अशफाखउल्लाह के दोस्ती से हुआ था रामप्रसाद बिस्मिल का शुद्धिकरण

रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाखउल्लाह खान के दोस्ती के कई किस्से आज भी चर्चा का विषय बनते हैं। नये दौर में इन दोनों दोस्ती नई पिढी के लिए आदर्श मिसाल बनी हैं। जो भी इन दोनो क्रांतिकारीओं के बारे में जानता हैं या जानने की कोशिश करता हैं; वह उन जैसा बनने की कोशिश जरूर करता हैं।

आज के सांप्रदायिक राजनीति के दौर में समय समय पर यह दोनों याद आते हैं। जहां हर रोज मीडिया लोगों कि जेब की बात को भूलाकर कोई भी मामला हिंदू विरुद्ध मुसलमान बनाता हैं, तब यह दो मित्र याद आते हैं और मन अपने आप से सवाल करता हैं, क्या इसी दिन के लिए अशफाख और राम नें अपने जान दी थी?

ब्रिटिशों द्वारा किए गये बंगाल के विभाजन के बाद समुचे भारत में हिन्दू मुसलमान के बीच कई विवाद खडे हुए थे, जिसकी वजह से दोनों समुहों में सालों तक टकराव जारी रहा। 1920 आते आते यह टकराव सांप्रदायिक दंगो मे तब्दिल हुआ। इसी समय अशफाखउल्लाह खाँ और रामप्रसाद बिस्मिल की दोस्ती ने सबको चौंका दिया।

अशफाख एक धार्मिक मुसलमान थे, जबकी रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के सक्रीय कार्यकर्ता थें। हिन्दू धर्म से दुसरे मजहब में जानेवाले लोगों का शुद्धिकरण कर दुबारा हिन्दू धर्म में लाने की मुहिम में भी शामील हुए थें। वे काफी धार्मिक विचारों के व्यक्ती थें। इन दोनों की दोस्ती को लेकर, दोनो के घरवाले हमेशा परेशान रहते थे।

अपने इस दोस्तीं का जिक्र रामप्रसाद बिस्मिल अपने आत्मचरित्र में इस तरह करते हैं, ‘‘एक आर्य समाजी और एक मुसलमान में यह दोस्ती कैसे कायम हुई, यह देखकर लोग दंग रह जाते। मैं मुसलमानों का शुद्धिकरण करता रहता था। आर्य समाज के मंदिर में ही मेरा निवास था। लेकीन तुमने इन तमाम चिजों की जर्रा बराबर परवाह न की।

पढ़े : अपनों की गद्दारी के चलते शहीद हुए तात्या टोपे

पढ़े : राम मुहंमद आज़ाद उर्फ उधम सिंह के क्रांतिकारी कारनामे

पढ़े : भगत सिंह कहते थे, ‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष जरुरी नहीं’

मेरे बाज दोस्त महज इसीलिए की तुम मुसलमान हो इसलिए घृणा की नजर से देखते थें। लेकीन तुम मजबूत इरादे से जमे रहें। मुझसे मुलाकात के लिए तुम अक्सर आर्य समाज के मंदिर आते-जाते रहते थे। हिन्दू और मुसलमानों में जब फसादात होते तो तुम्हारे मोहल्ले के अक्स लोग तुम्हारे ही मुंह पर तुम्हे बुरा भला कहते थे। लेकीन तुम कभी इन लोगों के विचारों से सहमत नहीं हो सके।’’ (बिस्मिल का आत्मचरित्र, पृष्ठ-105)

आर्य समाज से संबंध रखने वाले रामप्रसाद बिस्मिल से दोस्ती तोडने के लिए उनके दोस्तों के जरीए उनपर दबाव बनाते रहे। मगर अशफाख उनकी दोस्ती से कभी दूर नही हुए।

वह हर दिन बिस्मिल से मिलते, ज्यादा से ज्यादा समय उनके साथ गुजारते। आजादी जैसे महान उद्दिष्टों के साधने के लिए स्वीकार किए जाने वाले मुख्तलिफ मनसुबों पर गौर व फिक्र करना इन्हे अमल में लानेवाने तरीकों पर बहस करने में इन क्रांतिकारीयों का वक्त चला जाता था। मगर अशफाख के घरवालों को डर था कही बिस्मिल इनका शुद्धिकरण ना कर दें।

एक बार अशफाख को तेज बुखार आया वैसी हालत में वह रामप्रसाद बिस्मिल से मिलने की रट लगाए हुए थे। वह बिस्मिल को राम कहते थे। बिमारी में जब वह बिस्मिल को याद करने लगे तो उनके मुंह से राम-राम यह शब्द निकलने लगे। तब उनके घर वालों को कुछ अजीब डर लगने लगा। इस घटना को रामप्रसाद बिस्मिल इस तरह बयान करते हैं-

‘‘तुम्हारे मोहल्ले में लोग खुले तौर पर तुम्हारा विरोध करते थें, यहां तक की तुम्हे काफीर कह कर पुकारते थें। लेकिन तुमने कभी इनके खयालात से इत्तेफाक नहीं किया। मुझसें तुम्हें बेइन्तेहा लगाव था। तुमने कभी मुझे पुरे नाम सें नहीं पुकारा, तुम हमेशा मुझे राम कहकर ही आवाज लगाते थें। एक मर्तबा तुम्हारी दिल की धडकन तेज होने की वजह से तुम बेहोश हो गए।

पढ़े : चंपारन नील आंदोलन के नायक पीर मुहंमद मूनिस

पढ़े : नेहरू नें नहीं बल्कि मोहानी ने दिया था ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा

पढ़े : यूसुफ़ मेहरअली : भुलाये गए ‘लोकनायक’

इस वक्त तुम्हारी जुबान से राम-राम के शब्द ही निकल रहे थे। इसके सबब तुम्हारे इर्द गिर्द जमा हुए तुम्हारे भाई लोग हैरान रह गए, सोचने लगे की यह क्या बात हैं? इसपर इन लोगों ने तुम्हे अल्लाह-अल्लाह कहने की हिदायत दी। लेकीन तुमने राम-नाम कहना बंद नहीं किया। लेकीन इस बीच इस राम नाम सें परिचित एक दोस्त का वहां आना हुआ।

और उसने मुझे फौरन वहां बुला लिया, मुझसे मिलने के बाद ही तुम्हें कुछ अच्छा लगा। इसके बाद वहां मौजूद लोगों को पता चल गया की इस राम नाम के पिछे छुपा हुआ राज क्या था?’’ (पृष्ठ-106)

रामप्रसाद ने कभी अपने धार्मिक विचारों से अशफाक को प्रभावित करने की कोशीश नहीं की। रामप्रसाद बिस्मिल ने अशफाखउल्लाह से एक बार कह दिया, ‘‘तुम्हारे घरवाले तुम्हारी हरकत से परेशान हैं की, कहीं तुम अपना मजहब छोडकर शुद्धिकरण करवा कर हिन्दू न बन जाओ। लेकीन हकीकत यह है की, तुम्हारा दिल कभी भी नापाक था ही नहीं। तो फिर यह लोग कैसे जानेंगे की तुम किस चिज की शुद्धी करवा लोगें। इस तरह दोस्ती में तुमने जो यश हासिल किया उससे तुमने मेरा दिल जीत लिया हैं।’’ (पृष्ठ-106)

इस तरह बिस्मिल ने अशफाख के धार्मिक खयालात को खिराज ए तहसिन पेश किया। जहां बिस्मिल होते वहां अशफाख जरुर होते। इन दो नौजवानों ने ऐसी आदर्श दोस्ती का उदाहरण पेश किया, जो एक उज्जवल उद्दिष्टों के खातीर वजूद में आनेवाला ऐसा बंधन जो जाति, कौम, धर्म और इलाके के भेद से भी बुलंद होता है।

इसी चिज को इन दोनों अपने दोस्ती के जरिए साबित कर दिखाया। रामप्रसाद बिस्मिल को मुसलमानों के संबंधित कई सारी गलतफहमीयाँ थी। मगर अशफाखउल्लाह खान कि वजह से यह सारी कि सारी दूर हो गयीं।

जाते जाते :

* शाहिद आज़मी ने कराई थी ‘दहशतगर्दों की पहचान?’

* दक्षिणपंथीयों ने किया था गोविन्द पानसरे के हत्या का समर्थन

Share on Facebook