बादशाह खान उत्तरी-पूर्व सीमा प्रान्त अब का खैबर पख्तुनख्वा में 6 फरवरी 1890 में जन्मे। उस समय यह भाग पंजाब प्रांत का हिस्सा था। खान साहब को सीमान्त गांधी के नाम से भी जाना जाता हैं। जिन्होंने भारत के विभाजन का हमेशा से ही विरोध किया। इतना ना ही नही बल्की उससे लिए मुस्लिम के लोगों से गालीयां भी खाई।
बादशाह खान ने विभाजन के बाद दो देशों शांती दूत के रूप में काम किया। जिसका पाकिस्तान की सरकार ने काफी विरोध किया। इतना ही नही उनपर कडे आरोप लगाकर जेल भी भेजा। उन्हें जेल में डालने का यह सिलसिला बेनजीर भुट्टो के दौर तक चलता रहा। इस महान गांधीवादी कि जीवनगाथा खूद उन्ही की जुबानी। यह आलेख फारिग बुखारी के ‘बाचा खान’ नामक चरित्र ग्रंथ से लिया गया हैं, जो 1957 में प्रकाशित हुआ था।
हमारी ओर स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करना शुरा (धार्मिक विधि-विधान) के विरुद्ध समझा जाता था। परंतु मस्जिदो में छोटे-छोटे विद्यालय होते थें। जिनमें मौलवी कुरआन शरीफ पढाया करते थें और थोडी बहुत धार्मिक शिक्षा देते थें। ब्रिटिश काल कि शुरुआत होते ही ये विद्यालय तो बंद हो गये, पर उनके बजाए उन्ही जगह पर बहुत थोडे में स्कूल स्थापित हुए।
लोग इन नए स्कूलों के बहुत खिलाफ थें। परंतु मेरे पिता इतने छोटे दिल के न थें। उन्होंने हमें मिशनरी स्कूल में दाखिल कर दिया। मेरे भाई ने पंजाब विश्वविद्यालय में मैट्रिकूलेशन की परीक्षा पास की, एक साल बम्बई के ग्राण्ट मैडिकल कालेज में पढे। इसके बाद डॉक्टरी की शिक्षा पूर्ण करने के लिए इंग्लिस्तान चले गए।
जब भाई साहिब को इंग्लिस्तान भेजने का सवाल सामने आया, तो हमारी बिरादरी में बडा कोलाहल मचा। लोग यह शक हाजिर करते थें कि कही वह ईसाई न हो जाए, या वहीं का न हो के रह जाये। या किसी अंग्रेज खातून से शादी न रचा लें। बाद में उनकी आखरी बात पूरी भी हुयी।
मेरे पिता ऐसी बातो में उदार नजरिया रखते थें। उन्होंने कहां कि मैं अपने लडकों के शिक्षा के राह में रुकावट नहीं डालना चाहता। दुर्भाग्य-वश मैं मैट्रिकूलेशन की परीक्षा पास न कर सका। मेरे इंग्लिस्तान भेजने की समस्या पर भी विचार किया गया, पर उस समय हमारे खानदान में दो तीन मौतें हो गई और यह एक अपशकुन समझा गया। इन घरेलू घटनाओं और अंधविश्वास के कारण मेरे दो अमूल्य साल व्यर्थ चले गये।
आखीर में भाई साहब के एक अंग्रेज लडकी से शादी कर लेने के कारण मेरा इंग्लिस्तान जाना हमेशा के लिए रद्द हो गया और मेरी शिक्षा यही समाप्त हो गई। परंतु मिशन स्कूल की थोडे समय की शिक्षा से भी मुझे बहुत फायदा पहुंचा। स्कूल के प्रिंसिपल रेवरण्ड विग्राम के सात्विक स्वभाव और व्यक्तित्व ने उन्हें छात्रो में सर्वप्रिय बना दिया था। मैंने अपने प्रिंसिपल को देखकर उसी समय प्रतिज्ञा कर ली कि मैं भी इसी प्रकार अपने समुदाय की सेवा करूंगा।
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सेना का शौक
अभी मेरे इंग्लिस्तान जाने की बात सर्वथा समाप्त नही हुई थी और मैने राजनीतिक क्षेत्र में पैर नही रखा था कि मुझे सेना मे भरती होने का शौक पैदा हुआ, ताकि एक सिपाही के रूप में नाम बना सकू। पठान तो जन्म ही से सिपाही होता है, इसके अतिरिक्त में एक संभ्रात परिवार का सदस्य था। यह चीज़ मेरे लिए और भी सिफारिश बनी और मेरा आवेदन-पत्र स्वीकृत हो गया।
सेना में सम्मिलित होने का मुझे अत्यन्त चाव था। मेरी जान-पहचान के बहुत से लोग ऊँचे-ऊँचे पदो पर आरुढ़ थे। मैं मन ही मन में गर्व किया करता था कि विशेष रूप से इस काम के लिए उपयुक्त हूँ। परंतु अल्लाह को कुछ और ही मंजूर था।
संयोगवश मैं अपने फौजी दोस्त से मिलने गया और वहाँ मैने अपनी आँखो से यह अपमानजनक दृश्य देखा कि एक अधम श्रेणी के अंग्रेज ने उन का बुरी तरह से निरादर किया। यह देख मैंने वही फैसला कर लिया कि सेना में कदापि शामील नही होऊंगा।
इसके बाद एक साल तक अलीगढ में रहा। वहाँ जाकर उर्दू पढ़ने का शौक पैदा हुआ। अस्तु मौलाना जफर अली खान के राजनामा अखबार ‘जमीदार’ और मौलाना अबुल कलाम आजाद के प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘अल हिलाल’ का, (जो, खेद है कि युद्ध के समय मे बंद कर दिया गया) मै बडी रुचि से अध्ययन किया करता था।
राजनीति से मेरा संपर्क यही से शुरुआत होता है और जातीय-शिक्षा से अभिरुचि मुझे उसी समय से हुई, जबकि ईसवी 1911 में प्रांत में बहुत से सजातीय विद्यालय स्थापित करने में मैने विशेष भाग लिया था।
महायुद्ध के बाद हमारी सेवाओं के बदले में रोलट एक्ट का उपहार भेंट किया गया और महात्मा गांधीजी ने उसके विरुद्ध कार्यवाही प्रारंभ की, तो मैं बिना सकोच उसमें शामील हो गया। दूसरे प्रांतो की भाति हमारे प्रांत में भी ऐसी हड़ताले हुई, जिनका उदाहरण इससे पहले नही मिलता।
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पहली गिरफ्तारी
इसवीं 6 अप्रैल 1916 के उतमान जई वाले इस जलसे में लगभग एक लाख लोग शामील हुए। उसमें मेरे पिता भी उपस्थित थें। उस समय सत्याग्रह की कोई चर्चा तक न थी, परंतु इस जलसे का होना अफसरो के लिए पर्याप्त था।
आखीर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, परंतु मुकद्दमा नहीं चलाया। गिरफ्तारी से पहले मुझसे पूछा गया, क्या तुम पठानो के बादशाह हो? मैने जवाब दिया, “मै नही जानता, पर इतना जानता हू कि बिरादरी का सेवक हूँ और इस प्रकार के कानून को चुपचाप सहन नही कर सकता।”
मेरे पास एक जिरगा भी पाया। उसने तरह-तरह की धमकियां दी और बहुत मी उथली-उथली युक्तियाँ भी प्रस्तुत की। मैं उनमें से यहां एक युक्ति का वर्णन करना चाहता है।
उन्होंने कहा, कि हमारे प्रांत में ‘सीमा प्रांतीय अपराध रोधक कानून’ लागू है, वह रोलट एक्ट से कही अधिक बुरा हैं। फिर भी यदि पठानों को उन कानून में कोई विरोध नहीं, तो रोलट एक्ट के विरुद्ध आंदोलन में क्यो भाग लेते हो? इसके अतिरिक्त दूसरे प्रांतो ने पठानों के साथ कभी हमदर्दी प्रकट नहीं की। फिर पठान उन लोगो के लिए क्यो खतरे में पढ़ें?
पर इन युक्तियो का मूल पर कोई प्रभाव न हुआ। में अपने विचार पर स्थिर रहा। परिणाम यह हुआ कि बहुत से कार्यकर्ताओं के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। में कोई साधारण कैदी तो था नहीं, अपितु बडा भीषण अपराधी था। हथकडियां डाल कर मुझे जेल में ले जाया गया और जब तक में जेल में रहा मेरे पांवो में बेडियां पडी रही।
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नाप कि बेडिया भी नही मिली
उस समय में मेरा शरीर अब से दोगुणा था। मेरा वजन 220 पौंड था। इसलिए मेरे पांव में कोई बेडी ठीक से नहीं आ पाती थी। यह मुझे पता नहीं कि मेरे लिए कोई विशेष जोडी तैयार की गई या नही, परंतु सच बात यह है कि मेरे लिए बेडियां तलाश करने में उन्हें सतत परेशानी उठानी पडी और अंत में उन्होने एक तंग जोडी पहनाई, तो मेरे टखने से बहुत सा खून बह निकला।
पर जेल के अफसरो को प्रत्यक्ष रूप से कोई फिक्र नही हुई और वे कहने लगे धीरे-धीरे तुम इसके आदती या स्वभावी हो जाओंगे। इसी पर उन्होने खत्म नही किया। मुझे पर एक भीषण अभियोग लगाने की घृणित चेष्टा की।
मेरे गांव के एक पठान को टेलिग्राफ के तार काटने के अपराध में दंड हुआ था। उससे पूछा गया कि तुम अब्दुल गफ्फार खान को जानते हो। उसने ‘हां’ में उत्तर दिया और कहा उन्ही की प्रेरणा से मै इस आंदोलन में शामील हुआ हूँ। इस पर उससे पूछा गया कि क्या उन्होने तुमको तार काटने के लिए प्रेरित किया था। उसने इस बात का जोरदार खंडन किया।
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विपत्तियों का शिक्षालय
मेरे बडे भाई ने इंग्लिस्तान जाकर लंदन के सेण्ट थॉमस अस्पताल से एम. आर. एस. की परीक्षा पास की। इसके बाद युद्ध के मोर्चे पर चले गये। युद्ध के बाद वे अभी फ्रान्स ही में थे कि यहां आंदोलन शुरु हो गया।
उस समय उनको भारत का एक भी खत नही मिलता था। उन्होंने वापस आने की कोशिश भी की, पर छह महीने तक उन्हें लंदन में इंतजार करना पड़ा। 1920 में उन्हें वापसी के आदेश मिले, अर्थात जिस समय उनके पिता, भाई और अन्य संबंधी जेल में थे, उस समय वे फ्रान्स में अंग्रेजो की नौकरी कर रहे थें और जान-बूझकर उनको इन घटनाओ से अंधेरे में रखा जा रहा था।
जब वे देश लौटे, तो उन्हें बडी कठिनाई से त्यागपत्र देने की अनुमति मिली। नौकरी से त्यागपत्र स्वीकृत हो जाने के उपरान्त डॉ. खान साहिब तो निजीरूप से डाक्टरी करने लगे और मेरी काँग्रेस तथा काँग्रेस के उद्देश्यो के प्रति रुचि क्रमश बढती गई। एक अवसर पर महात्मा गांधी जी से मैंने कहा था कि विपत्तियो के शिक्षालय में मनुष्य बहुत कुछ सीख सकता है।
मैं सोचा करता हूँ कि यदि मै भोग-विलास के जीवन में ग्रस्त हो गया होता और जेल के आनंद उल्लास से विभोर होने और उससे लाभ उठाने का अवसर न मिलता, तो मेरी क्या दशा होती।
मेरा पहला और दूसरा कारावास सचमुच मेरे लिए एक परीक्षा थीं। बाद की सजाए तो उनके मुकाबले में कुछ भी न थी। मैं अल्लाह का कृतज्ञ हूँ कि उसने आरंभ ही में मेरा इतना कडा शिक्षण किया।
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