जानेमाने लेखक और कथाकार डॉ. असगर वज़ाहत ने हिन्दी भाषा पर रोमन लिपि के आक्रमण पर चर्चा करता एक विस्तृत लेख लिखा था, जिसपर काफी चर्चा हुई थी। वह आलेख ‘डेक्कन क्वेस्ट’ पर पुनर्प्रकाशित किया गया। जिसका जवाब डॉ. परमानंद पांचाल ने दिया हैं, उन्होंने वज़ाहत के रोमन लिपि के दृष्टिकोण कि आलोचना की हैं। यह लेख हम जनसत्ता के सौजन्य से आपके लिए दे रहे हैं। -संपादक
पिछले दिनों ‘डेक्कन क्वेस्ट’ में प्रकाशित एक लेख में हिन्दी के एक विद्वान प्रोफेसर ने हिन्दी की लोकप्रियता में देवनागरी लिपि को बाधक मानते हुए उसके स्थान पर रोमन लिपि को अपनाने का सुझाव दिया था।
उन्होंने हिन्दी की व्यापकता को तो स्वीकारा, किंतु उसकी सर्वाधिक वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि को उपयुक्त नहीं मानते हुए उसके स्थान पर रोमन लिपि अपनाने की सलाह दे डाली।
प्रोफेसर महोदय को शायद याद नहीं होगा कि अंग्रेजी के अनेक ख्याति प्राप्त विद्वान स्वयं रोमन लिपि से त्रस्त हैं और वे उसके दोषों से मुक्त होना चाहते हैं।
जार्ज बनार्ड शा जैसे अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान को रोमन लिपि की अवैज्ञानिकता से खिन्न होकर यह वसीयत करनी पड़ी थी कि अंग्रेजी भाषा में होने वाले 42 उच्चारणों के लिए जो व्यक्ति 42 अक्षरों की एक पूरी वर्णमाला तैयार कर दे, उसे वे अपनी सम्पत्ति का एक भाग देने को तैयार हैं।
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स्वर-व्यंजन मिश्रण का बोझ
हिन्दी की वर्णमाला के सम्बन्ध में आशुलिपि के प्रवर्तक सर ईसाक पिटमेन ने कहा था, ‘यदि संसार में कोई भी वर्णमाला सर्वाधिक पूर्ण है, तो वह हिन्दी की वर्णमाला ही है।’ एक नहीं अनेक विदेशी विद्वानों ने रोमन लिपि की अपूर्णता का रोना रोया है।
सर विलियम जॉन्स (1740-1794) यद्यपि रोमन लिपि के पक्षधर थे, किंतु वे देवनागरी लिपि की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सके। उन्हीं के शब्दों में देवनागरी लेखन प्रणाली अपने वर्तमान स्वरूप में किसी भी अन्य प्रणालियों से अधिक सुव्यवस्थित है। लज्ज़ा की बात है कि हमारी अंग्रेजी वर्णमाला और वर्तनी निहायत अपूर्ण और हास्यास्पद है।’
यही नहीं, डॉ- आर्थर मेक्डानल ने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखा है कि ‘400 ई- पूर्व में पाणिनी के समय भारत ने लिपि को वैज्ञानिकता से समृद्ध कर विकास के उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित किया, जबकि हम यूरोपियन लोग इस वैज्ञानिक युग में 2500 वर्ष बाद भी उस वर्णमाला को गले लगाए हुए हैं, जिसे ग्रीकों ने पुराने सेमेटिक लोगों से अपनाया था, हम तो हमारी भाषाओं के समस्त ध्वनि समुच्चय का प्रकाशन करने में असमर्थ हैं।
हम तीन हज़ार साल पुराने अवैज्ञानिक स्वर-व्यंजन मिश्रण का बोझ अब भी पीठ पर लादे हुए हैं। एफएस ग्राउसु, व्यूलर हार्नले, हुक्स मैक्डानल थामस, जॉन शोर तथा आइजेक टेलर जैसे विद्वानों ने भी जी खोलकर नागरी लिपि की प्रशंसा की है।
“Devanagari system which as it is more naturally arranged than any others …. Our English alphabets and orthography as disgracefully and most ridiculously imperfect.”
–विलियम जॉन्स
ये उदाहरण मैंने इसलिए दिए हैं कि हिन्दी के लिए जिस रोमन लिपि की सिफारिश विद्वान लेखक ने की है, उसकी हकीकत रोमन के प्रयोक्ताओं के मुंह से ही सुन ली जाए।
भारत के संविधान निर्माता इतने नासमझ नहीं थे कि वे बिना सोचे समझे नागरी लिपि को ‘राजभाषा हिन्दी’ की अधिकृत लिपि स्वीकार करते। पर्याप्त विचार-मंथन के बाद ही नागरी को अपनाने का निर्णय लिया गया था।
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भारतीय भाषा बने शिक्षा का माध्यम
यह देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि उनके उत्तराधिकारी देश के कर्णधारों ने उसे सच्चे मन से कार्यान्वित करने में विशेष रूचि नहीं दिखाई और शिक्षा पद्धति में तदनुसार परिवर्तन नहीं किया गया।
समय-समय पर गठित शिक्षा आयोग कहते रहे कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाया जाए और बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृ भाषा में ही दी जाए, किंतु गुलामी की मानसिकता में पले और दीक्षित हुए सरकारी तंत्र के नौकरशाहों ने भी अपनी ढुलमुल कार्यप्रणाली के तहत इसे लागू ही नहीं होने दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े देश भक्त लोग धीरे-धीरे विदा होते गए और वह भावना भी मंद पड़ती गई जो राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्र भाषा हिन्दी और भारतीय भाषाओं को समीप लाने वाली लिपि, देवनागरी को आवश्यक मानते थे।
कहना न होगा कि बाद की पीढ़ी के नेता स्वार्थवश क्षेत्रीय राजनीति और संर्कीण मानसिकता के शिकार होते गए। फलत: एकता के स्थान पर अलगाव के स्वर सुनाई देने लगे और राष्ट्रीय मुद्दे हाशिये पर चले गए।
समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने की मानसिकता ने ब्रिटिश राज की दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही जारी रखा। अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आई। शिक्षा एक उद्योग में तब्दील हो गई। अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। फलत: अंग्रेजी और रोमन लिपि ही सर्वत्र छाती चली गई।
श्री सेम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित ज्ञान आयोग की सिफारिश ने तो रही सही कमी को और पूरा कर दिया। अंग्रेजी को पहली कक्षा से अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश ने बच्चों को मातृभाषा से बिल्कुल विमुख ही कर दिया। वे पहली और नर्सरी कक्षा से ही अंग्रेजी और रोमन लिपि सीख कर हिन्दी और देवनागरी जैसी श्रेष्ठ वैज्ञानिक लिपि से दूर होने लगे।
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भौगोलिक स्थिति और भाषा
यही कारण है कि रोमन लिपि के अभ्यस्त छात्रों को नागरी लिपि पराई लगने लगी और रोमन सुविधाजनक। परिणामत: एसएमएस पर उलटी सीधी हिन्दी रोमन लिपि में लिखी जाने लगी, क्योंकि उन्हें नागरी का अभ्यास ही नहीं रह गया था। इसके लिए नागरी लिपि की कमजोरी नहीं, हमारी शिक्षा नीति उत्तरदायी है।
सबसे बड़ी बात यह है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर पहली कक्षा से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाया जा रहा है, जो सर्वथा अनुचित और अस्वाभाविक है। अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के हम विरोधी नहीं, हम शिक्षा माध्यम के रूप में किसी विदेशी भाषा के प्रयोग को उचित नहीं मानते।
गांधी जी तो अंग्रेजी माध्यम के बिल्कुल विरुद्ध थे। जो भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होती, वह एक बोली और कविता, कहानी आदि की भाषा के रूप में ही सीमित रह जाती है। ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी राजनय और व्यापार की भाषा वह नहीं बन पाती।
अंग्रेजी माध्यम के कारण ही रोमन लिपि का प्रचलन बढ़ा है। इसे रोमन लिपि की श्रेष्ठता नहीं कहा जा सकता। क्या इसीलिए हिन्दी को भी रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए।
विद्वान लेखक ने तुर्की के डिक्टेटर कमाल पाशा का उदाहरण देकर रोमन लिपि को हिन्दी पर भी थोपने का परामर्श दिया है। वह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष तुर्की नहीं, वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है। यहां कोई भी निर्णय जनता पर थोपा नहीं जा सकता। ऐसे में, तुर्की का संदर्भ यहां कैसे जायज ठहराया जा सकता है?
दूसरी बात यह है कि कमाल पाशा एक क्रांतिकारी तानाशाह था। उसने लिपि को ही नहीं बदला, अनेक सामाजिक और धार्मिक रीति रिवाजों को भी जबरन बदल दिया।
तीसरे तुर्की, यूरोप का एक पिछड़ा देश था, जिसे ‘सिकमैन ऑफ यूरोप’ कहा जाता था। उसके समीपवर्ती देशों की भाषाओं की लिपि रोमन थी, इसलिए भी उसे मुख्यधारा से जोड़ने के लिए यह कदम उठाना पड़ा।
भारत की भौगोलिक स्थिति उससे भिन्न है। यहां के पड़ोसी देशों की भाषाओं की लिपि रोमन नहीं है, बल्कि देखा जाए तो इन देशों की भाषाओं की लिपियां भी (उर्दू को छोड़) नागरी लिपि की भांति ब्राह्ममी लिपि परिवार की ही लिपियां हैं।
विश्व के विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि अपने ध्वन्यात्मक और वैज्ञानिक गुणों के आधार पर नागरी लिपि विश्व की सर्वोत्तम लिपि है, जो नए परिवर्तनों, परिवर्धनों के साथ एक ‘विश्व लिपि’ बनने की क्षमता रखती है।
लिप्यन्तरण और प्रतिलेखन की दृष्टि से सबसे उपयुक्त देवनागरी लिपि ही है, रोमन और फारसी आदि नहीं। कहने को रोमन लिपि में 26 अक्षर हैं, किंतु उनके ‘कैपिटल’ और ‘स्मॉल’ अक्षर दो प्रकार होने से 264-104 प्रकार के अक्षर सीखने होते हैं। क्या यह कम पेचीदा काम है?
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हिन्दी का बढ़ता चलन
प्रश्न हिन्दी की लिपि बदलने का नहीं है। संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित हिन्दी के साथ संस्कृत, नेपाली, बोडो, मराठी, मैथिली और डोगरी की आधिकारिक लिपि भी नागरी लिपि है। इनके अतिरिक्त कोंकणी, सिंधी और संथाली जैसी भाषाएं भी नागरी लिपि को अपना रही हैं।
उर्दू साहित्य भी नागरी लिपि में अधिक लोकप्रिय हो रहा है। इस प्रकार नागरी लिपि एक सम्पर्क लिपि के रूप में प्रचलित हो रही है।
सभी जानते हैं कि आज विश्व में हिन्दी का प्रचलन बढ़ रहा है और इसे विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा माना जाता है। यह भी एक तथ्य है कि विश्व में हिन्दी जहां गई, अपने साथ अपनी लिपि देवनागरी भी लेती गई।
इस प्रकार अब नागरी लिपि विश्व के क्षितिज पर ‘विश्व नागरी’ के रूप में उभर रही है। देखा जाए तो देवनागरी लिपि भारत की एक पहचान भी है। क्या हम अपनी इस पहचान को मिटा दें?
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या रोमन में हिन्दी की ध्वनियों को सुरक्षित रखा जा सकता है? क्या हिन्दी के शब्दों का रोमन लिपि में सही उच्चारण भी हो सकता है? यदि नहीं, तो फिर ऐसी लिपि को ओढ़ने से क्या लाभ है?
डॉ- सुनीति कुमार चाटर्ज्या जैसे विद्वानों ने भी ऐसा सुझाव एक बार दिया अवश्य था, किंतु वह किसी के भी गले नहीं उतरा।
नागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि चिन्ह है, इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही पढ़ा जाता है। यह विशेषता रोमन और फारसी आदि लिपियों में हरगिज़ नहीं है। नागरी एक विकासशील लिपि है। आवश्यकतानुसार इसमें नए लिपि चिन्ह भी शामिल होते रहे हैं।
रोमन में आज तक वही 26 वर्ण हैं, जबकि देवनागरी में इसके दुगने चिन्ह हैं। नागरी लिपि की वर्णमाला बड़ी वैज्ञानिक है। इसमें ऱ्हस्व और दीर्घ मात्राओं का भेद सुस्पष्ट है। रोमन में लिखे शब्द केएएमएएल को आप ही पढ़कर बताइए क्या कहेंगे? ‘कमल’, ‘कामल’ या कमाल।
पिछले दिनों इल्मी मजलिस (लंदन) के अध्यक्ष महोदय का पत्र आया था। उन्होंने मुझे ‘दक्खिनी हिन्दी’ पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था। उनका नाम रोमन लिपि में (एसएचएक्यूईबी) लिखा था। हम उसे अन्दाज़े से डॉ- शकेब या शाकेब ही पढ़ते रहे। काफी पूछताछ करने पर पता चला कि वह शब्द ‘शाकिब’ है।
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हिन्दी का बाजार
जहां तक भारतीय विज्ञापन का प्रश्न है अब विज्ञापन की भाषा की धीरे-धीरे हिन्दी बन रही है। उसमें अंग्रेजी के शब्दों का बाहुल्य अवश्य बढ़ा है, किंतु वह नागरी में ही अंग्रेजी शब्दों को स्वीकार करता है, जैसे यह ‘दिल मांगे मोर’ यहां ‘मोर’ नागरी में ही लिखा जाता है। रोमन में नहीं। हिन्दी के सभी समाचार पत्रों की यही स्थिति है।
भले ही अंग्रेजी अखबार हिन्दी शब्दों को रोमन में लिखते हो। अंग्रेजी के मुट्ठी भर समाचार पत्रों की आवश्यकता के कारण हिन्दी लिपि को नहीं बदला जा सकता। हिन्दी के समाचार पत्र अंग्रेजी की अपेक्षा कई गुणा अधिक हैं। उनकी पाठक संख्या भी अंग्रेजी से बहुत ज्यादा है।
आज यूरोप और अमेरीका आदि देशों में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के विकास में जो शोधकार्य हो रहा है, उसने भी नागरी लिपि की वैज्ञानिकता के प्रति विशेषज्ञों का ध्यान आकृष्ट किया हैं। डॉ. रिग ब्रिग्स, डॉं. व्यास हूस्टन और डॉ. डेविड लेविन आदि विद्वानों ने व्यापक रूप से लिखा है कि नए युग की आशाएं नागरी और संस्कृत की ओर प्रवृत होती दिखाई देती हैं।
यहां तक कहा जाता है ‘यदि कम्प्यूटर की भाषा सीखना चाहते हैं तो संस्कृत और नागरी सीखिए’ विदेशी कम्पनियों का बढ़ता बाज़ार अपने स्वार्थ और माल की बिक्री के कारण हिन्दी के बाजार पर नियंत्रण करना चाहता है।
वह करोड़ों लोगों की भाषा हिन्दी को तो बदल नहीं सकता, उसकी लिपि को बदलने के लिए अपना प्रभाव मीडिया के माध्यम से अवश्य डालना चाहता है। यहां रोमन लिपि का वातावरण बनाना चाहता है।
हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों की अनावश्यक भरमार से हिन्दी का स्वरूप ही बदलने के प्रयास हो रहे हैं। इसका उदाहरण आप एक हिन्दी दैनिक की इस भाषा में देख सकते है।
‘कैपस ऑफ ओपन लर्निंग ने बनाया डिग्री कोर्स का प्रपोजल’ इसमें एक वाक्य के 10 शब्दों में से 7 शब्द अंग्रेजी के हैं। इसी प्रकार ओर भी बानगी देखिए- (1) बैंक करते हैं रिकवरी टूल की तरह यूज़ (2) डबल स्ट्राइक का ट्रबल गेम्स (नवभारत टाइम्स, 11 मई 2010)
इस बहाने यह प्रभाव बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इन्हें रोमन में लिखना सरल होगा। इसलिए हिन्दी को रोमन अपना लेनी चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि यदि हिन्दी को रोमन में लिखा जाए तो क्या वह हिन्दी रह जाएगी?
वह तो हिंग्लिश जैसी एक नई भाषा बन जाएगी। इतिहास साक्षी है कि जब हिन्दी (हिन्दवी) को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा तो वह ‘उर्दू’ बन गई। अब आप ही बताइए कि क्या हिन्दी को अपनी श्रेष्ठ लिपि छोड़कर रोमन जैसी अपूर्ण लिपि अपना लेनी चाहिए?
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