औरंगाबाद कि शुरुआती दौर की बेहतरीन इमारतें

लिक अंबर (Malik Amber) ने सन 1616 में अपने निवास के लिए खाम नदी के किनारे एक अलिशान खुबसुरत महल बनवाया था। जिसका नाम ‘नवखंडा महल’ (Naukhanda Palace) था।

इस महल के नौ हिस्से थेइसीलिए यह ‘नवखंडा महल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह एक बाग में बनाया गया आरामदाह महल था। जिसका कुल क्षेत्र 25 एकड 23 गुंठा था। इन नौ महलात के चहू ओर में एक मजबूत दिवार थी।

नवखंडा में मर्दाना महल, जनाना महल और इन में कई अंदरुनी हिस्से थे। स्वागत कक्ष, दरबार ए खास और दरबार ए आम और इन्ही को लगकर मलिक अंबर की कचहरीयां थी।

हर जगह पानी के हौज, फव्वारे और मुलाजीमीन के मकान थे। आज का हाल यह है की, हौज को मिट्टी से भर दिया गया है। मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के निर्माण में नवखंडा को खत्म कर दिया गया है।

नवाब मीर कमरुद्दीन आसिफजाह (प्रथम) ने तामीर की हुई बारादरी मस्जिद अच्छी स्थिती में है। नवखंडा का प्रवेश द्वार माना जानेवाला भडकल गेटभी अच्छी हालत में है। आवागमन के लिए नवखंडा में शानदार दरवाजे हैं। इन दरवाजों को किसने बनाया था, कह पाना अब मुश्किल हैं।

नवखंडा महल से एक रास्ता दो तीन किलोमीटर सीधे पुरब की तरफ जाता है, जहां शहागंज और शहाबाजार है। यह रास्ता सब्जमहल जिसे बादशाह हवेली भी कहा जाता है, वहां खत्म होता था।

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नवखंडा से तकरीबन एक किलोमीटर दूर पण्डीतखाना याने चिताखानाऔर उससे करीब जामा मस्जिद है, जो मलिक अंबर ने तामीर करवाई थीं। सडक के दोनो जानीब दुकाने और रिहाईशी मकानात थें।

सब्ज महल और बादशाह महल की बाकी निशानीयाँ खुदाई कार्य के दौरान सामने आई हैं। सब्ज महल में कई महलनुमा इमारतें थी, जिन में वजीर, अमीर और शाही परिवार के सदस्य रहते थे। कई बार मलिक अंबर ने भी यहाँ निवास किया था।

शेख चांद अपनी किताब मलिक अंबर में लिखते हैं, बादशाह हवेली शाहगंज में एक महल तामीर हुआ था। जो बहुत दिनों तक कायम रहा, बादशाह औरंगजेब के जमाने में भी वह महफूज हालत में था। उस समय शाही परिवार के सदस्य इसमें रहा करते थे।

वहीद नसीम साहिबा अपनी किताबमलिक अंबर से औरंगजेब तकमें लिखती हैं कि, सब्ज महल या सब्ज हवेलीयाँ मलिक अंबर की बनाई हुई कोठियों का मोहल्ला था। जो इसने अपने वजीरों, राजदुतों और सलाहकारों के लिए बहुत बडी जमीन पर बनवाया था।

जिसके पश्चिम में शाहगंज, चेलीपुरा और दुसरी तरफ दक्षिण में राजाबाजार था। इसमें दाखिल होने के लिए शानदार दरवाजा था, वहां आज शहागंज कि मस्जिद है। यह दरवाजा दिल्ली गेट के चोबी दरवाजे जैसा था।

यह दरवाजा दोहरे किस्म का था, जिसके अंदर 2/24 फिट जगह थी। इसमें नक्कारखाने और मुहाफीजखाने थे। इसके बाद सामने कुछ खुला मैदान अंदरुनी हिस्से में महालात, बारादरी और मुलाजीमीन के मकानात थें।

हर महल के सामने एक देवडी थी, दो मोहल्लों या फिर देवडीयों के दरमियान एक गली थी। गली के पश्चिम और पूरब में दालान थे। इन में एक बडा मकान रंगमहलकहलाता था। इसका सदर दालान दोहरा था, जिसकी पुश्त पर दुसरी मंजिल का सदर दालान था।

निचली मंजील कि तरह चारो महालात की उपर की  मंजिलें एक दुसरे से जुडी हुई थी। जिनके दरमियान दरवाजे थे। इसके एक तरफ नहर ए अंबरी(Nahare Ambari) का एक नल था। जहां पानी ले जाने की अच्छी सहुलत थी। यहां के बाग और फव्वारे 1920 तक जारी थे।

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जामा मस्जिद

शहर के मध्य मे स्थित इस मस्जिद (Jama Masjid) का निर्माण मलिक अंबर ने किया था। यह मस्जिद सुफीया, रुमी, तुर्की और इरानी वास्तुकला के संगम कि वजह से प्रसिद्ध है। इसका कुल क्षेत्र चार एकड है। जामा मस्जिद क्षेत्र के तुलना से काफी बडी है। यह मस्जिद तामीर करने वाले की फन का सबूत है।

जामा मस्जिद की अंदरुनी खुबसुरती भी मशहूर है। इसके हर एक खाने की छत अपने आपमें एक विशेषता रखती है। मस्जिद के बडे सेहन के बीच एक हौज वजू के लिए बनाया गया है। वजू को बैठने के लिए चौकीयां बनवाई गई हैं।

मस्जिद के सेहन के करीब औरंगजेब के दौर में कुछ हिजरे बनाए गए हैं, जो काफी आरामदाह हैं। मस्जिद में आवाजाही के लिए मजबूत दरवाजे बनाए गए हैं। मलिक अंबर एक माहिर नगर रचनाकार था। इसने मस्जिद भी अच्छे प्लान के तहत बनवाई हैं।

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काली मस्जिद

मलिक अंबर ने तामीर की हुई इस मस्जिद से खडकी शहर की सीमाओं का पता चलता है। शहर के लोगों को किसी तरह की तकलीफ न हो इसलिए पानी का इंतजाम किया गया था और मस्जिदें बनवाई गई थी।

अहमदनगर मे मस्जिद कि इमारत में और किले में काले रंग का पत्थर (Black stone) इस्तेमाल हुआ है। यह पत्थर आसानी से मिलता था और सदियों तक महफूज रहता था।

इसी तरह का पत्थर मलिक अंबर ने खडकी शहर की मस्जिद और खुलताबाद में अपने मकबरे के लिए इस्तेमाल किया है। दौलताबाद की फसील अंबरकोट में भी वही काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है।

खडकी में मलिक अंबर ने कुल सात मस्जिदें बनवाई थीं। इस मस्जिद में काले पत्थर का ज्यादा इस्तेमाल होने कि वजह से काली मस्जिदके नाम से प्रसिद्ध हुई। शहर में इस तरह के और मस्जिदे हैं। इनकी निर्माण शैली गोलकुण्डा, बिजापूर और अहमदनगर कि मस्जिद की तरह है।

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इन मस्जिद की दिवारों और छत के लिए यह पत्थर आसानी से तराशा जाता था, और फिर चुने और कार्बन से लेप दिया जाता था। जिसकी वजह से यह काफी सख्त और काफी लंबे समय तक चलता था।

इनको कॅल्शीयम, चुना और दिगर मसालों के जरिए जोडा जाता था। छत के पत्थरों को एक मजबूत मोटी तार से जोडकर, चुना और दिगर मसालों के जरिए एक दुसरे से सक्ती से जोडा जाता था, इसलिए यह मस्जिद आज भी अच्छी स्थिती में है। जामा मस्जिद के करीब जुना बाजार और सिटी चौक के बिच में यह काली मस्जिद है।

इस मस्जिद कि पुश्त से मस्जिद की दिवारें काफी मजबूत नजर आती हैं। बाहर कि जानीब से देखने के बाद फन ए तामीर का अहसास होता है।

इसके सामने वजू के लिए, हौज है और वजू को बैठने के लिए चौकीयाँ बनी हुई हैं। शाह बाजार कि काली मस्जिद सडक को लगकर है और मोहल्ले के अंदर कि तरफ एक दाखिली दरवाजा है। यह मस्जिद एक एकड पर फैली हुई है। यह मस्जिद खुशनुमा और हवादार थी।

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