सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि यह समस्याओं की उस वक्त तक अनदेखी करती है जब तक कि भारी तादाद में भारतीय इससे प्रभावित न हो जाएं और वह राष्ट्रीय संकट न बन जाए।
ठीक एक साल पहले, गृहमंत्री अमित शाह से अल्पसंख्यों को धमकी दिए जाने के बाद सरकार ने ऐसा कानून पास कर दिया था जिसे अमित शाह ने कहा था कि यह नागरिकता की क्रोनोलॉजी की दिशा में पहला कदम है।
हम सब जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ…जिन लोगों पर इसका असर होना था उन्होंने देश भर में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए, उन्हें भारत के अंदरूनी लोकतांत्रिक ढांचे से कोई मदद नहीं मिली, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के इस कदम की कड़ी आलोचना हुई। इसके बाद सत्ताधारी दल ने न सिर्फ हिंसा को भड़काया बल्कि उसे बढ़ावा भी दिया।
और इस साल सरकार ने महामारी के बीच ही अध्यादेशों के जरिए ऐसे कानून बना दिए जिनसे खेती करने के तौर तरीके देश भर में और खासतौर से उत्तर भारत में बदल जाएंगे। इन कानूनों के लिए किसी ने मांग नहीं की थी और इन्हें अध्यादेश के जरिए क्यों लाया जा रहा है इसकी कोई सफाई भी सरकार ने नहीं दी।
निश्चित रूप से यह सरकार अपने किसी भी गलत कदम के लिए माफी नहीं मांगती है, और न ही कोई सफाई देती है। ऐसा ही इन कानूनों को लेकर भी हुआ।
उधर आमतौर पर शहरी और मध्य वर्गीय मीडिया के लिए कृषि बिलों की कोई अहमियत ही नहीं थी। अगर आप गूगल पर तलाशें तो आपको दर्जनों ऐसी रिपोर्ट्स मिल जाएंगी जिनकी हेडलाइन आमतौर पर ‘आसानी से समझे कृषि कानून’ लिखी मिल जाएंगी।
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हो रही हैं अनदेखी
हम में से बहुत से लोगों ने मंडिया देखी हैं और पता है कि एपीएमसी या कृषि मंडी समिति क्या होती है और यह क्या काम करती है और आम पंजाबी एमएसपी के मायने समझता है।
जाहिर है कि जब सरकार ने कृषि कानून बना दिए तो किसानों ने इसका विरोध शुरु कर दिया। पहले एक छोटे से समूह ने इसके विरोध में आवाज उठाई, जिसे कथित राष्ट्रीय मीडिया ने अनदेखा कर दिया। कई राज्यों में सिर्फ लोकल मीडिया में ही इसे जगह मिली।
दिल्ली में केंद्र की गद्दी की पर बैठी सरकार ने भी इसे अनदेखा किया। इतना ही नहीं केंद्र सरकार ने रेल पटरियों पर धरना दे रहे किसानों से सीधा मोर्चा लेते हुए पंजाब से होकर गुजरने वाली ट्रेनों को ही रद्द कर दिया जबकि किसानों ने साफ कहा था कि वे रेल यातायात को बाधित नहीं करेंगे।
किसानों के आंदोलन के दौरान रेलवे की किसी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचा और किसान शांतिपूर्ण आंदोलन करते रहे। लेकिन उके पटरियों से हटने के दो महीने बाद तक भी पंजाब से होकर ट्रेनों की आवाजाही नहीं शुरु की गई।
इस सबसे साफ हो गया था कि सरकार कृषि कानूनों से तब तक पीछे नहीं हटेगी जब उसे मजबूर नहीं किया जाए। यह समझते ही किसानों ने दिल्ली कूच कर दिया और देश की राजधानी को घेर लिया।
बीजेपी ने इन किसानों को हरियाणा में रोकने की कोशिशें की, लेकिन किसानों के हौसले के सामने उसकी नहीं चली। और सरकार की हठधर्मी और अहंकार का नतीजा हम देख रहे हैं।
सरकार के सामने किसानों के साथ बैठकर बातचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। आंदोलन है कि कृषि कानूनों को दोबारा लिखा जाए, हालांकि यह काम इन कानूनों को बनाने से पहले ही किसानों से बात करके किया जाना था।
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किसान और सीएए आंदोलन
प्रधानमंत्री कहते नहीं थकते कि वे किसानों का फायदा चाहते हैं, उनकी आमदनी दोगुना करना चाहते हैं, लेकिन किसानों के बारे में कानून बनाने से पहले किसानों से ही बात करने की जरूरत नहीं समझते।
अगर आप देखें तो किसान आंदोलन और सीएए के खिलाफ हुए आंदोलन में काफी समानताए हैं। पहली बात तो यह है कि ये कानून बिना किसी की मांग के ही बना दिए गए। दूसरी बात यह कि अल्पसंख्यकों को इस कानून का खतरा समझ आया, जोकि बाकी आबादी को नहीं समझ आया और उन्होंने इसका विरोध शुरु कर दिया।
तीसरी बात यह कि हममें से ज्यादा को उन लोगों से कोई हमदर्दी नहीं है जो इनसे प्रभावित हैं। सीएए के मामले में मुस्लिम विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें कंसंट्रेशन कैम्पों में भेजा जा रहा था और कृषि कानूनों के मामले में ज्यादातर सिख थे क्योंकि उन्होंने इनका खतरा समझ आ रहा था।
चौथी बात यह कि सरकार ने बेरहमी के साथ विरोध करने वालों को बदनाम किया और उन्होंने अलगाववादी, आतंकवादी और खालिस्तानी आदि कहा।
पांचवी बात यह कि पूरी दुनिया इस बात से चौकन्नी हो गई कि भारत सरकार आखिर कर क्या रही है। लेकिन भारत को अच्छा नहीं लगता कि कोई उसे लेक्चर दे। लेकिन अगर आप कोई निहायत ही बेवकूफी का कदम उठाते हैं तो इसके नतीजों को भी भुगतना होगा।
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विदेश में हो रहा हैं विरोध
यूरोपीय संध की मेंबर ऑफ पार्लियामेंट ने भारत के नागरिकता कानून के खिलाफ कड़ा प्रस्ताव पारित किया और भारत सिर्फ इतना कर सका कि इस प्रस्ताव को पेश होने में सिर्फ देरी ही करा सका। बड़ी और प्रभाव वाली सिख आबादी के देश कनाडा ने कृषि कानून पर अपनी चिंता साफ तौर पर जाहिर की।
भारत ने इस पर आपत्ति जताई कि यह तो हमारा अंदरूनी मामला है लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था। बड़ी तादाद में किसान कनाडा से भारत वापस आ रहे हैं। छठी बात यह कि दोनों ही आंदोलन और मुद्दों का अंत एक जैसा ही होता लगता है।
पीएम मोदी ने अपने गृहमंत्री अमित शाह की तो क्रोनोलॉजी वाले शब्दों पर किरकिरी का सामना करा ही दिया और आखिरकार कह दिया कि एनआरसी का मुद्दा तो अभी चर्चा तक में नहीं आया है। इसके बाद मामला शांत हो गया। इसी तरह कृषि कानूनों पर भी कुछ ऐसा ही होने के आसार नजर आ रहे हैं।
सरकार अभी तक किसान मुद्दे पर अपने तरकश के लगभग सारे तीर इस्तेमाल कर चुकी है, लेकिन किसानों ने अभी भी दिल्ली को घेर रखा है और वे महीनों तक जमे रहने की तैयारी और हौसले के साथ आए हैं।
ऐसे में उनकी मांगे हो सकता है मान ली जाएं और फिर सरकार हमेशा की तरह बिना किसी माफी और सफाई के किसी और अगले ऐसे ही आइडिया को लेकर आ जाएगी।
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लेखक राजनीतिक विश्लेषक और एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व संचालक (भारत) हैं।