पूरी दुनिया में ‘सभ्यताओं के टकराव’ की बात करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत में भी विघटनकारी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं। लेकिन ‘सभ्यताओं के गठबंधन’ का सिद्धांत ही कई नए उभरते समूहों का पथप्रदर्शक और हमारे भविष्य के लिए वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
अनेकता में एकता, यह वाक्यांश मैंने तभी सुन लिया था जब मैं स्कूल में पढ़ता था। मैं विजयादशमी के दस दिन पहले से होने वाली रामलीला का आनंद लेता था तो ताजियों के जुलूस का भी। ‘वन्दे वीरम्’ के नारे लगाते जैनियों को भी मैंने देखा और दलितों द्वारा डॉ. अम्बेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के उत्सवों का भी मैं साक्षी रहा। कालेज में अपने दोस्तों के साथ मैं क्रिसमस मनाया करता था। अनेकता और विभिन्नता का यह भाव मेरे लिए केवल सैद्धांतिक नहीं था। वह मेरे जीवन का हिस्सा था।
भारतीय समाज में विभिन्नताएं कितनी पुरानी हैं इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। आज जिन देशों में ईसाईयों का बहुमत है, वहां ईसाई धर्म भारत के काफी बाद पहुंचा। सातवीं सदी में इस्लाम भारत के धर्मों में से एक बन चुका था।
शकों, कुषाणों, हूणों और यूनानियों ने हमारी संस्कृति को समृद्ध किया। इस तरह, सामाजिक और धार्मिक विभिन्नता हमारी सामूहिक सोच का हिस्सा बन गई। ऐसा नहीं था कि विवाद नहीं होते थे। नस्लीय विवाद थे और शियाओं और सुन्नियों व शैवों और वैष्णवों में नहीं पटती थी। पर कुल मिलाकर समाज में शांति और सौहार्द का माहौल था।
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संस्कृति और सभ्यता
अशोक के शिलालेख हमें विभिन्न धर्मों (तत्समय बौद्ध, ब्राम्हण, जैन और आजीवक) का सम्मान करने को कहते हैं। अशोक के कई सदियों बाद अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ और ‘सुलह कुल’ को बढ़ावा दिया तो दारा शिकोह ने अपनी पुस्तक ‘मजमा-उल-बहराइन’ में भारत को हिन्दू और इस्लाम रूपी समुद्रों का संगम बताया।
इसके समानांतर थी संत परंपरा। भक्ति संतों जैसे कबीर, रामदेव बाबा पीर, तुकाराम, नामदेव और नरसी मेहता के अनुयायी दोनों धर्मों – हिन्दू और इस्लाम – से थे। सूफी संतों जैसे हजरत निजामुद्दीन औलिया, गरीब नवाज मोईनुद्दीन चिश्ती और हाजी मलंग भारतीय संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा बन गए। उन्होंने सभी धर्मों और जातियों के लोगों को गले लगाया और बिना किसी हिचकिचाहट के स्थानीय संस्कृति को अपनाया।
धर्म के नाम पर विघटन और नफरत की शुरुआत औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के चलते हुई। इस नीति के प्रभाव में आने वाले अधिकांश लोग समाज के कुलीन वर्ग से थे। आम लोगों में तब भी एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता और प्रेम का भाव था।
पर इन प्रवृत्तियों पर स्वाधीनता आंदोलन भारी पड़ा जो समावेशी और सबको साथ लेकर चलने का हामी था। महात्मा गांधी ने हिन्दू धर्म की जिस तरह से व्याख्या की उससे वे सभी धर्मों के लोगों को भारतीय राष्ट्रवाद की माला में रंग-बिरंगे फूलों की तरह गूंथ सके।
गांधी एक चमत्कारिक नेता थे और उनकी मानवता ने सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित किया। उनकी प्रार्थना सभाओं में गीता के श्लोक, कुरआन की आयतें और बाईबल के अंश पढ़े जाते थे।
इस दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद, शौकत उल्ला अंसारी, खान अब्दुल गफ्फार खान और अल्लाह बख्श जैसे लोगों ने नेहरू, पटेल और स्वाधीनता संग्राम के अन्य नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया. इससे भारतीय राष्ट्रवाद और मजबूत व समृद्ध हुआ।
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सामुदायिक धर्म संवाद
हमारे सांस्कृतिक मूल्य एक-दूसरे से गहरे तक प्रभावित हैं और सभी धर्मों ने हमारी खानपान की आदतों, साहित्य, कला, संगीत और वास्तुकला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ दशकों से स्थितियां विपरीत हो गईं हैं। शांति और सौहार्द में कमी आई है।
दूसरी ओर धर्म की सीमाओं को लांघ कर असगर अली इंजीनियर और स्वामी अग्निवेश जैसे जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच संवाद प्रोत्साहित किया और गलतफहमियों का निवारण किया। अंतर-सामुदायिक संवाद ने धर्म और समाज, दोनों के स्तर पर गलतफहमियों को दूर करने में मदद की।
इन दोनों महान व्यक्तियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक करने में महती भूमिका निभाई। ईसाई समुदाय के फॉदर स्टेन स्वामी, वाल्सन थंपू, जॉन दयाल और सेड्रिक प्रकाश जैसे लोगों ने अपने धर्म के मानवीय पक्ष को समाज के सामने रखा।
इन पहलों से विविध समुदायों के बीच प्रेम और सद्भाव को मजबूती देने में मदद मिली। समाज में सौहार्द को बढ़ावा देने में इन सभी लोगों की अभूतपूर्व भूमिका है। एक तरह से वे उन आंदोलनों का भाग हैं जिन्होंने सौहार्द और प्रेम के रूप में अपनी छाप हमारे समाज पर छोड़ी है।
इस कठिन दौर में लोगों को एक-दूसरे के नजदीक लाने के लिए फैजल खान ने ‘खुदाई खिदमतगार’ संगठन को पुनर्जीवित किया। इस संगठन की स्थापना खान अब्दुल गफ्फार खान ने की थी। यह संगठन जमीनी स्तर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बेहतर रिश्तों को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।
इसके लिए यह संगठन दोनों समुदायों के लोगों को एक-दूसरे के मूल्यों का सम्मान करना सिखा रहा है। इस संगठन ने ‘अपना घर’ की स्थापना की है जहां विभिन्न समुदायों के लोग एकसाथ रहते हैं और अपने-अपने धर्मों के सिद्धांतों और आचरणों को एक-दूसरे से सांझा करते हैं।
आनंद पटवर्धन लिखते हैं, “भारत में फैजल खान ने सन् 2011में महात्मा गांधी शहीदी दिवस पर खुदाई खिदमतगार का 21वीं सदी का संस्करण शुरू किया। मूल संस्था के उद्धेश्यों में उन्होंने यह जोड़ा कि पुनर्जीवित संस्था में कम से 35 सदस्य गैर-मुस्लिम होंगे।
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कारवा-ए-मोहब्बत
अंतर-सामुदायिक संवादों के आयोजन से अपना काम शुरू करने वाली यह संस्था लोगों का दिल जीतने में सफल रही है। पूरे देश में इसके सदस्यों की संख्या वर्तमान में 50 हजार से भी अधिक है। इसके सदस्यों में बड़ी संख्या में हिन्दू शामिल हैं। इनमें से कुछ ऐेसे भी हैं जो पूर्व में आरएसएस से जुड़े हुए थे।”
पिछले कुछ सालों से हमारे देश में लिंचिंग जैसे भयावह अपराध ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। लिंचिंग के शिकार परिवारों को सामाजिक सहारा हासिल नहीं होता और अपने घर के एक सदस्य की भयावह मौत को वे भुला नहीं पाते। इस तरह के परिवारों को संबल प्रदान करने के लिए हर्षमंदर ने ‘कारवा-ए-मोहब्बत’ शुरू किया है।
इस समूह के लोग ऐसे परिवारों को नैतिक और सामाजिक संबल उपलब्ध करवाते हैं। इस आंदोलन ने ऐसे परिवारों की अमूल्य सहायता की है। देश के कई शहरों में ऐसे सांप्रदायिक सौहार्द संगठन और परोपकारी समूह भी हैं जो विभिन्न समुदायों के सदस्यों की अलग-अलग तरह से मदद करते हैं।
ये समूह चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। उनके काम की कहीं चर्चा नहीं होती। इसके विपरीत विघटनकारी समूहों द्वारा की जाने वाली हिंसा हमेशा चर्चा में रहती है।
भारत में हाल में समाप्त हुआ किसान आंदोलन भी सांप्रदायिक सौहार्द और एकता की एक मिसाल था। शाहीन बाग आंदोलन ने भी अंतर-सामुदायिक रिश्तों को मजबूती देने का काम किया।
समस्या यह है कि पूरी दुनिया में ‘सभ्यताओं के टकराव’ की बात करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत में भी विघटनकारी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं।
कोफी अन्नान के कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक उच्चस्तरीय समिति बनाई थी जिसने ‘सभ्यताओं के गठबंधन’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यही सिद्धांत कई नए उभरते समूहों का पथप्रदर्शक है। ये समूह हमारी संस्कृति और समाज के साझा चरित्र को पुनर्जीवित करना चाहते हैं।
आशा की ये किरणें भले ही बहुत साफ-साफ दिखलाई न देती हों, परंतु हमारे भविष्य के लिए वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
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लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।