गांधीजी ने सौ साल पहले किया था CAA जैसे काले कानून का विरोध

सौ साल पहले सन 1919 के मार्च महिने में महात्मा गांधी द्वारा रौलेक्ट एक्ट का विरोध शुरू हुआ। जिस तरह आज CAAऔर प्रस्तावित NRC तथा NPR का विरोध किया जा रहा हैं। कहा जा रहा हैं कि महात्मा गांधी के इसी आंदोलन कि प्रेरणा लेकर आज CAA और NRC के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाए जा रहे हैं 

‘रौलेक्ट एक्ट’ को काला कानून बताकर महात्मा गांधी ने  इसके खिलाफ आंदोलन खडा किया। इस कानून से ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ था कि, किसी भी भारतीय नागरिक को बिना किसी अदालती मुकदमे के सालों तक जेलों में बंद किया जा सकता था। इस कानून का पुरा नाम ‘The Anarchical and Revolutionary Crime Act-1919’ था।

सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता वाली ‘सेडिशन समिति’ ने इसे बनाया था। इसलिए इसका नाम रौलेट पडा। महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ देशव्यापी हडताल शुरू की। गांधीजी ने इस कानून के बारे में अपनी आत्मकथा मे लिखा हैं। जिसे हम कुछ भागों में आपके लिए दे रहे हैं। आज उसका पहला भाग..

परेशन के बाद बिछौना छोड़कर उठने की कुछ आशा बँध रही थी और अखबार वगैरा पढ़ने लगा ही था कि इतने में रौलट कमेटी की रिपोर्ट मेरे हाथ में आई। उसकी सिफारिश पढ़कर मैं चौंका।

भाई उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर ने चाहा कि कोई निश्चित कदम उठाना चाहिए। एकाध महीने में में अहमदाबाद गया। वल्लभभाई रोजाना मुझे देखने आते थे। मैंने उनसे बात की और बताया कि इस विषय में हमें कुछ करना चाहिए। 

“क्या किया जा सकता है?” इसके उत्तर में मैंने कहा: “यदि थोडे लोग भी इस संबंध में प्रतिज्ञा करनेवाले मिल जाएँ तो, और कमेटी की सिफ़ारिश के अनुसार कानून बने तो, हमें सत्याग्रह शुरू करना चाहिए। यदि मैं बिछौने पर पड़ा न होता, तो अकेला भी इसमें जूझता और यह आशा रखता कि दूसरे लोग बाद में आ मिलेंगे। किन्तु अपनी लाचार स्थिति में अकेले जूझने की मुझमें बिलकुल शक्ति नहीं है।”

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बातचीत के परिणाम स्वरूप ऐसे कुछ लोगों की एक छोटी सभा बुलाने का निश्चय हुआ, जो मेरे सम्पर्क में ठीक-ठीक आ चुके थें। मैं तो स्पष्ट रूप से समझ चुका था कि प्राप्त प्रमाणों के आधार पर रौलट कमेटी ने जो कानून बनाने की सिफारिश की है उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे यह भी इतना ही स्पष्ट प्रतीत हुआ कि स्वाभिमान की रक्षा करनेवाली कोई भी जनता ऐसे कानून को स्वीकार नहीं कर सकती। 

वह सभा हुई। उसमें मुश्किल से कोई बीस लोगों को न्योता गया था। जहाँ तक मुझे याद है, वल्लभभाई के अतिरिक्त उसमें श्रीमती सरोजिनी नायडू, मि. हार्निमैन, स्व. उमर सोबानी, श्री शंकरलाल बैंकर, श्री अनसूयाबहन आदि शामील हुए थें। 

प्रतिज्ञा पत्र तैयार हुआ और मुझे याद है कि जितने लोग हाजिर थे उन सब ने उस पर हस्ताक्षर किए। उस समय मैं कोई अखबार नहीं निकालता था। पर समय-समय पर अखबारों में लिखा करता था, उसी तरह लिखना शुरू किया और शंकरलाल बैंकर ने जोर का आंदोलन चलाया। इस अवसर पर उनकी काम करने की और संगठन करने की शक्ति का मुझे खूब अनुभव हुआ। 

कोई भी चलती हुई संस्था सत्याग्रह-जैसे नए शस्त्र को स्वयं उठा ले, इसे मैंने असंभव माना। इस कारण सत्याग्रह सभा की स्थापना हुई। उसके मुख्य सदस्यों के नाम बम्बई में ही लिखे गये। केन्द्र बम्बई में रखा गया। प्रतिज्ञा-पत्रों पर खूब हस्ताक्षर होने लगे। खेड़ा की लड़ाई की तरह। पत्रिकाए निकली और जगह-जगह सभाएं हुई।

मैं इस सभा का सभापति बना था। मैंने देखा कि शिक्षित समाज के और मेरे बीच बहुत मेल नहीं बैठ सकता। सभा में गुजराती भाषा के उपयोग के मेरे आग्रह ने और मेरे कछ दूसरे तरीकों ने उन्हें परेशानी में डाल दिया।

फिर भी बहुतों ने मेरी पद्धति को निबाहने की उदारता दिखाई, यह मुझे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन मैंने शुरू में ही देख लिया कि यह सभा लम्बे समय तक टिक नहीं सकेगी। इसके अलावा, सत्य और अहिंसा पर-जो जोर मैं देता था, वह कुछ लोगों को अप्रिय मालूम हुआ। फिर भी शुरू के दिनों में यह नया काम धड़ल्ले के साथ आगे बढ़ा।

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वह अद्भुत दृश्य!

एक ओर से रौलट कमेटी की रिपोर्ट के विरुद्ध आंदोलन बढ़ता गया, दूसरी ओर से सरकार कमेटी की सिफारिशों पर अमल करने के लिए दृढ़ होती गई। रौलट बिल प्रकाशित हुआ। मैं एक ही बार धारासभा की बैठक में गया था।

रौलट बिल की चर्चा सुनने गया था। शास्त्रीजी ने अपना जोशीला भाषण किया, सरकार को चेतावनी दी। जिस समय शास्त्रीजी की वाग्धारा बह रही थी, वाइसरॉय उनके सामने टकटकी लगाकर देख रहे थे। मुझे तो जान पड़ा कि इस भाषण का असर उन पर हुआ होगा। शास्त्रीजी की भावना उमड़ी पड़ती थी।

पर सोये हुए आदमी को जगाया जा सकता है; जागनेवाला सोने का बहाना करे तो उसके कान में ढोल बजाने पर भी वह क्यों सुनने लगा। धारासभा में बिलों की चर्चा का ‘फार्स’ तो करना ही चाहिए। सरकार ने वह किया। किन्तु उसे जो काम करना था उसका निश्चय ता हो ही चुका था। इसीलिए शास्त्रीजी की चेतावनी व्यर्थ सिद्ध हुई।

मेरी तूती की आवाज को तो भला कौन सुनता? मैने वाईसरॉय से मिलकर उन्हें बहुत समझाया। व्यक्तिगत पत्र लिखे। सार्वजनिक पत्र लिखा मैंने उनमें स्पष्ट बता दिया कि सत्याग्रह को छोड़कर मेरे पास दूसरा कोई मार्ग नहीं हैं। लेकिन सब व्यर्थ हुआ। 

अभी बिल गजट में नहीं छपा था। मेरा शरीर कमजोर था, फिर भी मैंन लम्बी यात्रा का खतरा उठाया। मुझमें ऊँची आवाज में बोलने की शक्ति नहीं आई थी। खड़े रहकर बोलने की शक्ति जो गई, सो अभी तक लौटी नहीं है। थोड़ी देर खड़े रहकर बोलने पर सारा शरीर काँपने लगता था आर छाती तथा पेट में दर्द मालूम होने लगता था।

पर मुझे लगा कि मद्रास से आया हुआ निमंत्रण स्वीकार करना ही चाहिए। दक्षिण के प्रान्त उस समय भी मुझे घर सरीखे मालूम होते थे। दक्षिण अफ्रीका के संबंध के कारण तामिल-तेलुगु आदि दक्षिण प्रदेश के लोगों पर मेरा कुछ अधिकार है, ऐसा मानता आया हूँ। और, अपनी इस मान्यता में मैंने थोड़ी भी भूल की है, मुझे आज तक ऐसा प्रतीत नहीं हुआ।

निमंत्रण स्व. कस्तूरी रंगा आयंगार की ओर से मिला था। मद्रास जाने पर पता चला कि इस निमंत्रण के मूल राजगोपालाचार्य थे। राजगोपालाचार्य के साथ यह मेरा पहला परिचय कहा जा सकता है। मैं इसी समय उन्हें प्रत्यक्ष पहचानने लगा था।

सार्वजनिक काम में अधिक हिस्सा लेने के विचार से और श्री कस्तूरी रंगा आयंगार इत्यादि मित्रों की माँग घर वे सेलम छोड़कर मद्रास में वकालत करनेवाले थे। मुझे उनके घर पर ठहराया गया था। कोई दो दिन बाद ही मुझे पता चला कि मैं उनके घर ठहरा हूँ, क्योंकि बंगला कस्तूरी रंगा आयंगार का था, इसीलिए मैंने अपने को उन्हींका मेहमान मान लिया था।

महादेव देसाई ने मेरी भूल सुधारी। राजगोपालाचार्य दूर-दूर ही रहते थे। पर महादेव ने उन्हें भलीभाँति पहचान लिया था। महादेव ने मुझे सावधान करते हुए कहा, “आपको राजगोपालाचार्य से जान-पहचान बढ़ा लेनी चाहिए।” 

मैंने परिचय बढ़ाया। मैं प्रतिदिन उनके साथ लड़ाई की रचना के विषय में चर्चा करता था। सभाओं के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। यदि रौलट बिल कानून बन जाए, तो उसकी ‘सविनय अवज्ञा’ किस प्रकार की जाए?

उसकी सविनय अवज्ञा करने का अवसर तो सरकार दे तभी मिल सकता है। दूसरे कानूनों की सविनय अवज्ञा की जा सकती है? उसकी मर्यादा क्या हो? आदि प्रश्नों की चर्चा होती थी। 

श्री कस्तुरी रंगा आयंगार ने नेताओं की एक छोटी सभा भी बुलाई। उसमें भी खूब चर्चा हुई। श्री विजयराघवाचार्य ने उसमें पूरा हिस्सा लिया। उन्होंने सुझाव दिया कि सूक्ष्म-से-सुक्ष्म सूचनायें लिख कर में सत्याग्रह का शास्त्र तैयार कर लें। मैंने बताया कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है।

इस प्रकार मंथन-चिंतन चल रहा था कि इतने में समाचार मिला कि बिल कानून के रूप में गजट में छप गया है। इस खबर के बाद की रात को मैं विचार करते-करते सो गया। सवेरे जल्दी जाग उठा। अर्धनिद्रा की दशा रही होगी, ऐसे में मुझे सपने में एक विचार सूझा।

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मैंने सवेरे ही सवेरे राजगोपालाचार्य को बुलाया और कहाः “मुझे रात स्वप्नावस्था यह विचार सूझा कि इस कानून के जवाब में हम सारे देश को हड़ताल करने की सूचना दें। सत्याग्रह आत्मशुद्धि कि लडाई है। वह धार्मिक युद्ध है। धर्मकार्य का आरंभ शुद्धि से करना ठीक मालूम होता है।

उस दिन सब उपवास करें और काम-धंदा बंद रखें। मुसलमान भाई रोजे से अधिक उपवास न करेंगे, इसीलिए चौबीस घंटे का उपवास करने की सिफारिश की जाए। इसमें सब प्रान्त शामील होंगे या नहीं, यह तो कहा नहीं जा सकता। पर बम्बई, मद्रास, बिहार और सिंध की आशा तो मुझे है ही। यदि इतने स्थानों पर भी ठीक से हड़ताल रहे। तो हमें संतोष मानना चाहिए।”

राजगोपालाचार्य को यह सूचना बहुत अच्छी लगी। बाद में दूसरे मित्रों को तुरन्त इसकी जानकारी दी गई। सबने इसका स्वागत किया। मैंने एक छोटी-सी विज्ञप्ति तैयार कर ली। पहले 1919 के मार्च की 30वी तारीख रखी गई थी। बाद में 6 अप्रैल रखी गई। लोगों को बहुत ही थोड़े दिन की मुद्दत दी गई थी। चूंकी काम तुरन्त करना जरूरी समझा गया था, अतएव तैयारी के लिए लंबी मुदत देने का समय ही न था। 

लेकिन न जाने  कैसे सारी व्यवस्था हो गई। समूचे हिन्दुस्तान में-शहरों में और गाँवों में-हड़ताल हुई। वह दृश्य भव्य था। 

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