लोकसभा से :
माननीय सभापति महोदय,
मैं राष्ट्रपति के अभिभाषण पर इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ और अपनी पार्टी द्वारा रखे गए संशोधनों के समर्थन में बोल रही हूं।
हमारे कई सारे साथी नागरिक, आज जेल में हैं या फिर पुलिस अथवा न्यायिक उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने इस सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई या फिर देश की हालत पर अपनी राय व्यक्त की।
तो एक सांसद के तौर पर मैं अपने विशेषाधिकार के तहत, इस मंच का इस्तेमाल वो सवाल पूछने के लिए करूंगी, जो लोग पूछना चाहते हैं। और उनके विचारों को आवाज़ दूंगी कि गिरफ्तारी, हमले और आवाज़ों को दबाना, चल नहीं पाएगा।
मुझे यक़ीन है कि सत्ता की बेंचों पर बैठे, मेरे साथी मेरी आवाज़ को चिल्ला कर दबाएंगे नहीं। सभापति महोदय, मुझे मेरे लिए निर्धारित किए गए समय तक बोलने देंगे और टैक्सदाताओं के पैसे से चलने वाला लोकसभा टीवी, स्क्रीन्स को ऑफ नहीं कर देगा।
अमेरिकी पत्रकार एल्मा डेविस के शब्द, हमारे गणतंत्र की 72वीं सालगिरह मनाने के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं कि इस गणतंत्र का निर्माण न तो कायरों ने किया था और न ही इसे कायर बचाकर रखेंगे।
तो आज मैं कायरता और साहस… और इन दोनों के बीच के अंतर के बारे में बात करूंगी। उन कायरों के बारे में, जो सत्ता, ताक़त, नफ़रत, गुंडागर्दी और असत्य की आड़ के पीछे छिपते हैं और इसे साहस कहने का दुस्साहस करते हैं।
आख़िरकार इस सरकार ने भ्रामक सूचनाओं और दुष्प्रचार को एक कुटीर उद्योग में बदल दिया है। जिसकी सबसे बड़ी सफलता, कायरता को साहस के तौर पर स्थापित करना रही है। मैं अलग-अलग घटनाएं सामने रखूंगी, जहां इस सरकार ने अपना साहस दिखाया है।
सरकार का कहना है कि उसने एक ऐसा क़ानून लाकर साहस किया है, जो ये नियम तय करता है कि कौन भारतीय है और कौन नहीं! नागरिकता संशोधन बिल, इसी सदन में 2019 में पास हुआ था कि पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों को नागरिकता मिलेगी।
लेकिन साथ ही इसने कई पीढ़ियों से इसी देश में रह रहे, करोड़ों लोगों के लिए असुरक्षा की भावना पैदा कर दी। लेकिन गृह मंत्रालय के मुताबिक, इस संशोधन को लागू करने के लिए नियम दिसंबर, 2020 तक तैयार ही नहीं किये गए थे। इसकी समय सीमा एक बार फिर अप्रैल तक बढ़ा दी गई है। अगर इस सरकार को पड़ोसी देशों में सताए जा रहे, अल्पसंख्यकों की इतनी ही फ़िक्र है, तो लगातार समय सीमा कैसे पूरी नहीं हो रही है?
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लोकतंत्र हुआ पुलिस राज में तब्दील
इसी बीच हम में से कई लोगों ने, इस सरकार से ये कहने की हिम्मत दिखाई है कि ‘क़ाग़ज़ नहीं दिखाएंगे..’ टैगोर के स्वर्ग ‘शांति निकेतन’ के ऊपर केंद्र का प्रभाव डालने से आपका असली रंग नहीं बदल जाएगा। जन-गण-मन का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही, हमारे राष्ट्रगान के तौर पर स्वीकृत किया गया था।
मैं चाहूंगी कि सरकार, उसका बाकी हिस्सा भी पढ़े, शायद उससे आपको टैगोर और बंगाल को बेहतर समझने में मदद मिलेगी। मेरे साथी और सदन में कांग्रेस के नेता (अधीर रंजन चौधरी) ने भी सदन में ये शब्द दोहराए हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उनको बार-बार दोहराते रहना, शायद इस देश का कुछ भला ही करेगा।
अहरह तव आह्वान प्रचारितो, शुनि तव उदार वाणी
(आपका आह्ववान लगातार प्रसारित हो रहा है, सब उसकी उदार वाणी सुन रहे हैं)
हिन्दु, बौद्ध, शिख, जैन, पारसिक, मुसलमान, खृष्टानी
(हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी, मुस्लिम, ईसाई)
पूरब पश्चिम आशे, तव सिंहासन पाशे
(पूरब और पश्चिम से आपके सिंहासन के पास आते हैं)
प्रेमहार होय गाँथा.
(प्रेमहार की तरह गुंथ जाते हैं..)
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
(एकता और धार्मिक विविधता की जय हो..)
साहस, जिसने भारत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को लगभग एक पुलिस राज में तब्दील कर दिया। जहां एक संदिग्ध शिकायत के आधार पर इस सदन का एक सदस्य और एक देश का बड़ा पत्रकार, देशद्रोह का आरोपी बना दिया जाता है।
साहस कि किसी भी राज्य सरकार को छल से या बल से गिरा दिया जाए-भले ही आपको चुनावों में बहुमत मिला हो या कि न मिला हो। आपका दावा है कि आप का सृजनात्मक सहयोग और सहकारी संघवाद में भरोसा है। लेकिन राज्य सरकारों के साथ सहयोग करने की बजाय, आप उनको हर संभव तरीके से कुचलने की क़ोशिश करते हैं।
सत्ताधारी दल अपनी विरासत कैसी चाहता है? कि उसने सबसे बड़े लोकतंत्र को बचाया कि देश में एक दल का राज्य थोप दिया?
हमारे कई सारे साथी नागरिक, आज जेल में हैं या फिर पुलिस अथवा न्यायिक उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। साहस, केवल 4 घंटे के नोटिस पर, राष्ट्रीय लॉकडाउन का एलान कर देना। जिसके नतीजे में अकथनीय दुःख, अनगिनत मौतें, हज़ारों लोगों के सैकड़ों किलोमीटर, भूखे-प्यासे चलने का नज़ारा देखने को मिला।
सामाजिक स्थानांतरण पर इस सरकार ने दो फ़ीसदी से भी कम खर्च किया। जबकि बड़े विकसित देशों ने इस पर 20 फ़ीसदी और मध्य आय वाले देशों ने भी 6 फ़ीसदी ख़र्च किया।
साहस, नहीं सिर्फ दुस्साहस कि आपने आर्थिक पुनर्गठन का एलान कर दिया। साल 2020 में विकासशील देशों में सबसे खराब प्रदर्शन भारत का था। अगर इस सरकार के ही आर्थिक सर्वे पर यक़ीन किया जाए, तो अर्थव्यवस्था 2020 में 7.7 प्रतिशत गिरी और 2021 में 11 फ़ीसदी ऊपर आएगी।
ज़मीनी असलियत ये है कि 2 साल के समय में 2022 में जाकर अर्थव्यवस्था समतल हो पाएगी। तब जाकर हम 2019 के जीडीपी आंकड़ों के बराबर वापस पहुंचेंगे। सर्वे कहता है कि ग्रोथ (बढ़त) से ही गरीबी मिट सकती है, माननीय सदस्यों अगले दो सालों तक हम कोई ग्रोथ करने ही नहीं वाले हैं।
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हर व्यक्ति को कायर बनाया
आप किस बात का जश्न मना रहे हैं? मैं एक ग्रामीण संसदीय क्षेत्र से आती हूं, जहां से तमाम विस्थापित कामगार भी आते हैं। एमएसएमई सेक्टर में मंदी, असली है। इस आर्थिक पुनर्गठन से केवल बड़े उद्योग ही और मज़बूत हुए हैं। यह तरक्की V के आकार की नहीं है। ये K के आकार की है। एक फ़ीसदी अमीर लोग और अमीर हो गए हैं और एमएसएमई सेक्टर का दर्द और बढ़ गया है।
सरकार ने साहस किया, ये कहने का कि उसने डायरेक्ट ट्रांसफर योजना के द्वारा 1 लाख 13 हज़ार करोड़ रुपए दिए। और उसके बाद पेट्रोल और डीज़ल पर सेस बढ़ाकर, वही पैसा उन्हीं गरीबों और मध्यवर्ग से वापस ले लिया। हम वो देश नहीं हैं, जो अपनी बढ़त के साथ संपत्ति को साझा भी कर रहा है।
हम ऐसा देश लग रहे हैं, जो केवल आपस में गरीबी ही बांट रहा है! हद तब हो जाती है, जब आज बजट पेश किए जाने के बाद सेंसेक्स में उछाल आ जाता है। ऐसे देश में जहां, आबादी का केवल 4.6 फ़ीसदी यानी कि 6 करोड़ लोग ही टैक्स देते हैं, वहां कितने लोगों ने शेयर बाज़ार में पैसा लगाया होगा कि वे खुशी से उछल पड़ें?
साहस, कि आप विदेश मंत्रालय के आधिकारिक माध्यम का प्रयोग, सोशल मीडिया पोस्ट्स का जवाब देने के लिए करें। वो भी एक 18 साल की पर्यावरण एक्टिविस्ट और एक अमेरिकन पॉप स्टार की पोस्ट पर! जबकि उसी सरकार द्वारा, किसी मंत्रालय को लगभग 90 दिन से आंदोलन कर रहे किसानों के भोजन, पानी, सफाई का ज़िम्मा नहीं दिया जाता है।
और अंत में, 3 कृषि क़ानून लेकर आना, जबकि किसान, विपक्ष और सरकार के अपने सहयोगी ही उसे स्वीकारने को तैयार नहीं थे। मैं इस सरकार को याद दिला दूं कि पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में सरकार ने अकाली नेता संत फतेह सिंह से 3 वादे किए थे; एक, पंजाबी भाषी राज्य का गठन। सतत सरकारी खरीद और कृषि पर गारंटीशुदा लाभ।
ये कृषि क़ानून, उनमें से दो गारंटियों पर ख़तरा लाते हैं। ये क़ानून, बिना सहमति बनाए, लाए गए। बिना जांच के सदन में रखे गए और सत्तापक्ष द्वारा बलपूर्वक इस देश के हलक में डाल दिए गए। इसने इस सरकार के उद्देश्य को बिल्कुल साफ़ कर दिया है, ‘नैतिकता पर निर्ममता का इस्तेमाल।’
आपके अलावा इस देश का हर व्यक्ति या तो कायर बना दिया गया है, या फिर चरमपंथी। वो चाहें किसान हो, या छात्र नेता; या फिर शाहीनबाग़ की बूढ़ा औरतें!
आप कहते हैं कि आप में साहस है? आपका दावा है कि आपने वो किया है, जो आपसे पहले किसी ने नहीं किया है?
बिल्कुल, ये बिल्कुल सच है। आपने बस अपने साहस क दावे के अलावा, अपने पूरे फ़ासीवादी तरीके से, ओछेपन-दुर्भावना-घृणा-गुंडागर्दी का हर काम किया है!
आपसे पहले किसी ने ये इसलिए नहीं किया क्योंकि ऐसा नहीं था कि उनमें साहस नहीं था। बल्कि ये सही काम ही नहीं था। क्या कभी आपको ये ख़्याल आता भी है?
भारत का दुर्भाग्य सिर्फ ये नहीं है कि उसे उसकी सरकार ने निराश किया दिया, बल्कि लोकतंत्र के दो और खंभों – मीडिया और न्यायपालिका ने भी किया है। ब्रिटिश लेबर पार्टी के सांसद लॉर्ड हेन ने हाउस ऑफ लॉर्ड्स में कहा था, “चाहें हाउस ऑफ लॉर्ड्स हो या कॉमंस, संसद में रहने का क्या लाभ, अगर आप अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाते, अगर आप अपने विशेषाधिकार का प्रयोग आज़ादी और न्याय को बढ़ावा देने में नहीं करते।”
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न्यायपालिका अब पवित्र नहीं रही
आज बंगाल की असल संतान की तरह मैं यहां साहस से खड़ी हूं, श्रीमान बालू, (MP टीआर बालू की ओर देखते हुए..) यक़ीन करें, हमने अभी अपना साहस नहीं खोया है। हालांकि सरकार का प्रचारतंत्र बाद में इसे कायरता या डर फैलाने की तरह प्रचारित करेगा, मैं यहां कुछ ज़मीन सच रखना चाहूंगी!
क्योंकि मेरे संसदीय विशेषाधिकार, इस सदन के अंदर कही गई हर बात के लिए मुझे देशद्रोह या अवमानना से सुरक्षित करते हैं। और माननीय संसदीय कार्य राज्यमंत्री जी.. अगर आप हैं, तो सुनें कि इस बार न आप मुझे चुप करा सकते हैं, न ही मेरे शब्द कार्यवाही से निकलवा सकते हैं।
इस देश की सबसे पवित्र चीज़ मानी जाने वाली न्यायपालिका अब पवित्र नहीं रही, वो उसी दिन अपवित्र हो गई थी, जब देश के चीफ़ जस्टिस पर पर यौन शोषण के आरोप लगे थे और वो ख़ुद ही अपने मुकदमे में जज बन गए थे। ख़ुद को बरी किया और और फिर वे सेवानिवृत्ति के 3 महीने बाद ही, राज्यसभा नामांकन लेकर, साथ में ज़ेड प्लस सुरक्षा भी हासिल कर लेते हैं।
न्यायपालिका ने उसी दिन पवित्र होना छोड़ दिया था, जब उसने ये महान मौका छोड़ दिया था कि जो इससे पहले शायद कभी भी न्यायालय की सबसे बड़ी बेंच के पास नहीं आया था, कि इस लोकतांत्रिक गणराज्य के मूलभूत सिद्धान्त लागू हों और संविधान द्वारा दिखाए गए सही रास्ते को हम अपना सकें।
(सदन में हंगामा और आपत्ति शुरू हो जाती है, संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन मेघवाल और भाजपा सांसद निशिकांत दुबे आपत्ति जताते हुए आक्रोश से खड़े हो जाते हैं। स्पीकर, महुआ मोइत्रा को रोकते हैं..)
आसीन सभापति : 1 सेकेंड रुकिए…प्लीज़..प्लीज़..
अर्जुन मेघवाल : ये सदन में ये चर्चा नहीं कर सकती हैं..
आसीन स्पीकर : रुकिए, रुकिए, रुकिए…
आसीन स्पीकर : मंत्री जी, खड़े हो गए हैं…प्लीज़ 1 मिनट, प्लीज़..
आसीन स्पीकर : जी, मंत्री, आप कहें..
(एमपी निशिकांत दुबे, संसद की रूलबुक पढ़ते हैं)
निशिकांत दुबे : 352(5) 352 प्वाइंट ऑफ ऑर्डर, 352 (5)..आपको बिना नोटिस दिए, चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया पर चर्चा नहीं की जा सकती है।
(सदन में हंगामा चलता रहता है।)
आसीन सभापति : महुआ मोइत्रा जी, कृपया आप बैठ जाइए। यह सदन नियमों और प्रक्रियाओं के आधार पर चलता है। जब कोई सदस्य प्वाइंट ऑफ ऑर्डर कहता है, तो ये उसका अधिकार है और मुझे उसे सुनना होगा। मैं इस पर आदेश पास करूंगा।
निशिकांत दुबे : 352 (5) सदन में बोलते समय, एक सदस्य किसी ऊंचे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के आचार पर विचार व्यक्त नहीं करेगा, जब तक कि कोई मज़बूत आधार, उचित आइटम्स में विवरण के तौर पर न दिया गया हो।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को हम यहां डिस्कस कर रहे हैं, सर, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया.. भारत के राष्ट्रपति ने उस आदमी को नॉमिनेट किया है, भारत के राष्ट्रपति के ऊपर चर्चा कर रहे हैं हम, सर? और यदि इसी तरह से चलता रहा तो इस डेमोक्रेसी का बाजा बज जाएगा। इसीलिए कि उन्होंने राम मंदिर का जजमेंट दिया (ये बात महुआ ने अपनी स्पीच में कहीं भी मेंशन नहीं की थी)।
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सत्तापक्ष हुआ आग बबुला
लोकसभा में हंगामा होता रहता है, तृणमूल सांसद सौगत रॉय, आपत्ति का जवाब देने ख़ड़े होते हैं।
आसीन सभापति : सौगत रॉय जी, आप बोलिए!
सौगत रॉय : मैं 352 (5) नियम को लेकर, महुआ मोइत्रा के कथन को लेकर स्पष्टीकरण देना चाहता हूं। उन्होंने किसी व्यक्ति का नाम लेकर बात नहीं की। दूसरी बात, उन्होंने एक व्यक्ति का ज़िक्र किया, जो कि भारत का मुख्य न्यायाधीश था।
अगर वह व्यक्ति उस पद पर अभी भी होता, तो उसके बारे में किसी तरह का ज़िक्र, महाभियोग के अतिरिक्त नहीं किया जा सकता था। वह व्यक्ति एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश है, अब वह उस ओहदे पर नहीं बैठा है और चूंकि उस व्यक्ति का नाम एक बार भी नहीं लिया गया है, इसलिए महुआ का कहा गया, एक भी शब्द कार्यवाही से निकाला नहीं जा सकता।
मैं आपके विवेक और समझदारी से अपील करता हूं कि इस महिला के कथन को, सत्ताधारी पार्टी के प्रति झुक कर, कार्यवाही से न हटाएं।
संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन मेघवाल बोलने खड़े होते हैं;
अर्जुन मेघवाल : मैं कह रहा था सभापति महोदय, ये जो माननीय सदस्या बोल रही थी। इसमें यौन शोषण का आरोप लगाया, माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया पर। ये हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? और इस सदन में हम ये चर्चा कर रहे हैं और सौगत रॉय जैसा व्यक्ति इसे डिफेंड कर रहा है? ये इतने विद्वान आदमी इनको डिफेंड कर रहे हैं।
ये तो शर्मनाक गतिविधि है। आप भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप लगा रहे हैं, वो भी खुलेआम। ये सदस्या का ग़लत आचरण है।
आसीन स्पीकर : मुझे मेरा फैसला कहने दीजिए। हम कार्यवाही जारी रखेंगे, अगर कुछ भी संवैधानिक ओहदे को प्रभावित करेगा या असंसदीय होगा, तो निश्चित रूप से उस पर ध्यान देना होगा और उस में संशोधन करना ही पड़ेगा। इस तरह की टिप्पणियों से परहेज करने की कोशिश करें।
महुआ मोइत्रा अपना भाषण फिर से शुरू करती हैं,
महोदय, ये बेहद अहम है कि न केवल मैं इससे परहेज न करूं, बल्कि उनको सामने रखूं, क्योंकि उन सज्जन पर यौन शोषण का आरोप मैंने नहीं, किसी और ने लगाया। उस पर ट्रायल हुआ, जिसमें वो ख़ुद ही जज रहे। सबसे पहले तो मैं ये कह दूं कि ये आरोप मेरा नहीं और ये शर्मनाक है कि राष्ट्रपति द्वारा उस पद पर बैठाए गए व्यक्ति पर, ऐसा भयानक आरोप लगे। और फिर हज़ारों प्रवासी कामगार सड़क पर चलते हैं और आधुनिक स्वतंत्रता सेनानी, जेलों में सड़ाए जा रहे हैं।
सदन में फिर विरोध शुरू हो जाता है, मंत्री अर्जुन मेघवाल फिर खड़े होते हैं,
अर्जुन मेघवाल : सभापति महोदय, ये आदेश का पालन नहीं कर रही हैं। ये फिर वही दोहरा रही हैं।
सभापति : देखिए, कुछ भी आपत्तिजनक, रेकॉर्ड में नहीं जाएगा।
अर्जुन मेघवाल : वे अभी भी सभापति के आदेश तक का पालन नहीं कर रही हैं, वे भारत के मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ वही आरोप दोहरा रही हैं।
(महुआ बोलने देने का अनुरोध करती रहती हैं और स्पीकर उनको बैठने का अनुरोध करते रहते हैं।)
आसीन सभापति : महुआ मोइत्रा जी, आपने अपनी बात कह दी है।
महुआ मोइत्रा : जी सर, कृपया मुझे मेरा भाषण जारी रखने दें।
आसीन सभापति : थोड़ा धैर्य रखें।
महुआ भाषण जारी रखती हैं;
महुआ मोइत्रा : न्यायपालिका ने उसी दिन पवित्र होना छोड़ दिया था, जब उसने ये महान मौका छोड़ दिया था कि…
स्पीकर, महुआ मोइत्रा को बैठने का अनुरोध करते हैं, इसी बीच भाजपा सांसद निशिकांत दुबे फिर से खड़े होते हैं;
निशिकांत दुबे : सर, मैं नियम 356 बताना चाहता हूं।
स्पीकर : जी..!
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निशिकांत दुबे : 356, जब किसी सदस्य के असंदर्भित और बेवजह दोहरावपूर्ण वक्तव्यों के प्रति सदन का ध्यान आकृष्ट करता है। तो उस सदस्य को उसकी स्पीच को रोक देने का आदेश दिया जा सकता है। वे अभी भी दोहरा रही हैं। आपके आदेश के बाद भी दोहरा रही हैं।
आसीन सभापति : निशिकांत दुबे जी, हमने इस मामले को तय कर लिया है। अगर कोई बात, देश के चीफ जस्टिस की गरिमा के ख़िलाफ़ जाएगी तो हम इसके बाद प्रक्रिया को अपनाएंगे और उसे हटाएंगे।
महुआ मोइत्रा का भाषण, फिर से शुरू होता है;
न्यायपालिका ने उसी दिन पवित्र होना छोड़ दिया था, जब उसने ये महान मौका छोड़ दिया था कि.. जो इससे पहले शायद कभी भी न्यायालय की सबसे बड़ी बेंच के पास नहीं आया था, कि इस लोकतांत्रिक गणराज्य के मूलभूत सिद्धान्त लागू हों। बल्कि उसने प्रवासियों को सड़क पर मौत की ओर चलने दिया। हमारे सबसे अहम लेखकों-एक्टिविस्टों को जेल में सड़ने दिया और अब मूकदर्शक बनी रहती है, जब एक नौजवान को मज़ाक करने के लिए, जेल भेज दिया जाता है।
संभवतः न्यायपालिका, शक्तियों के विभाजन का सिद्धान्त भूल गई है कि केवल और केवल संसद ही क़ानून बना सकती है। अगर किसी क़ानून में कुछ ग़लत है, तो अदालतें उसे निरस्त कर सकती हैं, या फिर उस पर असंवैधानिक होने के कारण स्टे दे सकती हैं।
लेकिन अगर ऐसा नहीं है, तो अदालतों को कुछ नहीं करना चाहिए, इसका परिणाम केवल और केवल सरकार को भुगतना चाहिए। अगर सरकार कृषि क़ानून लाई है, तो या तो सरकार उसे निरस्त करेगी या फिर जनता सरकार को सत्ता से बाहर कर देगी।
हमको इमरजेंसी के दौरान, जबलपुर हाईकोर्ट के एडीएम जैसी सज्जनता और साहस दिखाए जाने की तुरंत ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट लगातार नागरिकों को निराश कर रहा है और केवल विशेषाधिकारों और दुर्भाग्य से अपना ही संरक्षण कर रहा है।
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मीडिया निचले स्तर पर
भारतीय मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा, एक नए निचले स्तर पर जा पहुंचा है। न केवल तथ्यपरक रिपोर्टिंग के अभाव में, बल्कि पत्रकारिता के सिद्धान्तों की पूरी अनुपस्थिति के कारण भी। और फिर भी, जब मानक इतने गिर चुके हैं, एक व्हॉट्सएप चैट लीक होती है.. जिससे मीडिया, रेटिंग एजेंसी और पूंजीपतियों की सांठगांठ का वो खेल सामने आता है, जिससे हमको बचाने का इस सरकार का दावा है।
जो भी साहसी मीडिया का हिस्सा बचा है, उसे अब UAPA और बाकी पुरातनपंथी क़ानूनों से निशाना बनाया जा रहा है। आप कांग्रेस पर आपातकाल को लेकर तंज़ करते हैं, लेकिन आज भारत एक अघोषित आपातकाल में जी रहा है। लेकिन सरकार का आकलन ग़लत है, कायरता और साहस के बीच एक मूलभूत अंतर है।
कायर, केवल तभी बहादुर होता है – जब शक्ति से लैस होता है सच्चा साहसी, निहत्था होकर भी लड़ाई नहीं छोड़ता है। ये भूलिएगा नहीं.. मत भूलिएगा, जब आप ग़ाज़ियाबाद का आंदोलनस्थल पुलिस और नौकरशाही के दम पर, रातोंरात खाली कराने का आदेश देते हैं – आप कोई साहसी नहीं हैं. आप कायर हैं। जो शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। असली बहादुर वे लोग हैं, जो गांवों से बिना किसी संसाधन के चले आए, सिर्फ ये मानकर कि उनका विरोध का कारण न्यायसंगत है। उनके पीछे की ताक़त, उनके नेता के आंसू थे. न कि किसी वॉटर कैनन की पानी की तेज़ धार।
ये मत भूलिएगा, जब आप सड़कें बंद करते हैं या हरयाणा के 17 ज़िलों में इंटरनेट बंद कर देते हैं। आप बहादुर नहीं हैं, आप कायर हैं, जो ताकत पर फूल रहा है।
हरयाणा राज्य से भारतीय वायुसेना का 10 फीसदी और भारतीय नौसेना का 11 फीसदी मानव संसाधन आता है। वहां के लोगों को न तो राष्ट्रविरोधी कहा जा सकता है, न ही आतंकी और न ही गद्दार।
भूलिएगा नहीं कि कैसे 60 दिन से चल रहा एक आंदोलन, धूर्तता से क़ब्ज़ा कर लिया जाता है फिर मासूम किसानों पर FIR दर्ज होती है। आप साहस नहीं दिखा रहे हैं, आप तब कायर हैं-जो शक्ति पा गया है।
1783 में, बघेल सिंह और जस्सा सिंह अहलुवालिया ने तब अपनी टुकड़ियों के साथ, दिल्ली को मुग़लों से छीन लिया था। उनके वंशजों को उनसे साहस का सबक नहीं चाहिए, जिन्होंने दिल्ली पर, 2014 में ही क़ब्ज़ा हासिल किया है। अपनी कविता बंदीबीर (बंदी वीर) में रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं.. सरदार बंदा सिंह बहादुर को श्रद्धांजलि देते हुए…
एशेचेसे एक दिन,
जीवन मृत्यु पाएर भृत्तो,
चित्तो भावनाहीन
वह दिन अब आ चुका है…
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 153वें जन्म साल में, केंद्र सरकार ने नेताजी की विरासत को हथियाने का हर प्रयास कर लिया है और उसको अपने साहस के संकीर्ण धागों में बुनने की कोशिश की है। लेकिन इस देश को पता होना चाहिए कि नेता जी के दो युद्धघोष थे, जो दोनों ही उनके साहस और उनकी भावना के प्रतीक थे।
पहला था अभिवादन – जय हिंद, जिस राष्ट्रीय अभिवादन को आज इस सरकार ने एक संकीर्ण धार्मिक नारे से बदल दिया है, जिसे ये युद्धघोष की तरह दुर्व्यवहार करने, धमकाने और हमेशा अल्पसंख्यकों को ये याद दिलाने के लिए इस्तेमाल करते हैं कि सत्ता किसकी है।
नेताजी का दूसरा नारा था, दिल्ली चलो… चलो दिल्ली.. ये सरकार नेताजी के नाम की सेवा करने का दिखावा करती है, पर सच, सच ये है कि आपने सिंघू, टीकरी और ग़ाज़ीपुर में सीमाओं को दीवारों और कीलों से घेर दिया।
उन लोगों को रोकने के लिए, जो सुभाष चंद्र बोस की ही तरह, दिल्ली आकर आपको बताना चाहते हैं कि वे आधे में नहीं मानने वाले। नेताजी ने हमसे कहा था कि कभी भी भारत के भाग्य में यक़ीन मत खोना.. और भारत के भाग्य में कायरों के द्वारा राज किया जाना नहीं लिखा है..अब हम सबके लिए साहस दिखाने का समय आ गया है..
गिरते हैं शहसवार ही मैदान ए जंग में
वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे, जो घुटनों के बल चलें
क़ानून वापसी से कम कुछ भी नहीं…
शुक्रिया…
(सभार : LSTV, ये भाषण मूल रूप से अंग्रेजी मों दिया गया था, जिसका हिन्दी अनुवाद मयंक सक्सेना ने किया हैं।)
लेखिका तृणमूल कांग्रेस से लोकसभा सासंद हैं।