। उन्हें कोई भुला नहीं पाता।
वामिक जौनपुरी की इस शाहकार नज्म की तारीफ करते हुए, अपनी किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में सज्जाद जहीर ने लिखा है, “तरक्कीपसंद अदब की तारीख में वामिक का यह तराना सही मायने में सोने के हरूफ से लिखे जाने लायक है। वह वक्त की आवाज थी। वह हमारी इन्सान दोस्ती के जज्बात को सीधे-सीधे उभारता था। उसकी जबान और छब आम जन जीवन से संबंधित थी।’’
ये इंकलाब है किश्तेरे अवाम का हासिल
हमें न भूलना जब मुल्क में हो वो दाखिल
मेरे भी नाम से दो फूल उसके बैरक पर
मेरी तरफ से भी दो नारे उसकी रौनक पर
‘वामिक’ जौनपुरी का असल नाम सैयद अहमद मुज्तबा था और उनकी पैदाइश 23 अक्टूबर, 1909 को जौनपुर (उत्तर प्रदेश) के नजदीक मौजा कजगांव में हुई। उनके वालिद खान बहादुर सैयद मुहंमद मुस्तफा, ब्रिटिश हुकूमत में एक आला अफसर थे। उनकी शुरुआती तालीम सूबे के सुल्तानपुर, बाराबंकी और फैजाबाद जिले में हुई।
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स्वाधीनता आंदोलन से प्रभावित
बचपन में ही तकनीक और विज्ञान के जानिब उनकी दिलचस्पी देखी, तो वालिद ने फैसला किया कि उन्हें इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाएंगे। लिहाजा लखनऊ यूनिवर्सिटी में उनका बीएससी में दाखिला करा दिया गया। लेकिन उनकी किस्मत में इंजीनियर बनना मंजूर नहीं था। बीएससी में फेल होने के बाद, उन्होंने जैसे तैसे बीए की डिग्री हासिल की।
स्कूली तालीम में भले ही वामिक अच्छे स्टूडेंट नहीं रहे, लेकिन अदब से उनकी मोहब्बत शुरू से ही थी। उनके नाना उन्हें बचपन में ‘तिलस्मे होशरुबा’, ‘किस्स-ए-चहारदरवेश’, ‘दास्ताने अमीर हमजा’ और ‘अलिफ-लैला’ जैसी कदीम दास्तानें सुनाया करते थे, जिसका असर यह हुआ कि अदब में उनकी दिलचस्पी बढ़ती चली गई।
किस ने आँचल पे मिरे डाल दिए अँगारे
ठीक से कटने भी न पाया था तौक़-ए-गर्दन
अभी तो सदियों का पामाल था मेरा ख़िर्मन
उस पे इन वहशी-लुटेरों ने सियहकारों ने
मेरे अरमानों को ताराज क्या लूट लिया
मेरे मासूमों को बे-ख़ाना ओ बर्बाद किया
बचपन से होश संभालने तक वे मुहंमद हसन आज़ाद, शिबली नोमानी, अल्ताफ हुसैन हाली, सैयद हैदर यलदरम और नियाज फतेहपुरी यानी उर्दू अदब के नामी अदीबों से लेकर दुनिया भर के तमाम अदीबों की किताबें पढ़ चुके थे।
वामिक की नौजवानी का दौर, मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। हर आम-ओ-खास इस आंदोलन से प्रभावित था। यह कैसे मुमकिन था कि आज़ादी के आंदोलन का उन पर कोई असर नहीं पड़ता। कॉलेज में तालीम के दौरान प्रोफेसर डी.पी. मुखर्जी वे शख्स थे, जिन्होंने वामिक की जिन्दगी को एक नई राह दिखलाई।
साल 1936 में लखनऊ के रिफाहे-आम क्लब में जब प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, तो वामिक जौनपुरी भी अपने उस्ताद मुखर्जी के साथ इस ऐतिहासिक संमेलन में शामिल हुए। अधिवेशन ने जैसे उनके मुस्तकबिल की राह तय कर दी।
जेहनी तौर पर इतनी वैचारिक उथल-पुथल होने के बाद भी वामिक जौनपुरी का रुख अभी लेखन की तरफ नहीं हुआ था। पढ़ाई पूरी हुई, तो रोजगार की तलाश शुरू हुई। जो वकालत पर जाकर खतम हुई।
उन्होंने कुछ दिन फैजाबाद में वकालत की। शायरी की इब्तिदा यहीं से हुई। जिस मकान में वे किराये से रहते थे, उसी मकान के एक हिस्से में मकान मालिक हकीम मज्जे दरियाबादी का भी निवास था। हकीम साहब शेरो-शायरी के खासे शौकीन थे। लिहाजा आये दिन उनके यहां शेरो-शायरी की महफिलें जमती रहती थीं।
शेर-ओ-अदब की इन महफिलों में खुमार बाराबंकवी, मजरूह सुल्तानपुरी और सलाम मछलीशहरी जैसे नामवर शायर भी शिरकत करते थे। इस संगत का असर यह हुआ कि वामिक जौनपुरी भी शे’र कहने लगे। उनके अंदर ख्यालों का जो सैलाब अभी तक एक जगह इकट्ठा था, वह तेजी से बह निकला। बाकायदगी से शायरी करने का नतीजा यह निकला कि चंद अरसे के बाद ही उनकी पहचान एक शायर की हो गई।
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भूका बंगाल से मिली शोहरत
नौचंदी के मेले की एक मजहबी मजलिस में उन्होंने एक ऐसी नज्म पढ़ी, जो हफ्तावार अखबार ‘अख्तर’ में भी छपी। नज्म के बागियाना तेवर अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आए और डी.एम. ने उन्हें अपने दफ्तर में तलब कर लिया। चूंकि डी.एम. उनके वालिद का दोस्त था, लिहाजा उन्हें कोई सजा तो नहीं मिली, लेकिन उनसे जिले को फौरन छोड़ देने को कहा गया।
इस तरह वामिक जौनपुरी की वकालत छूटी और फैजाबाद जिला भी। गम-ए-रोजगार की जुस्तजू में वे कई शहर मसलन लखनऊ, दिल्ली और अलीगढ़ में रहे। पर जहां भी रहे, शायरी का साथ नहीं छूटा। आखिरकार, कुछ साल भटकने के बाद एरिया राशनिंग ऑफिसर के ओहदे पर उनकी नौकरी लगी। बनारस, इलाहाबाद और जौनपुर में उन्होंने यह शुरुआती नौकरी की। कहीं भी रहे, पढ़ना-लिखना जारी रहा। मुशायरों में हिस्सा लेते रहे।
‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’ वह नज्म है, जिससे वामिक जौनपुरी की शोहरत पूरे मुल्क में फैली। साल 1944 में लिखी गई इस नज्म ने उन्हें एक नई पहचान दी। इस नज्म का पसमंजर साल 1943 में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल है। इस अकाल में उस वक्त एक आंकड़े के मुताबिक करीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे। वह तब, जब मुल्क में अनाज की कोई कमी नहीं थी। गोदाम भरे पड़े हुए थे। बावजूद इसके लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था।
एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी। बंगाल के ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात की तर्जुमानी ‘भूका है बंगाल’ नज्म में है। हालांकि बंगाल के अकाल पर मखदूम मोहियोद्दीन, अली सरदार जाफरी और जिगर मुरादाबादी ने भी पुरजोश नज्में लिखीं, लेकिन उन्हें वह मकबूलियत हासिल नहीं हुई, जो ‘भूका है बंगाल’ को मिली।
आम जबान में लिखी गई यह नज्म हर एक के जेहन में उतरती चली गई। यह नज्म, बंगाल के अकाल पीड़ितों की आवाज़ बन गई। आईये इस नज्म पर नजर-ए-सानी करें,
पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल
दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल
जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी
आज वही कंगाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
कोठरियों में गांजे बैठे बनिये सारा नाज
सुंदर नारी भूक की मारी बेचे घर घर लाज
चौपट नगरी कौन संभाले चारों तरफ भूचाल रे साथी
चारों तरफ भूचाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल।
वामिक जौनपुरी ने इस नज्म में न सिर्फ अकाल से पैदा हुए दर्दनाक हालात का पूरा मंजर बयां किया है, बल्कि नज्म के आखिर में वे बंगालवासियों से अपनी एकजुटता दर्शाते हुए कहते हैं,
प्यारी माता चिंता जिन कर हम हैं आने वाले
कुंदन रस खेतों से तेरी गोद बसाने वाले
खून पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी
दूर करेंगे काल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल।
एक नई उम्मीद, नया हौसला बंधाने के साथ इस नज्म का इख्तिताम होता है।
इप्टा के ‘बंगाल स्कवॉड’ और सेंट्रल स्कवॉड ने ‘भूका है बंगाल’ नज्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया। इस नज्म ने लाखों लोगों के अंदर वतनपरस्ती और एकता, भाईचारे के जज्बात जगाए। इप्टा के कलाकारों ने नज्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ फंड के लिए हजारों रुपए और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया। जिससे लाखों हमवतनों की जान बची।
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कलाम में इंकलाब का आग्रह
वामिक जौनपुरी के सारे कलाम में सामाजिक चेतना साफ तौर पर दिखलाई देती है। उन्होंने सियासी और समाजी मसलों को हमेशा अपनी नज्म का मौजू बनाया। अपनी नज्मों-गजलों में उन्होंने तरक्कीपसंद रुझान से कभी किनारा नहीं किया।
दीगर तरक्कीपसंद शायरों की तरह वामिक जौनपुरी का भी झुकाव मार्कसिज्म की तरफ रहा और उनका यह अकीदा इस ख्याल में आखिर क्यों है ?, उन्हीं की एक मशहूर नज्म ‘कार्ल मार्क्स’ के आइने में,
मार्क्स के इल्म ओ फ़तानत का नहीं कोई जवाब
कौन उस के दर्क से होता नहीं है फ़ैज़-याब
मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार
ज़ेहन को बख़्शा शुऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब
उस की बींनिश उस की वज्दानी-निगाह-ए-हक़-शनास
कर गई जो चेहरा-ए-इफ़्लास-ए-ज़र को बे-नक़ाब
कोई क़ुव्वत उस की सद्द-ए-राह बन सकती नहीं
वक़्त का फ़रमान जब आता है बन कर इंक़िलाब
अहल-ए-दानिश का रजज़ और सीना-ए-दहक़ाँ की ढाल
लश्कर मज़दूर के हैं हम-सफ़ीर ओ हम-रिकाब।
हमारे मुल्क को आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली। पूरा मुल्क दंगों की आग में झुलस उठा। खास तौर पर पंजाब इससे सबसे ज्यादा मुतासिर रहा। फैज अहमद फैज और दीगर तरक्कीपसंद शायरों की तरह वामिक जौनपुरी ने भी इस तक्सीम को तस्लीम करने से साफ इंकार कर दिया। फैज की मशहूर नज्म ‘सुब्हे-आजादी’ की तर्ज पर वामिक जौनपुरी ने अपनी नज्म ‘दूसरी मंजिल’ में कहा,
मेरे साथी मेरे हमदम
तेरे पैगामे-मसर्रत पे गुमां मुझको भी गुजरा
कि वतन हो गया आजाद
आजादी की तस्वीर तो आजादी नहीं खुद
अभी तो मिलती है लाखों दिलों की बस्तियां ताराज
अभी तो इफरीते-तही दस्ती का है चारों तरफ राज।
वामिक जौनपुरी के कलाम में जहां इंकलाब का जबरदस्त आग्रह है, तो वहीं अपनी नज्मों में उन्होंने हमेशा वैज्ञानिक नजरिए को अहमियत दी। ऐसी ही उनकी कुछ नज्में हैं ‘माइटी एटम’, ‘वक्त’, ‘आफरीनश’, ‘जमीं’, ‘एक दो तीन’ आदि। साल 1948 में वामिक जौनपुरी का पहला शे’री मजमुआ ‘चीखें’ छपा। इस मजमुए में शामिल उनकी ज्यादातर गजलें, नज्में साल 1939 से लेकर 1948 तक के दौर की हैं।
साल 1961 से लेकर 1969 तक वे कश्मीर भी रहे। यहां उन्होंने अदबी काम कम ही किया। अलबत्ता हब्बा खातून पर एक ऑपेरा, शायर मखदूम मोहिउद्दीन पर रेडियो वार्ता और ‘उरूसे एशिया’ और ‘डल की एक शाम’ नज्म कश्मीर में ही लिखी गई थीं।
‘शबे-चिराग’ (साल 1978) और ‘सफर-नातमाम’ उनके कलाम के दीगर मजमुए हैं। ‘गजल-दर-गजल’ वह किताब है, जिसमें वामिक जौनपुरी ने गजल पर गंभीर बात की है। उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी। ‘गुफ्तनी-नागुफ्तनी’ टाइटल से यह आत्मकथा, खुदाबख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी ने प्रकाशित की है। उन्होंने बच्चों के लिए काफी सारे गीत लिखे, जो ‘खिलौना’ रिसाले में छपे।
इलाहाबाद में कयाम के दौरान कुछ दिन ‘इंतखाब’ पत्रिका, तो दिल्ली में ‘शाहराह’ का संपादन किया। वामिक जौनपुरी को अदब की खिदमत के लिए कई अवार्डों से नवाजा गया।
जिनमें कुछ अहम अवार्ड हैं – ‘इम्तियाजे-मीर’ (साल 1979), ‘सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड’ (साल 1980), ‘उत्तर प्रदेश अकादमी सम्मान’ (साल 1991) और गालिब अकादमी का ‘कविता सम्मान’ (साल 1998) एक लंबी बामकसद जिंदगी जीने के बाद 21 नवम्बर, 1998 को वामिक जौनपुरी ने इस जहाने फानी से अपनी रुखसती ली।
जाते जाते :
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।