कमाल ख़ान खबरों के दुनिया के चांद थे

नडीटीवी इंडिया के एक्झीक्युटिव एडिटर कमाल ख़ान का दिल का दौरा पड़ने से 13 जनवरी के रात निधन हो गया। इस खबर के बात देशभर में उनके चाहनेवालें दर्शकों में शोक की एक गमगीन लहर दौड़ गई। जिसके बाद सोशल मीडिया पर शोक संदेशो की बाढ़ सी आ गई।

एनडीटीवी इस खबर को देते हुए लिखा हैं, “कमाल ख़ान पत्रकारिता जगत का एक ऐसा नाम जो किसी पहचान का मोहताज़ नहीं। वे पत्रकारिता के पूरे स्कूल थे जिसमें हम जैसे न जाने कितने पत्रकार उनकी समझ की उंगली पकड़ कर इस विधा को जान-समझ सके।”

14 जनवरी की शाम को गमगीन माहौल में लखनऊ के मल्लिका जहां कब्रिस्तान में कमाल ख़ान पार्थिव शरीर सुपुर्द ख़ाक किया गया। जिसके बाद कुछ ही देर में बनारस के दशाश्वमेध घाट पर उनके नाम पर आरती हुई। ग़मज़दा माहौल में ये इस दौर की वो ख़ूबसूरत तस्वीर थी जिसको पूरे देश में अपने आँखों में समा लिया।

इस तसवीर को देख कर लग रहा था, कल तक कमाल ख़ान की आवाज सारी दुनिया सुनती थी, अब उनके अचानक चले जाने के बाद काशी के घाटों ने उन्हें अपनी आरती की आवाज सुनाई है। कमाल ख़ान के तसवीर के के सामने जलते दियों के लौ अपने अन्दाज़ में श्रद्धांजलि अर्पित कर रही थी।

पुरी के मशहूर कलाकार सुदर्शन पट्टनाइक नें इस खबर से अपने आप को स्तब्ध बताते हुए, रेत पर कमाल ख़ान की तस्वीर बनाकर अनोखी श्रद्धाजंलि अर्पित की।

टीवी, अखबार तथा डिजिल प्लैटफॉर्म पर काम कर रहे अनेक पत्रकारों ने कमाल ख़ान को खिराज ए अकीदत पेश की। साथ ही राजनेता तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये। काँग्रेस के वरीष्ठ नेता राहुल गांधी ने लिखा, “कमाल ख़ान जी के निधन का समाचार दुखद है। वे एक अच्छे और सम्मानित पत्रकार थे। उनके प्रियजनों को मेरी शोक संवेदनाएँ।”

अखिलेश यादव लिखते हैं, “पत्रकारिता की एक गंभीर आवाज़ बनकर उभरे कमाल ख़ान जी का जाना… बेहद दुखद है! उनके सच की गहरी आवाज़ हमेशा बनी रहेगी… भावभीनी श्रद्धांजलि!”

कभी एनडीटी में उनके सहयोगी रहे और अब के एमआईएम सांसद इम्तियाज जलील कमाल को याद करते हुए लिखते हैं, “Shocking! कमाल ख़ान उन कई युवाओं के लिए रोल मॉडल थे जो मेरे सहित पत्रकारिता को करियर के रूप में लेना चाहते थे। इस महान सज्जन के साथ काम करने का सम्मान मिला, जो लखनवी तहज़ीब के प्रतीक थे। उनकी पटकथा और उससे भी बढ़कर उनके पीटूसी बेजोड़! अल्लाह उन्हे जन्नत नसीब करे। There just cannot be any replacement for Kamal Khan.”

पढ़े : मनोरंजन की दुनिया से मीडिया तक भाषाई तमीज का अकाल

पढ़े : टीआरपी का झगड़ा मीडिया के लिए आत्मघाती क्यों हैं?

पढ़े : चैनल्स डिबेट को जहरीला बनाने का जिम्मेदार कौन?

याद में गंगा घाट पर आरती

उनके एक चाहने वाले सिद्धार्थ शंकर लिखते है, “उनको श्रद्धांजलि देते हुए कई सारे लोगों ने मुख्यतः उनके द्वारा अयोध्या विवाद परिपेक्ष्य में हिन्दू भगवान राम के बारे में की गई रिपोर्ट को शेयर किया और उनके लिहाज से कमाल ख़ान का सबसे बेहतर काम उन्हें यही लगा। यह हरक़त उसी भाव का नतीजा है जो कि अब्दुल कलाम के वीणा बजाने और बिस्मिल्लाह ख़ान के मंदिर में शहनाई बजाने को उन दोनों के कैरियर का सबसे उल्लेखनीय काम मानता है।

उन लोगों लिए वह रिपोर्ट उसमें मौजूद किसी ऐसी इनसाइट या फिर इंफॉर्मेशन के लिए खास नहीं है बल्कि इसलिए है कि उसमें एक मुसलमान ने राम को रोमांटिसाइज़ किया है। ऐसा करने पर कमाल उस सेकुलर और काफ़ी हद तक हिन्दू धर्म से मुतासिर मुसलमान की फेहरिस्त में आ जाते हैं जो कि बहुसंख्यकों के लिए एक मॉडल मुसलमान है।”

इसी तरह ‘न्यूज-19 उर्दू’ के सिनियर एडिटर तहसीन मुनव्वर ने ‘हाजी कमाल ख़ान’ शीर्षक से एक किस्सा फेसबुक पर लिखा, जो काफी लोगों द्वारा शेअर किया गया। लिखते हैं, “साल याद नहीं आरहा लेकिन इतना याद है वह एनडीटीवी की ओर से हज कवर करने गए हुए थे। उनकी वहां से आने वाली रिपोर्ट देखने से ताल्लुक़ रखती थीं। उसी दौरान उनसे फ़ोन पर बात हुई।

शायद उनका फ़ोन आया था किसी बारे में पूछने के लिए तो मैं ने उनकी तारीफ़ के साथ साथ कहा कि इसी बहाने उन्हें हज करने का मौक़ा मिल गया है। कहने लगे मैं हज नहीं कर रहा हूं। मैं ने कहा उमरा तो करेगें। कहने लगे वह भी नहीं। मुझे हैरत हुई कि इतना अच्छा मौक़ा मिला है वह जाने कैसे दे सकते हैं। कहने लगे कि मुझे मेरे चैनल ने इतना पैसा खर्च कर के यहां हज करने के लिए नहीं बल्कि हज को कवर करने के लिए भेजा है।

मैं ने कहा क्या दोनों साथ साथ नहीं हो सकते? किसी का नाम लिया कि वह यह झूठ बोल कर कि सिगनल नहीं आरहे हैं यही करने गए हैं। मुझ से इतना बड़ा झूठ नहीं बोला जाएगा, और वह भी अल्लाह के घर में।

मैं ने कहा हज तो हो जाएगा। कहने लगे कि एक हिंदू प्रणॉय रॉय ने मुझ पर भरोसा कर के कि मैं उसके चैनल के लिए हज की कवरेज करुंगा, मुझ पर कई लाख रुपए ख़र्च किए हैं और मैं यहां आकर यहां आने का मक़सद भूल कर कुछ और ही करने लगूं तो यह ग़लत होगा। अल्लाह कैसे मेरा हज क़बूल करेगा?

हां इंशाअल्ला जब भी मौक़ा मिला अपने ख़र्च पर हज करूंगा और यही इस्लाम कहता भी है। उनकी बात सुन कर हमें खुद से ही उस समय शर्म सी महसूस हुई क्योंकि हम उस दौरान ऑफिशल डेलिगेशन में शामिल होने के लिए कोशिश कर रहे थे। कमाल ख़ान से बात करने के बाद हम ने जिन से इसके लिए कहा था और जो कि लगभग हो ही जाने वाला था, अपना नाम वापस लेने के लिए कहा और कमाल ख़ान का जुमला दोहरा दिया कि अपने पास होगा तो उसी से हज करेगें।

हमें नहीं मालूम इतने पास जाके भी अपने उसूलों के लिए जो शख़्स इतना मज़बूत रहा हो, क्या उसका हज न होकर भी हो न गया होगा। अल्लाह बेहतरीन अज्र देने वाला है। लेकिन हम तब से उन्हें हाजी मानते हैं।”

पढ़े : मीडिया के बिगड़ने में बहुसंख्यकवादी राजनीति का रोल

पढ़े : मीडिया, समाज को बांटकर बना रहा है हिंसक

पढ़े : मीडिया में सांप्रदायिकता कैसे शुरु हुई?

दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा

इसी तरह रवीश कुमार जो एनडीटीवी में कमाल के सहयोगी हैं, उन्होंने ‘अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा’ शीर्षक से एक छोटी ऑब्युचेरी लिखी हैं।

लिखते हैं, “कमाल ख़ान के निधन की ख़बर से करोड़ों दर्शकों और उनका परिवार स्तब्ध है। देश और दुनिया भर में फैले उनके चाहने वाले लगातार शोक संवेदना भेज रहे हैं।

हमारे सहयोगी रिपोर्टर साथियों के पास भी बहुत सारे संदेश आए हैं। मैं आप सभी की तरफ़ से संवेदना स्वीकार करता हूँ। कमाल ख़ान के परिवार की तरफ़ से भी स्वीकार करता हूँ और आप सभी का आभार प्रकट करता हूँ। उम्मीद है कि हम एक दिन इन संदेशों को उनके परिवार के सदस्यों तक पहुँचाने में सक्षम हो पाएँगे।

कमाल ख़ान को याद करते वक़्त जिस तरह से लाखों लोगों ने उनके काम के एक एक हिस्से को याद किया है उससे पता चलता है कि दर्शक की यादों में अच्छा काम किस तरह जाकर ठहर जाता है। फ़ेसबुक हो या ट्विटर हर किसी ने उनके काम के किसी न किसी हिस्से को याद करते हुए उन्हें याद किया है। कमाल ख़ान आप सभी के हैं। इस मैसेज के कमेंट में जाकर आप अपनी संवेदनाएँ यहाँ व्यक्त कर सकते हैं ताकि हम इसे एक दस्तावेज़ की तरह सहेज सकें।

मैं अपना लिखा यहाँ साझा कर रहा हूँ। जितना लिखने की हालत में था, उतना ही लिखा है।

उन्होंने केवल पत्रकारिता की नुमाइंदगी नहीं की, पत्रकारिता के भीतर संवेदना और भाषा की नुमाइंदगी नहीं की, बल्कि अपनी रिपोर्ट के ज़रिए अपने शहर लखनऊ और अपने मुल्क हिन्दोस्ताँ की भी नुमाइंदगी की। कमाल का मतलब पुराना लखनऊ भी था जिस लखनऊ को धर्म के नाम पर चली नफ़रत की आंधी ने बदल दिया।

वहां के हुक्मरान की भाषा बदल गई। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किसी को ठोंक देने या गोली से परलोक पहुंचा देने की ज़ुबान बोलने लगे। उस दौर में भी कमाल ख़ान उस इमामबाड़े की तरह टिके रहे, जिसके बिना लखनऊ की सरज़मीं का चेहरा अधूरा हो जाता है।

उस लखनऊ से अलग कर कमाल ख़ान को नहीं समझ सकते। कमाल ख़ान जैसा पत्रकार केवल काम से जाना गया लेकिन आज के लखनऊ में उनकी पहचान मज़हब से जोड़ी गई। सरकार के भीतर बैठे कमज़ोर नीयत के लोगों ने उनसे दूरी बनाई।

कमाल ने इस बात की तकलीफ़ को लखनऊ की अदब की तरह संभाल लिया। दिखाया कम और जताया भी कम। सौ बातों के बीच एक लाइन में कह देते थे कि आप तो जानते हैं। मैं पूछूंगा तो कहेंगे कि मुसलमान है। एक पत्रकार को उसके मज़हब की पहचान में धकेलने की कोशिशों के बीच वह पत्रकार ख़ुद को जनता की तरफ धकेलता रहा। उनकी हर रिपोर्ट इस बात का गवाह है।

पढ़े : हिन्दुत्व की तरफदारी में मीडिया क्या छुपा रहा हैं?

पढ़े : मीडिया जो परोस रहा है, क्या उस दायरे में सच भी है?

पढ़े : अच्छी खबरें ही देखें‚ ‘भोंपू़ मीडि़या’ को करें खारिज

एनडीटीवी के चांद

यही कमाल ख़ान का हासिल है कि आज उन्हें याद करते वक्त आम दर्शक भी उनके काम को याद कर रहे हैं। ऐसे वक्त में याद करना कितना रस्मी हो जाता है लेकिन लोग जिस तरह से कमाल ख़ान के काम को याद कर रहे हैं, उनके अलग-अलग पीस टू कैमरा और रिपोर्ट के लिंक साझा कर रहे हैं, इससे पता चलता है कि कमाल ख़ान ने अपने दर्शकों को भी कितना कुछ दिया है।

मैं ट्विटर पर देख रहा था। उनकी अनगिनत रिपोर्ट के हिस्से साझा हो रहे थे। यही कमाल ख़ान का होना है। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है जो लोग उनके काम को साझा करने के साथ दे रहे हैं।

उस काम को करते हुए हमने एक कमाल ख़ान को देखा और सुना है। जिसे जानना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पता चले कि कमाल ख़ान अहमद फराज़ और हबीब जालिब के शेर सुन कर नहीं बन जाता है। दो मिनट की रिपोर्ट लिखने के लिए भी वो दिन भर सोचा करते थे। दिनभर पढ़ा करते थे और लिखा करते थे।

उनके साथ काम करने वाले जानते थे कि कमाल भाई ऐसे ही काम करते हैं। यह कितनी अच्छी बात है कि कोई अपने काम को इस आदर और लगन के साथ निभाता है।

अयोध्या पर उनकी कई सैकड़ों रिपोर्ट को अगर एक साथ एक जगह पर रखकर देखेंगे तो पता चलेगा कि पूरे उत्तर प्रदेश में कमाल ख़ान के पास एक अलग अयोध्या था। वो उस अयोध्या को लेकर गर्व के नाम पर नफरत की आग में बदहवास देश से कितनी सरलता से बात कर सकते थे। उसके भीतर उबल रही नफ़रत की आग ठंडी कर देते थे।

वे तुलसी के रामायण को भी डूबकर पढ़ते थे और गीता को भी। कहीं से एक-दो लाइनें चुराकर अपनी रिपोर्ट में जान डाल देने वाले पत्रकार नहीं थे। उन्हें पता था कि यूपी का समाज धर्म में डूबा हुआ है। उसके इस भोलेपन को सियासत गरम आंधी में बदल देती है। उस समाज से बात करने के लिए कमाल ने न जाने कितनी धार्मिक किताबों का गहन अध्ययन किया होगा। इसलिए जब कमाल ख़ान बोलते थे तो सुनने वाला भी ठहर जाता था। सुनता था।

क्योंकि कमाल ख़ान उसकी नज़र से होते हुए ज़हन में उतर जाते थे और अंतरात्मा को हल्के हाथों से झकझोर कर याद दिला देते थे कि सब कुछ का मतलब अगर मोहब्बत और भाईचारा नहीं है तो और क्या है। और यही तो मज़हब और यूपी की मिट्टी के बुजुर्ग बता गए हैं।

कमाल ख़ान जिस अधिकार पर राम और कृष्ण से जुड़े विवादों की रिपोर्टिंग कर सकते थे उतनी शालीनता से शायद ही कोई कर पाए क्योंकि उनके पास जानकारी थी। जिसके लिए वे काफी पढ़ा करते थे। बनारस जाते थे तो बहुत सारी किताबें खरीद लाया करते थे। गूगल के पहले के दौर में कमाल ख़ान जब रिपोर्टिंग करने निकलते थे तब उस मुद्दे से जुड़ी किताबें लेकर निकलते थे।

वे अक्खड़ भी थे क्योंकि अनुशासित थे। इसलिए ना कह देते थे। वे हर बात में हां कहने वाले रिपोर्टर नहीं है। कमाल ख़ान का हां कह देने का मतलब था कि न्यूज़ रूम में किसी ने राहत की सांस ली है। वे नाजायज़ या ज़िद से ना नहीं कहते थे बल्कि किसी स्टोरी को न कहने के पीछे के कारण को विस्तार से समझाते थे।

ऐसा करते हुए कमाल ख़ान अपने आस-पास के लोगों को उस उसूल की याद दिलाते थे जिसे हर किसी को याद रखना चाहिए। चाहे वो संपादक हो या नया रिपोर्टर। रिपोर्टर अपने तर्कों से जितनी ना कहता है, अपने संस्थान का उतना ही भला करता है क्योंकि ऐसा करते वक्त वह अपने संस्थान को भी ग़लत और कमज़ोर रिपोर्ट करने से बचा लेता है।

अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा। क्योंकि जिस प्रक्रिया से गुज़र कर कोई कमाल ख़ान बनता है उसे दोहराने की नैतिक शक्ति यह देश खो चुका है। इसकी मिट्टी में अब इतने कमज़ोर लोग हैं कि उनकी रीढ़ में दम नहीं होगा कि अपने-अपने संस्थानों में कमाल ख़ान पैदा कर दें। वर्ना जिस कमाल ख़ान की भाषा पर हर दूसरे चैनल में दाद दी जाती है उन चैनलों में कोई कमाल ख़ान ज़रूर होता। कमाल ख़ान एनडीटीवी के चांद थे। जिनकी बातों में तारों की झिलमिलाहट थी। चांदनी का सुकून था।”

जाते जाते :

Share on Facebook