शेरशाह सुरी : भोजपुरी संस्कृति का अफगानी नायक

शेरशाह सुरी, अफगाणवंश का वह धुरंधर योद्धा है, जिसने मुगल सत्ता को पराजीत कर दिल्ली पर अपना परचम लहरा दिया था। शेरशाह सुरी की उदारता, महानता की कई कहानियाँ आज भी मध्यकालीन इतिहास का अभिन्न अंग बनी हुई हैं।

शेरशाह को भारत के इतिहास में एक अफगानी नायक के रुप चित्रित किया गया है। अफगान वंश से संबंधित होने की, वजह से उसे अफगानीकहा जा सकता है, मगर उसने जिस संस्कृति, लोकजीवन, राजनीति का प्रतिनिधित्त्व किया वह अफगानी नहीं, बल्की भोजपुरी थीं।

माणिकलाल गुप्त लिखते हैं, शेरशाह का जन्म बजवाडा नामक स्थान पर 1472 ईसवीं में हुआ था। उसका बचपन का नाम फरिद था, उसका दादा इब्राहिम सूर घोडों का व्यापारी था, बाद में उसने हिसारफिरोजा के अफगान सरदार जमाल खाँ के यहां सैनिक की सेवा प्राप्त की वहीं उसका पुत्र हसन सूर भी सैनिक बन गया। सिकन्दर लोदी के समय में जमाल खाँ को जौनपुर की जागीर प्राप्त हो गई तब हसन सूर उसके साथ जौनपुर आ गया।

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कष्टमय रहा जीवन

गुप्त आगे लिखते हैं, हसन सूर की सेवाओं से प्रसन्न होकर जमाल खाँ ने उसे सहसराम, खवासपुर, टाडाँ की जागीर प्रदान दी। इसी हसन सूर का पुत्र फरिद था जो उसकी पहली पत्नी से उत्पन्न था तथा अपने आठ भाईयों में से बडा था।

हसन सूर अपनी चौथी पत्नी से अधिक प्रेम करता था, अतः फरीद और उसकी माँ उपेक्षित थे, इसलिए फरीद का प्रारंभिक जीवन कष्टप्रद रहा। फरिद युवावस्था में अपने पिता से झगडा करके घरसे भाग गया।

तत्पश्चात उसने जौनपुर में तीन वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की, अरबी और फारसी भाषा का गंभीर अध्ययन किया तथा अपनी प्रतिभा से अपने पिता हसन सूर और अपने मालिक जमाल खाँ को प्रभावित किया।

इसी वजह से शेरशाह के व्यक्तित्व पर भोजपुरी संस्कृति का गहरा प्रभाव रहा। भोजपुरी संस्कृति और शेरशाह के सहसंबंध को बयान करते हुए राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, जौनपूर में दुसरी जगह से कितने ही सुरमा लोग आ के बस गए थे।

उनमें पठान भी थे, तुर्क भी थे, सैयद भी थे। इन्ही में वह पठान नौजवान था जिसने जौनपूर के वातावरण में सांस लेकर उससे बहुत कुछ सीखा। उसने समझ लिया की सिर्फ तलवार काफी नही हैं, बल्की देश की मिट्टी से एकता स्थापित करना तभी हो सकता है, जब कि वहाँ के सभी लोगों के साथ भाईचारा स्थापित हो।

उस जवान को मालूम था कि दल्ली के आसपास के लोग भले ही किसी समय आग पानी से खेलते रहे हों, वहाँ के हिंदू अनेक रणों के सुरमा रहे हों, पर अब शताब्दियों के संघर्ष ने उनको ढीला कर दिया।

मगर पूर्व में अब भी वह आग मौजूद है। वहाँ के लोग लाठी और तलवार के धनी हैं। हाँ अवधी और भोजपुरी दोनों के बोलने वाले लडनेभिडने में सबसे आगे रहने वाले थे। अंग्रेजों ने इसी गुण को पहचान कर सबसे पहले बडी संख्या में अपना सिपाही बना रखा था।

जो अंग्रेजों ने जाना वही शेरशाह सुरी नें सेकडों साल पहले पहचान लिया। उसने अपनी राजनीति कि शुरुआत इसी भोजपुरी अवधी अस्मिता के साथ की। शेरशाह ने शुरुआत में जौनपुरी दरबार के सामान्य सिपाही के तौर पर अपनी राजनीति का प्रारंभ किया था। कुछ ही दिनों में उसने सासाराम में भोजपुरी अस्मिता की राजनीति को आगे बढाया।

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बना बिहार का शाह

ईसवीं सन 1497 से 1518 तक फरिद ने अपने पिता कि जागीर का व्यवस्थापन भी देखा। करीब 21 साल अपने पिता कि तरह जौनपुर दरबार की नौकरी करने के बाद उसने आग्रा की तरफ अपने कदम बढाए।

राहुल सांकृत्यायन कहते हैं, उसने जौनपूर की चाकरी पर संतोष नहीं किया और दुनिया में अपना अलग स्थान बनाया। भोजपुरीयों के आरा जिले का सासाराम उसका अपना केंद्र हुआ।

उसकी वीरता और उदार विचारों से आकृष्ट होकर भोजपुरी सैनिक और सामन्त दौडदौड कर उसके झण्डे के निचे खडे होने लगे। बहुत समय नहीं बीता कि वह बिहार का शाह बन गया और शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सांकृत्यायन उसके शौर्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं, बाबर ने हिन्दुस्तान को जिता था मगर शेरशाह ने उसके लडके को हराकर हिन्दुस्तान से भागने के लिए मजबूर कर दिया।

एक के बाद एक हार खाते हुए सिन्धु नदी से पश्चिम भाग कर हुमायून को क्या आशा हो सकती थी कि वह फिर हिन्दुस्तान लौटकर गद्दी पर बैठेगा। शेरशाह के जीते जी हुमायून को यह नसीब नहीं हुआ। भोजपुरीयों की तरह अवधी भाषी भी शेरशाह के सहायक हुए, क्योंकी शेरशाह को जौनपूर का अभिमान था।

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सामान्य लोगों का नायक

दिल्ली का सुलतान बनने के बाद भी शेरशाह भोजपुरी मजदुरों की तरह आम जिंदगी बसर करता था। जब हुमायून का दूत उसके पास संदेश लेकर पहुँचा तो, वह फावडा लेकर अन्य मजदुरों की तरह खुदाई कर रहा था। आम मजदुरों की जिंदगी से शेरशाह को काफी लगाव था, क्योंकी वह खुद उसी वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था।

शेरशाह नें अपने शासनकाल में सुखा पडने पर मजदुरों के लिए कई सरकारी काम शुरु किए जिससे मजदूर अपनी उपजिविका पा सकते थें। शेरशाह नें लाहोर से कलकत्ता तक महामार्ग बनवाया।

इसके अलावा उसने आगराबुरहानपुर, आगराजोधपुर, लाहौरमुल्तान तक भी सडकें बनवाई थी। किसानों और बुनकरों के दर्द को समझकर उसने नये कानून बनाए। जागीरदारी निजाम को खत्म किया और कर संकलन के लिए कर्मचारीयों कि नियुक्ती की थी।

किसानों पर जागीरदारों के प्रभुत्व को खत्म कर दिया और उत्पादन के आधार पर भूमि का वर्गीकरण कर विषम करप्रणाली को लागू किया। जिसकी वजह से अमीर किसानों की तरह गरीब किसानों से लगान वसुलने वाली अन्यायी व्यवस्था का खात्मा हुआ।

शेरशाह सुरी ने शासन के व्यवस्थापन को चार मंत्री विभागों विभाजित कर प्रशासन में उसने कई क्रांतिकारक परिवर्तन किए। इसी वजह से कलिकारंजन कानुनगो उसे अकबर से श्रेष्ठ राष्ट्रनिर्माता मानते हैं, तो जॉन गोल्डस्मिथ शेरशाह सुरी को भारत का भोजपुरी राष्ट्रनिर्माताकहते हैं।

शेरशाहने साहित्य, कला और समुची भोजपुरी संस्कृति के विकास में बडा योगदान दिया। शेरशाह का चरित्र, नीतिपूर्ण, बुद्धिमत्तापूर्ण, कुशलता स्वार्थ तथा उसकी पूर्ति के लिए सभी आवश्यक साधनों के प्रयोग करने की भावना से पूर्ण था।

दुर्भाग्य से इस भोजपुरी संस्कृति के इस नायक की तोप फटकर हुई दुर्घटना में मौत हुई। 22 मई 1545 में जब उसका निधन हो गया तो, उसके वारीसों ने भी उसे भोजपुरी मिट्टी के हवाले कर दिया, उसे सासराम में दफनाया गया। भोजपुरी संस्कृति का यह अफगान नायक भोजपुरी मिट्टी में चिरनिद्रा ले रहा हैं।

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