आप किससे उम्मीद कर रहे हैं? भारत का 99.999 प्रतिशत मीडिया गोदी मीडिया है। यह एक परिवार की तरह काम करता है। इस परिवार के संरक्षक का नाम आप जानते हैं। इस परिवार में सारे एंकर और चैनलों के मालिक अर्णब ही हैं।
नाम सबके अलग हैं मगर काम अर्णब का ही है। आप सोचिए कि एक अर्णब दूसरे अर्णब के बारे में कैसे बोलेगा। इसलिए अर्णब अर्णब के बारे में चुप ही रहेगा।
भले इस कथित चैट में गोदी मीडिया की आपसी प्रतिस्पर्धा दिख रही है लेकिन आप ये तो देखिए कि गोदी मीडिया का संरक्षक कौन है? क्या यह गोदी मीडिया दुस्साहस करेगा कि वह आपसी प्रतिस्पर्धा की लड़ाई में संरक्षक को सामने ले आए? कभी नहीं करेगा।
इसलिए वह अर्णब को बचाने के लिए चुप नहीं है बल्कि अपने संरक्षक को बचाने के लिए चुप है। जिस खेल को अर्णब के कथित चैट के ज़रिए उजागर किए जाने का दावा किया जा रहा है वो कौन नहीं जानता। उस खेल में तो 99.999 प्रतिशत गोदी मीडिया लाभार्थी है। तो कोई कैसे अपने अर्णब होने के ख़िलाफ़ अर्णब की पोल खोल दे।
अर्णब सिर्फ़ एक न्यूज़ एंकर नहीं है। वह एक समाज है। अर्णब के झूठ को देखने और दिन रात गटकने वाला समाज अर्णब बन चुका है। उस समाज की सोच में अर्णब और अर्णब के संरक्षक के फ़र्क़ की सीमा रेख मिट चुकी है।
उसके लिए संरक्षक ही अर्णब है और अर्णब ही संरक्षक है। तो वह समाज अर्णब और संरक्षक के लिए चुप रहेगा। जबकि वही समाज रक्षा और सेना को लेकर फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करता है ताकि अपने भीतर की सांप्रदायिकता को एक नैतिक रंग दे सके। उसके लिए न देशभक्ति अहम है और न राष्ट्रवाद।
दोनों में अंतर होता है। ख़ैर। इसलिए वह अर्णब के कथित चैट के बहाने राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उठ रहे सवाल को लेकर सवाल नहीं करेगा। जवाब नहीं माँगेगा। चुप रहेगा। क्योंकि अब जब तक वह जीवित है इसी तरह के झूठ और प्रपंच के साथ जीने-मरने के लिए अभिशप्त है।
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जनता बनी है गुलाम
मैं जानता हूँ कि न्यूज़ चैनलों के ज़रिए भारत की जनता को दैनिक रुप से ग़ुलाम बनाने का अभ्यास कराया जाता है और जनता किस हद तक गुलाम बन चुकी है उसका दैनिक परीक्षण किया जाता है। तभी तो जनता ने साढ़े तीन महीने तक सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की ख़बर पर बतगंड़ी का महाकवरेज देखा था।
इस समाज के बीच नैतिकता की कोई जगह नहीं बची है। यह समाज एक गिरोह और उसके सदस्यों की अनैतिकता का बचाव करने के लिए ज़िंदा है। तभी मैंने कहा था कि नागरिक या जनता के अधिकार की किसी भी लड़ाई का गोदी मीडिया के बहिष्कार या उससे लड़ाई के बग़ैर कोई मतलब नहीं है।
जब 99.999 प्रतिशत मीडिया गोदी मीडिया हो जाए तो अब हर संघर्ष में इस बात का हिसाब होना चाहिए कि बग़ैर मीडिया के कैसे आंदोलन करना है। जो मीडिया के लिए आंदोलन करेगा उसकी मौत तय है। उसकी असफलता तय है।
यह बात सिर्फ़ किसानों के लिए नहीं है बल्कि नौकरी और परीक्षा को लेकर आंदोलन करने वाले छात्रों के लिए भी है। उनके अपने भीतर इस स्वाभिमान को पैदा करना ही होगा कि वे अपने आंदोलन से मीडिया को बाहर कर दें। नहीं करेंगे कोई बात नहीं। उनकी मर्ज़ी। मैं लोड नहीं लेता।
कई लोगों ने मुझसे कहा कि आप अर्णब के चैट के बारे में क्यों नहीं प्रोग्राम कर रहे हैं? मेरा जवाब पेशेवर है। एक कि मैंने चैट देखा नहीं क्योंकि अकेले काम करता हूँ तो पढ़ने का वक़्त नहीं मिला। सोशल मीडिया में इतनी जगह उस चैट के बारे में काट-छाँट कर पेश किया गया है।
ऐसे मैं मेरा एक क़ायदा है। मैं थोड़ा रुकता हूँ। ख़ुद पढ़ता हूँ। देर से कर लेंगे कोई तूफ़ान नहीं आ जाएगा। इस दौरान मैं किसानों के मुद्दे को समझने में लगा था।
मैंने किसी दूसरे विषय पर कोई प्रोग्राम किया भी नहीं था। सोचा तो यही था कि लगातार 50 एपिसोड करूँगा और किसी दूसरे विषय पर नहीं करूँगा। ज़ाहिर है उसमें व्यस्त रहा। और हूँ भी।
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मैं अर्णब नहीं हूँ
हम अर्णब नहीं है कि व्हाट्स एप का चैट आया और रिया चक्रवर्ती की ज़िन्दगी के पीछे पड़ गए। मैंने कई लोगों से पूछा कि इसे औपचारिक रुप से कवर बने में निजता के कौन कौन से सवाल उठते हैं। क्या किसी की निजता भंग होती है?
पुलिस ने कोर्ट में चार्जशीट जमा की है तो इसे लेकर किस तरह की नैतिक और क़ानूनी सावधानियाँ बरती जानी चाहिए। हमने तो इतना सोचा है। अगर मेरे बारे में ऐसी कोई सूचना होती तो अर्णब सहित सारे अर्णब इस पर घटों अभियान चला रहे हो। सारे मंत्री पुलिस के साथ मेरे घर आ गए होते। सूचना प्रसारण मंत्रालय की अफ़सर नोटिस जारी कर रही होतीं। क्योंकि मैं अर्णब नहीं हूँ।
अगर मैं अर्णब होता तो सब चुप रहते। आई टी सेल चुप रहता। और सबसे बड़ी बात समाज का बड़ा तबका मेरे साथ खड़ा रहता। मेरी एक बात याद रखिएगा। भारत की सामाजिकता की बुनियाद में नैतिकता है ही नहीं। आगे कहने की ज़रूरत नहीं है।
न्यूज़ चैनलों की ग़ुलामी झेल रहे इस समाज से ज़्यादा संवाद करना समय बर्बाद करना है। अब सवाल है कि अर्णब की मदद कैसे की जाए? इसका एक समाधान है जो पेश कर रहा हूँ।
या तो ओवैसी कहीं कुछ बयान दे दें, या मंदिर निर्माण के चंदे को लेकर कोई बोल दे कि चंदा नहीं देना है, इससे होगा कि गोदी मीडिया के सारे अर्णबों को हफ़्ते भर का मुद्दा मिल जाएगा। लोग वैसे भी चंदा देंगे और देते रहेंगे लेकिन टीवी के लिए इससे अच्छा मुद्दा कुछ और नहीं है।
या फिर पाकिस्तान से कुछ जोड़ दिया जाए। पाकिस्तान से जुड़ जाए तो सारे अर्णब बाहर आ जाएँगे। अपना बचाव करने लगेंगे। इस तरह के मुद्दे किसी न किसी संगठन के लोग बयान देकर उपलब्ध करा ही देंगे। अगर ऐसा हो गया तो सारे अर्णब खुश हो जाएँगे।
याद है न आपको अर्णब के लिए कैसे सारे मंत्री आ जाते थे। बीजेपी के सारे प्रवक्ता आ जाते थे। बोलने और अर्णब को बचाने । सारी सरकार खड़ी हो जाती थी। इस बार भी सब उसके साथ खड़े हैं। बस फ़र्क़ ये है कि बोल नहीं रहे हैं। ज़रूरी भी नहीं कि हर बार बोल कर साथ दिया जाए।
फ़िलहाल न्यूज़ लौंड्री ने इस पर हिन्दी में एक रिपोर्ट की है। नवभारत टाइम्स और टाइम्स आप इंडिया में ख़बर छपी है। टाइम्स नाउ ने कवर किया है लेकिन उसमें चतुराई से AS का मतलब नहीं बताया जा रहा है। AS का मतलब बताते ही टाइम्स नाउ बंद कर दिया जाएगा। कैरवां ने भी इस पर रिपोर्टिंग की है मगर वो अंग्रेज़ी में है।
इस लेख का उन्वानशीर्षक श्री 420 फ़िल्म के एक गाने से प्रभावित है। तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर…
जाते जाते :
- मीडिया जो परोस रहा है, क्या उस दायरे में सच भी है?
- अच्छी खबरें ही देखें‚ ‘भोंपू़ मीडि़या’ को करें खारिज
- मीडिया, समाज को बांटकर बना रहा है हिंसक
लेखक NDTV के लोकसंवादक एंकर हैं।