सांस्कृतिक भारत को जानना हैं तो नज़ीर बनारसी को पढ़ना होगा !

रहदों से दूर होती है कविता, एक देश का कवि या शायर दूसरे मुल्क में जा कर अपने कलामों, गज़लों और नज़मों से लोगों को बाग-बाग कर सकता है। खुश कर सकता है। आपस की दीवारों को गिराने का काम साहित्य या कविता ही कर सकती है।

शायरी और कविता का ऐसा प्रसिद्ध शायर नज़ीर बनारसी की गज़लों और नज़मों में आप को देखने को मिलेगा। नज़ीर अपनी नज़मों में इन्सानी भेदभाव और दूरी को पाटने का काम करते रहे। वह इन्सानियत को गढ़ने वाले समकालीन शायरों में शुमार रहे।

नज़ीर बनारसी बेखौफ हो कर लिखते हैं –

न जाने इस ज़माने के दरिंदे

कहाँ से उठा लाए चेहरा आदमी का

एक मुकम्मल इन्सान को सजाने-सवांरने की नज़म लिखने में बनारसी का कोई नज़ीर नहीं है। वह लिखते है, “वहाँ भी मोहब्बत काम आती है,जहाँ कोई किसी का नहीं होता।

नज़ीर संकीर्ण विचारों से दूर मानव को मात्र मानव के रूप में देखना पसंद करते हैं। वह धर्म और संप्रदाय के चश्में को अपनी आँखों में आने ही नहीं देते। सरहद जैसे शब्द उन की नज़मों में एक अनजान राह बन जाते हैं।

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विरासत से थी मोहब्बत

नज़ीर का इन्सान दायरों में कैद नहीं होता। वह आकाश में उड़ते एक पंछी की तरह होता है। जो जहाँ चाहे उड़ कर बैठ जाए और जब चाहे उड़ जाए।

कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे

मैं उतना याद आऊँगा मुझे जितना भुलाओगे

कोई जब पूछ बैठेगा खामोशी का सबब तुम से

बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा न पाओगे

कभी दुनिया मुक्कमल बन के आएगी निगाहों में

कभी मेरी कमी दुनिया की हर एक शय में पाओगे

कहीं पर भी रहें हम तुम मोहब्बत फिर मोहब्बत है

तुम्हें हम याद आयेंगे हमें तुम याद आओगे

नज़ीर ने बनारस को काफी प्यार किया। काशी को वह बहुत चाहते हैं। बनारस उन के लिए एक तरह से पारस है। उम्र के हर पड़ाव में इस शायर ने भारत की साझी विरासत को ज़िंदा रखा।

सज़ा की तरह से काटी है ज़िंदगी हम ने

निबाह दी है मगर वज़ा-ए-दोस्ती  हम ने

जहाँ पे कोई किसी का नज़र नहीं आता

राहे हयात में देखे वो मोड़ भी हम ने

नज़ीर का जन्म 25 नवंबर 1925 को बनारस में हुआ था। कहते हैं, उनके परिवार में ज्यादातर हकीम थे। नज़ीर साहब के पिता, दादा, परदादा सभी हकीम थे। इनके बड़े भाई मुहंमद यासीन तिब्बिया कॉलेज लखनऊ के पढ़े हुए सुप्रसिद्ध हकीम होने के साथ ही साथ एक अच्छे शायर भी थे।

उनके करिबी बताते हैं की, नज़ीर साहब ने इच्छा न होते हुए भी उस्मानिया तिब्बिया कॉलेज से जबरदस्ती जैसे तैसे हकीम की डिग्री हासिल की। कहते है नज़ीर साहब समाजी तौर पर बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, उन्होंने जो सीखा अपने घरेलू माहौल से सीखा।

उनमें शायरी कहने की विलक्षण प्रतिभा थी। बचपन से ही वो सुनने वाले की हैसियत से मुशायरों तथा कवियों की महफ़िलों में जाने लगे थे। इसी तरह सुनते सुनते उनमें शेर कहने का सलीका आने लगा। आगे चलकर उनके ख़ालाज़ाद भाई बेताबबनारसी ने उस्ताद की हैसियत से इस्लाह लेनी शुरु की।

बहुत ही जल्दी उन्होंन शायरी कहने का हुनर हासिल किया। और इतनी महारत हासिल कर ली कि बिना किसी तैयारी के महफिलों में शेर कहने लगे। उनकी शायरी में प्रेम के साथ सामजियत भी होती। वे अपनी शायरी के ज़रिए देश और समाज को समझाते रहे और उन्हें ताकीद देते रहे।

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कविताओं की धड़कनें

हदों-सरहदों की घेराबन्दी से परे कविता होती है, या यूं कहे आपस की दूरियों को पाटने, दिवारों को गिराने का काम कविता ही करती है। शायर नज़ीर बनारसी अपनी गज़लों, कविताओं के ज़रिए इसी काम को अंजाम देते रहे है।

एक मुकम्मल इन्सान को रचने-गढ़ने के लिए नज़ीर की कविताएं सफर पर निकलती है, हमे हमारा फर्ज़ बताती है, ताकीद करते हुए कहती है-

वहाँ भी काम आती है मोहब्बत

जहाँ नहीं होता कोई किसी का

मोहब्बत, भाईचारा, देशप्रेम ही नज़ीर बनारसी की कविताओं की धड़कन हैं। अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी में खुद नज़ीर कहते है,

मैं ज़िंदगी भर शान्ति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती, आपसी भाईचारा…. राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूं।

मेरी नज़में हो गजलें, गीत हो या रूबाईया….. बरखा रूत हो या बसन्त ऋतु, होली हो या दीवाली, शब-ए-बरात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सब में आप को प्रेम, प्यार, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति कार फरमा मिलेगी।

मेरी सारी कविताओं की बजती बासुरी पर एक ही राग सुनाई देगा वह है देशराग…..मैं ने अपने सारे कलाम में प्रेम प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।

हालात चाहे जैसे भी रहे हो, नज़ीर ने उस का सामना किया, न खुद बदले और न अपनी शायरी को बदलने दिया। आग लगी तो नज़ीर की शायरी बोल उठी-

अंधेरा मांगने आया था, रोशनी की भीख

हम अपना घर न जलाते तो क्या करते?

नज़ीर बनारसी ने अंत तक समाज की नब्ज़ को थामे रखा। ताकीद करते रहे, समझाते रहे, बताते रहे कि ये जो दीवारे हैं लोगों के दरमियां, बांटने-बंटने के जो फसलफे हैं, इस मर्ज़ का एक ही इलाज है, कि हम इन्सान बनें और इन्सानियत का पाठ पढ़ें, मुहब्बत का हक अदा करें। कुछ इस अंदाज़ में उन्होंने इस पाठ को पढ़ाया-

रहिये अगर वतन में तो इन्सां की शान से

वरना कफन उठाइये, उठिये जहान से

नज़ीर का ये इन्सान किसी दायरे में नहीं बंधता। जैसे नज़ीर ने कभी खुद को किसी दायरे में कैद नहीं किया। गर्व से कहते रहे

मैं वो काशी का मुसलमां हूं नज़ीर

जिस को घेरे में लिये रहते है, बुतखाने कई

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नज़ीर की नजरों से भारत

काशी यानी बनारस को टूट कर चाहने वाले नज़ीर के लिए बनारस किसी पारस से कम नहीं था। घाट किनारे मन्दिरों के साये में बैठ कर अक्सर अपनी थकान मिटाने वाले नज़ीर की कविता में गंगा और उस का किनारा कुछ ऐसे ढला-

बेदार खुदा कर देता था आंखों में

अगर नींद आती थी

मन्दिर में गजर बज जाता था,

मस्जिद में अज़ाँ हो जाती थी

जब चांदनी रातों में

हम-तुम गंगा किनारे होते थे

नज़ीर की शायरी, उनकी कविताएं धरोहर है, हम सब के लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधेरे में सूरज की रोशनी की तरह है, अगर हम भारत को जानना चाहते है, तो हमे नज़ीर को जानना होगा।

हमें यह समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेश सरीखे शायर ने कैसे भारत की साझी रवायतों को ज़िंदा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है। उनके लफज़ों में

ज़िंदगी एक कर्ज़ है, भरना हमारा काम है

हम को क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है

सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज़ था, सर रख दिया

आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है

नज़ीर साहब के कुल छह काव्य संग्रह गंगो जमन’, ‘जवाहर से लाल तक’, ‘ग़ुलामी से आज़ादी तक’, ‘चेतना के स्वर’, ‘किताबे ग़ज़लऔर राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवालेमंज़र-ऐ-आम पर आये है।

भाई चारे-प्रेम और साझी संस्कृति के साथ विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाले नज़ीर बनारसी 23 मार्च 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

जाते जाते :

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