नौ साल पहले ३० सितंबर २०१० को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने अयोध्या मामले में फैसला सुनाते हुए विवादित भूमि को तीन भागों में बांट दिया और तीनों पक्षकारों को बराबर-बराबर ज़मीन दे दी।
उस समय अदालत ने यह भी कहा था कि चूंकि हिंदुओं की आस्था के अनुसार बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के ठीक नीचे भगवान राम का जन्मस्थल है, इसलिए वह हिस्सा हिंदुओं को दिया जाना चाहिए। फैसले से उत्साहित आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की थी कि अब विवादित भूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का रास्ता सा़फ हो गया है और इस राष्ट्रीय कार्य में सभी पक्षों को अपना सहयोग देना चाहिए।
इस मामले में मुलायम सिंह यादव की प्रतिक्रिया बिल्कुल ठीक थी। उनका कहना था कि “मुसलमान खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।” पहले उनकी मस्जिद में रात के अंधेरे में कुछ शरारती तत्व ज़बरदस्ती घुसकर रामलला की मूर्तियां स्थापित कर देते हैं, फिर एक योजनाबद्ध षड्यंत्र के तहत संघ परिवार उस मस्जिद को ही ज़मींदोज कर देता है।
पढ़े : बाबरी के बाद ‘राम के नाम’ इस रेकॉर्ड का क्या होंगा?
पढ़े : काशी-मथुरा के बलबुते आस्था की राजनीति
तुलसीदास ने क्या कहा था?
संघ परिवार ने १९८० के दशक में राममंदिर आंदोलन का पल्ला थामा। उसने अत्यंत योजनाबद्ध तरीक़े से हिंदुओं के एक तबके को यह विश्वास दिला दिया कि भगवान राम ठीक उसी स्थान पर पैदा हुए थे, जहां बाबरी मस्जिद स्थित थी। जबसे भगवान राम चुनावी मुद्दा बना, अधिकतर हिंदुओं ने कभी राम मंदिर के एजेंडे का समर्थन नहीं किया।
हिंदुओं का एक तबका अवश्य राम मंदिर का समर्थक है, परंतु विभिन्न चुनावों के परिणामों से साफ है कि बहुसंख्यक हिंदू राम मंदिर के एजेंडे के साथ नहीं हैं। हाल में किए गए कुछ सर्वेक्षणों से यह सामने आया है कि हिंदुओं के एक बहुत छोटे हिस्से के लिए राम मंदिर एक मुद्दा है। युवा पीढ़ी को राम मंदिर से कोई लेना-देना नहीं है, और विशेषकर ऐसे राम मंदिर से, जिसे देश पर दो अपराधों के ज़रिए थोपा जा रहा हो।
दिलचस्प बात यह है कि चंद सदियों पहले तक राम हिंदुओं के प्रमुख देवता नहीं थे। वह मध्यकाल में प्रमुख हिंदू देवता बने, विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की कहानी को सामान्य जनों की भाषा अवधी में प्रस्तुत करने के बाद। तब तक वाल्मीकि की संस्कृत रामायण प्रचलन में थी और चूंकि संस्कृत श्रेष्ठि वर्ग की भाषा थी, इसलिए राम के पूजकों की संख्या अत्यंत सीमित थी।
जिस समय विवादित भूमि पर स्थित कथित राम मंदिर को तोड़ा गया था, उस समय तुलसीदास की आयु लगभग ३० वर्ष रही होगी। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि तुलसी जैसे अनन्य रामभक्त ने अपने लेखन में कहीं इस बात की चर्चा नहीं की है कि उनके आराध्य के जन्मस्थल पर बने मंदिर को किसी आतातायी बादशाह ने गिरा दिया है।
यह सा़फ है कि शासक, चाहे वे किसी भी धर्म के रहे हों, केवल सत्ता और संपत्ति के उपासक थे। कई मौक़ों पर वे युद्ध में पराजित राजा को अपमानित करने के लिए उसके राज्य में स्थित पवित्र धर्मस्थलों को नष्ट करते थे, परंतु इसके पीछे केवल राजनीति होती थी, धर्म नहीं।
अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के तहत इतिहास की इन घटनाओं को इस रूप में प्रस्तुत किया कि मुस्लिम राजाओं ने हिंदू धर्म का अपमान करने के लिए हिंदू मंदिर ध्वस्त किए। सांप्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे गए इसी इतिहास ने दोनों समुदायों को एक-दूसरे का शत्रु बना दिया और यही बैर भाव आगे जाकर सांप्रदायिक हिंसा का कारण बना।
पढ़े : … तो कर्नाटक का शिवाजी रहता टिपू सुलतान
पढ़े : ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, समाज बांटने के प्रयोग कब तक?
ध्रुवीकृत अजेंडा
एक बात स्पष्ट हैं कि अयोध्या मामले में इलाहाबाद निर्णय से आरएसएस के देश को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के एजेंडे को बढ़ावा मिला। इस निर्णय ने रामलला की मूर्तियों की स्थापना को वैधता प्रदान की और बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अपराध को नज़रअंदाज़ किया था। संघ परिवार को अपने गुनाहों का शानदार ईनाम मिला है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत केवल हिंदुओं का नहीं है। साथ ही यह भी कि सभी हिंदू इस बात में विश्वास नहीं करते कि विवादित स्थल भगवान राम की जन्मभूमि है और न ही सभी हिंदू वहां राम मंदिर बना देखना चाहते हैं।
अधिकांश हिंदू राम जन्मभूमि मुद्दे से दूर रहे हैं और उन्हें अत्यंत क्षोभ है कि आम हिंदुओं की राम में आस्था का दुरुपयोग भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए किया गया।
बाबरी मस्जिद एक संरक्षित स्मारक थी, जिसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की थी। भारत सरकार न तो १९४९ में वहां ग़ैर क़ानूनी ढंग से स्थापित रामलला की मूर्तियों को हटवा सकी और न ही १९९२ में मस्जिद पर संघ परिवार के हमले को रोक सकी। भारत सरकार की ये दो बड़ी असफलताएं थीं।
बीते कुछ सालो से बाबरी मुद्दे के हल करने के लिए बातचित तथा संवाद कि बात की जा रही हैं। पर क्या संवाद के ज़रिए इस मुद्दे का हल निकाला जा सकता है? पहली बात तो यह है कि कोई भी हल न्यायपूर्ण होना चाहिए और उसमें सभी संबंधित पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता मिलनी चाहिए। कोई भी समझौता केवल लेनदेन के आधार पर हो सकता है।
क्या जो लोग मुस्लिम समुदाय से सहयोग और समझौता करने के लिए कह रहे हैं, वे यह वादा कर सकते हैं कि उसके बाद देश में मुसलमानों को सुरक्षा और समानता मिलेगी?
मुस्लिम समुदाय सामाजिक और आर्थिक मानकों पर पिछड़ता जा रहा है। क्या सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की स़िफारिशें बिना किसी देरी के लागू की जाएंगी? क्या आरएसएस राम मंदिर के बदले यह सब देने के लिए तैयार है? क्या इसके बाद भारत में मुसलमान सुरक्षित रहेंगे? मुसलमान भारत की आबादी का केवल १३/१४ प्रतिशत हैं, परंतु दंगों में मारे जाने वालों में से ८० प्रतिशत मुसलमान होते हैं। क्या मुसलमानों के सहयोग से अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने के बाद आरएसएस अपने शिशु मंदिरों में मुसलमानों के ख़िला़फ घृणा फैलाने वाली पाठ्य पुस्तकें पढ़ाना बंद कर देगा?
पढ़े : राष्ट्रवाद कि परिक्षा में स्थापित हुआ था जामिया मिल्लिया
पढ़े : भाजपा शासित राज्य में बदल रहा है हिन्दू धर्म का चेहरा
क्या क़ानून का राज रहेगा?
इस तरह के समझौते में कोई समस्या नहीं है, बल्कि यह बहुत अच्छा होगा अगर अयोध्या में राम मंदिर के बदले ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को देश में समानता का दर्जा मिल जाए, अगर उनके ख़िला़फ किया जा रहा आधारहीन दुष्प्रचार बंद कर दिया जाए और अगर मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस वादे पर अमल करने के लिए तैयार हो जाए कि देश के संसाधनों पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का समान हक़ है।
क्या राम मंदिर बनाने में सहयोग के बदले सांप्रदायिक दंगों के दोषियों को सज़ा मिलना सुनिश्चित किया जाएगा? दिल्ली के सिख विरोधी दंगों और मुंबई-गुजरात की मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए दोषी लोग आज भी छाती फुलाए घूम रहे हैं।
क्या उन्हें उनके कुकर्मों की सज़ा दिलाना उस बातचीत से निकाले जाने वाले हल का हिस्सा होगा? क्या मुसलमानों से त्याग की अपेक्षा करने के पहले भारतीय राज्य यह गारंटी नहीं देना चाहेगा कि देश में क़ानून का राज रहेगा और उन्हें पूरी सुरक्षा और आगे बढ़ने के समान अवसर मिलेंगे?
यह साफ है कि राम मंदिर मुद्दे का इस्तेमाल भारतीय संविधान की आत्मा को आहत और विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव को ख़त्म करने के लिए किया जाता रहा है। अल्पसंख्यकों से त्याग करने की अपील तो हम सब कर सकते हैं, परंतु हम सभी को यह मालूम है कि उन्हें इस त्याग के बदले कुछ नहीं मिलेगा।
सांप्रदायिकता हमारे देश की सामूहिक सोच में इतनी मज़बूत जड़ें जमा चुकी है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। हिंदू राष्ट्र के पैरोकार और हिंदुत्व की राजनीति के झंडाबरदार मुसलमानों को कभी शांति और गरिमा से नहीं रहने देंगे। आरएसएस के लिए रोटी, कपड़ा एवं मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताएं कम महत्वपूर्ण हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए राम मंदिर, राम सेतु एवं गौ हत्या जैसे काल्पनिक मुद्दे अधिक।
यह सचमुच अत्यंत दु:खद है कि समाज और राजनीति का इस हद तक सांप्रदायीकरण हो चुका है कि एक राजनीतिक धारा विशेष द्वारा प्रायोजित आस्था न्यायिक निर्णयों का आधार बन रही है।
हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि युवा पीढ़ी और वे सब, जो भारतीय संविधान में विश्वास करते हैं, संकीर्ण पहचान की राजनीति से दूरी बनाएंग। उस राजनीति से, जो धार्मिक आस्था को सत्ता तक पहुंचने का शॉर्टकट बनाना चाहती है। हमें उम्मीद है कि हम ऐसे समाज को बनाने में सफल होंगे, जहां सबको न्याय मिलेगा और समाज के पिछड़े वर्गों के साथ विशेष रियायत बरती जाएगी।
जाते जाते :
*मुसलमानों को लेकर मीडिया में नफरत क्यों हैं?
*सावरकर के हिन्दुराष्ट्र में वंचितों का स्थान कहाँ?
लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।