अंग्रेजी सत्ता कि सामाजिक एव सांस्कृतिक साजिशों का अलीगढ़ ने पुरजोर विरोध किया। सर सय्यद के राष्ट्रवाद कि व्याख्या से प्रेरित यह आंदोलन मौ. शिबली नोमानी के इस्लामी मूल्यों, आदर्शों को अपनी बुनियाद मानता था।
शिबली ने अपनी जिन्दगी के 16 साल अलीगढ़ में बिताए, जो उन्हें और अलीगढ़ आंदोलन को नयी दिशा देने में काफी मददगार साबित हुए।
मगर शिबली के इस अलीगढ़ वास्तव्य का अंतर्विरोध यह भी है की, शिबली ने अँग्लो मोहम्मडन कॉलेज में रहकर सर सय्यद का काफी वैचारिक विरोध किया। इसके बावजूद सर सय्यद ने उनसे काफी मोहब्बत भी की।
ब्रिटिश सत्ता अपने राजनैतिक मूल्यों के लिए 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों के ऐतिहासिक, सामाजिक एवं सांस्कतिक इतिहास को मिटाने की हर मुमकीन कोशिश कर रही थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्च प्रणित इतिहास कि समझ को भारत में प्रचारित किया गया।
इस्लाम और मुस्लिम सत्ताधिशों को प्रादेशिक समाज, संस्कृति, धर्म और भाषा के विरोधी तथा अत्याचारी के तौर पर प्रस्तुत कर उनके दानवीकरण कि प्रक्रिया गतिमान कि गयी। मदरसे, अनुसंधान संस्थाओं को बंद कर मुस्लिम बादशाहत के इतिहास कि अपनी स्वतंत्र पहचान को मिटाने कि कोशिशे सत्ता का धर्म बन चुकी थी।
ऐसी मुश्किल घडी में सत्ता से समझौता या टकराव के बिना ‘समन्वयवादी संघर्ष’ कि एक अलग नीति को सर सय्यद ने समाज के सामने रखा। जिसके तहत उन्होंने ब्रिटिशों से राजनैतिक संघर्ष को बेवकुफी कहा और उनके सामने सांस्कृतिक गुलामी को ‘अदब कि मौत’ कहकर उसकी भर्त्सना की।
सर सय्यद का कहना था कि, “मुस्लिम समाज अपना राजनैतिक अस्तित्व खो चुका है। अब सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाए रखना और राजनैतिक संघर्ष कि भविष्यकालीन योजना ही उसके अस्तित्त्व को बरकरार रख सकती है।”
सांस्कृतिक संघर्ष के लिए सर सय्यद ने इतिहास के संवर्धन को अपने मुहीम का हिस्सा बनाया। उन्होंने राष्ट्रवाद कि मुस्लिम परिकल्पना को जन्म दिया, जो सांस्कृतिक संघर्ष, राजनैतिक अस्तित्व निर्माण और सामाजिक पुनर्जागरण के तत्वों पर आधारित थीं।
सर सय्यद कि इन्हीं प्रेरणाओं से प्रभावित होकर मौ. शिबली नोमानी अलीगढ़ की इतिहास और संस्कृति संवर्धन की मुहीम का हिस्सा बन गए। सय्यद अहमद के सुधारवादी कार्यों को लेकर शिबली के पिता शेख हबीबुल्लाह काफी प्रभावित थे, इसी वजह से उन्होने अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने की भरपूर कोशिश की।
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पहली मुलाकात में छाप
पिता कि वजह से शिबली ने बचपन में ही इस्लामी न्यायशास्त्र, इस्लामिक सिद्धान्त, हदीस, मुनाजरा (धार्मिक वाद विवाद), माकूलात (तर्कशास्त्र), मनकुलात (क़ुरआन और हदीस का अध्ययन) किया।
बाबर अशफाक खान अपनी किताब ‘मुहंमद शिबली नोमानी : जीवन वृत्त ओर कृत’ में लिखते हैं “सन 1881 में अपने वालिद के साथ शिबली ने अलीगढ़ की यात्रा की।
उद्देश्य अपने भाई मेहदी हसन का हाल जानना था। (भाई उस समय अलीगढ़ कॉलेज में पढ़ते थे।) यहां उनकी मुलाकात सय्यद अहमद खान से हुई और परम्परा के अनुसार आपने उनके गुणगान में अरबी भाषा में अपनी स्वरचित पंक्तियों के माध्यम से उनके सम्मान में श्रद्धा-सुमन (कसिदा) अर्पित किया जिससे वे बहुत प्रभावित हुए तथा इसे अक्तूबर 1881 के ‘अलीगढ गजेट’ में प्रकाशित किया।”
सर सय्यद से हबीबुल्लाह और शिबली यह पहली मुलाकात काफी परिणामकारक साबित हुई।
कुछ ही दिनों में अलीगढ़ के ‘अँग्लो मोहम्मडन कॉलेज’ (मदरसतूल उलूम ए इस्लाम) में पूर्वोत्तर भाषाओं के अध्यापक कि जरुरत महसूस हुई तो शिबली नोमानी ने अपना आवेदन वहां प्रस्तुत किया। आवेदन के तुरंत बाद ही शिबली को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।
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इंटरव्यू का तरिका
मुहंमद अमीन जुबैरी इस इंटरव्यू के बारे में ‘तज़्किरा-ए-सर सय्यद’ में लिखते हैं, “जब शिबली को वहां बुलाया गया तो उनसे लाइब्ररी में बैठने को कहा गया जहाँ किताबे बडे सुशील ढंग से शीशेवाली आलमारीयों में ताले में बंद रखी थी।
शिबली ने अपना समय आलमारीयों में रखी पुस्तकों को बडी उत्सुकता से देखते हुए गुजारा किया, काफी समय के बीतने के बाद सर सय्यद के सेवक ने आकर सूचना दी कि अब आप कल आइएगा।”
जुबैरी लिखते है, “दूसरे दिन जब वे वहां पहुंचे तो उनसे फिर वहीं बैठने का आग्रह किया गया किन्तु आज सभी आलमारीयों के ताले खुले हुए थे। शिबली ने आलमारियों से कुछ किताबे निकालीं और ध्यानपूर्वक उनका आवलोकन एवं अध्ययन करने में लीन हो गए तथा एक लम्बे समय के बाद उनसे फिर कल आने के लिए कहा गया।”
शिबली तिसरे दिन फिर पहुंचे तो उन्होंने उस कमरे में कुछ कुर्सियां भी रखी हुई पायीं, फिर क्या था शिबली ने आलमारी से अपनी पसंद की किताबे निकाली कुर्सी पर बैठे और बिना दूसरी ओर ध्यान दिए पढ़ने में मसरुफ हो गए।
काफी देर के बाद सय्यद साहब लाइब्ररी में पधारे और शिबली से कहास “मौलवी शिबली, आपका इंटरव्यू खत्म हो गया, जाइए और अपने काम कि शुरआत किजीए।” सर सय्यद ने शिबली को फारसी और अरबी के सहाय्यक प्राध्यापक के रुप में नियुक्त किया।
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सर सय्यद से मतभेद
अल्लामा शिबली करीब 16 साल तक अलीगढ़ कॉलेज में रहे। सर सय्यद ने अलीगढ़ में अपने इतिहास प्रेम और सांस्कृतिक पुनर्जागर कि नीति का अवलंब करते हुए हजारों किताबें जमा कि थी। जिसके जरीए शिबली ने अलीगढ़ में एक नयी ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टी प्राप्त की।
इसी वक्त शिबली के सर सय्यद से काफी वैचारिक मतभेद हो गए। मगर इसका परिणाम दोनों ने अपने निजी संबंधो पर होने नहीं दिया। सन 1885 में सर सय्यद ने ‘तहजीबूल अखलाक’ पत्रिका में लिखने के लिए शिबली को कई बार कहा मगर, वैचारिक मतभेदों कि वजह से वे टालते रहे। मगर आखिरकार उन्हे सर सय्यद कि मोहब्बत के सामने झुकना पडा।
शिबली ने ‘अल-मोतजलह व अलएतजाल’ नाम से एक लेख लिखा। जिसके लिए उन्होंने अपना नाम ‘अल् असदी’ लिखा था। इसके बाद भी शिबली ने कई लेख उसी पत्रिका में लिखे।
सर सय्यद से वैचारिक मतभेद के बावजूद शिबली अलीगढ़ इन्स्टिट्यूट गॅजेट के संपादक बने रहे। उनके संपादन काल में अलताफ हुसैन हाली, मुहंमद जकाउल्लाह जैसे महान विचारकों ने अपने लेख इस गॅजेट में पब्लिश करने के लिए भेजे।
इसी दौरान शिबली ने अलीगढ़ में रहकर जिन किताबों को लिखा था, उसके प्रकाशनाधिकार अलीगढ़ के कॉलेज को दे दिए।
अल्लामा शिबली के व्यक्तित्व पर अलीगढ़ वास्तव्य के काफी सकारात्मक परिणाम हुए। सफीउल्लाह खान लिखते हैं,
‘अलीगढ़ के काल में शिबली को विभिन्न पूर्वीय एवं पश्चिमी साहित्य इतिहास और दर्शन आदि के अध्ययन करने का सुवसर तो प्राप्त हुआ तथा इसी के साथ उन्हें पश्चिमी विचारकों एवं विद्वानों से विचारों के आदान प्रदान से उनकी इतिहास लेखन में भी एक नवीनता आ गई।
इससे शिबली का अध्ययन क्षेत्र पर्याप्त विकसित हो गया तथा तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण देखने समझने की क्षमता उनमें और अधिक बढ गई।”
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श्रद्धादृष्टी का विरोध
अल्ताफ हुसैन हाली के अनुसार सर सय्यद शुरुआती दौर से अहले हदीस मतप्रवाह के मानने वाले थे और शिबली इसके ख्यातनाम आलोचक हैं।
बाबर खान लिखते हैं, “शिबली ने शक्तिशाली ढंग से ‘अहले हदीस’ के प्रवर्तकों का विरोध किया। इस मतप्रवाह का विरोध करने के लिए आपने छोटी-छोटी पुस्तकें, पैम्पलेट लिखे तथा उनको विवाद हेतू खुली चुनौती दी।
‘जिल्लुल–गुमाम फि मसअलतित-किरात’ तथा ‘इसकातुल मुतदी अला इनसातिल खलफल इमाम’ आदी छोटी पुस्तिकाएं आपने इसी दौरान इनके विरोध में लिखी जो महत्त्वपूर्ण हैं।”
सर सय्यद ने भी शिबली को अपना शक्तिशाली विरोधक माना था, ‘जो बहस करने के लायक अक्ल और अख़लाक मालिक हैं, वह आलोचक मित्र’ के रुप में उन्होंने शिबली का गौरव भी किया था।
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