भगतसिंग मानते थें कि भाषा-साहित्य के बिना उन्नति नहीं हो सकती

आज महान क्रांतिकारक भगत सिंग कि पुण्यतिथी हैं। भगत सिंग एक विद्वान थें। अपने जीवन के अन्त समय तक वह पढते रहे। उनका मानना था कि भाषा और साहित्य के बगैर कोई राष्ट्र खडा नही हो सकता।

उसी तरह क्रांति कि परिभाषा भाषाई अस्तित्व के बगैर पूर्ण नही हो सकती। उन दिनों पंजाब मेंं भाषा संघर्ष जोर पकड रहा था, तब उन्होंने एक लेख लिखकर तमाम आशंकाओ का विस्तार से विवेचन किया था। आज हम वह लेख दो भागों मे आपके लिए दे रहे हैं…

“किसी समाज अथवा देश को पहचानने के लिए उस समाज अथवा देश के साहित्य से परिचित होने की आवश्यकता होती है, क्योंकि समाज के प्राणों की चेतना उस समाज के साहित्य में भी निर्देशित हुआ करती है।”

उपरोक्त कथन की सत्यता का इतिहास साक्षी है। जिस देश के साहित्य का प्रवाह जिस ओर बहा, ठीक उसी ओर वह देश भी अग्रसर होता रहा। किसी भी जाति के उत्थान के लिए ऊँचे साहित्य की आवश्यकता हुआ करती है। ज्यों-ज्यों देश का साहित्य ऊंचा होता जाता है, त्यों-त्यों देश भी उन्नति करता जाता है।

देशभक्त चाहे वे समाज-सुधारक हो अथवा राजनैतिक नेता, सबसे अधिक ध्यान देश के साहित्य की ओर दिया करते हैं। यदि वे सामाईक समस्याओं तथा परिस्थितियों के अनुसार नवीन साहित्य की सृष्टि न करें तो उनके सब प्रयत्न निष्फल हो जायें और उनके कार्य स्थायी न हो पाएं।

शायद गैरीबाल्डी को इतनी जल्दी सेनाएं न मिल पाती, यदि मॅझिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा करने में हो न लगा दिए होते। आयरलैंड के पूनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा के पूनरुत्थान का प्रयत्न भी उसी वेग से किया गया।

शासक लोग आयरिश लोगों को दबाए रखने के लिए उनकी भाषा का दमन करना इतना आवश्यक समझते थे कि गैलिक भाषा की एक-आध कविता रखने के कारण छोटे-छोटे बच्चों तक को दंडित किया जाता था।

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साहित्य का बदलता प्रवाह

रूसो, वाल्तेयर के साहित्य के बिना फ्रान्स की राज्यक्रांति घटित न हो पाती। यदि टॉलस्टाय, कार्ल मार्क्स तथा मैक्सिम गोर्की इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षो व्यतीत न कर दिये हो

ते, तो रूस की क्रांति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा। यही दशा हम सामाजिक तथा धार्मिक सुधारको में देख पाते हैं। कबीर के साहित्य के कारण उनके भावों का स्थायी प्रभाव दीख पड़ता है। आज तक उनकी मधुर सरस कविताओं को सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं। ठीक यही बात गुरु नानकदेव जी के विषय में भी कही जा सकती है।

सिख गुरुओं ने अपने मत के प्रचार के साथ जब नवीन सम्प्रदाय स्थापित करना शुरू किया, उस समय उन्होंने नवीन साहित्य की आवश्यकता भी अनुभव की और इसी विचार से गुरु अंगददेव जी ने गुरुमुखी लिपि बनाई।

शताब्दियों तक निरन्तर युद्ध और मुसलमानों के आक्रमणों के कारण पंजाब में साहित्य की कमी हो गई थी। हिन्दी भाषा का भी लोप-सा हो गया था। इस समय किसी भारतीय लिपि को ही अपनाने के लिए उन्होंने कश्मीरी लिपि को अपना लिया। उसके बाद गुरु अर्जुनदेव जी तथा भाई गुरुदास जी के प्रयत्न से आदि-गन्थ का संकलन हुआ।

अपनी लिपि तथा अपना साहित्य बनाकर अपने मत को स्थायी रूप देने में उन्होंने यह बहुत प्रभावशाली तथा उपयोगी कदम उठाया था। उसके बाद ज्यों-ज्यों परिस्थिति बदलती गई, त्यों-त्यों साहित्य का प्रवाह भी बदलता गया। गुरुओं के निरन्तर बलिदानों तथा कष्ट-सहन से परिस्थिति बदलती गई।

जहां हम प्रथम गुरु के उपदेश में भक्ति तथा आत्म-विस्मृति बेर भाव सुनते हैं और निम्नलिखित पद में कमाल आजिज़ी का भाव पाते हैं –

नानक नन्हे हो रहे, जैसी नन्ही दूब।

और घास जरिजात है, दूब खूब की खूब।

वहीं पर हम नौवें गुरु श्री तेगबहादुर जी के उपदेश में पददलित लोगों की हमदर्दी तथा उनकी सहायता के भाव पाते हैं :

बांहि जिन्हां दी पकड़िए, सिर दीजिए बांहि न छोड़िए।

गुरु तेगबहादुर बोलया, धरती पै धर्म न छोड़िए ॥

उनके बलिदान के बाद हम एकाएक गुरु गोविन्दसिंह जी के उपदेश में क्षात्र धर्म का भाव पाते हैं। जब उन्होंने देखा कि अब केवल भक्ति-भाव से ही काम न चलेगा, तो उन्होंने चण्डी की पूजा भी प्रारंभ की और भक्ति तथा क्षात्र-धर्म का समावेश कर सिख समुदाय को भक्तों तथा योद्धाओं का समूह बना दिया। उनकी कविता (साहित्य) में हम नवीन भाव देखते हैं। वे लिखते हैं :

जे तोहि प्रेम खेलण का चाव, सिर धर तली गली मोरी आव।

जे इत मारग पैर धरीजै, सिर दीजै कांण न कीजे॥

और फिर

सूरा सो पहिचानिये, जो लड़े दीन के हेत।

पुंजो पुर्जा कट मरे, कभुन छांडे खेत।

और फिर एकाएक खड्ग की पूजा प्रारंभ हो जाती है :

खग खण्ड विहंड, खल दल खण्ड अति रन मंड प्रखंड।

भुज दण्ड अखण्ड, तेज प्रचंड जोति अभंड भानुप्रभं॥

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साधारण भाषा

उन्हीं भावों को लेकर बाबा बन्दा आदि मुसलमानों के विरुद्ध निरन्तर युद्ध करते रहे, परंतु उसके बाद हम देखते हैं कि जब सिख सम्प्रदाय केवल अराजकों का एक समूह रह जाता है और जब वे गैर कानूनी (out-law) घोषित कर दिये जाते हैं, तब उन्हें निरन्तर जंगलों में ही रहना पड़ता है।

अब इस समय नवीन साहित्य की सृष्टि नही हो सकी। उनमें नवीन भाव नहीं भरे जा सके। उनमें क्षात्र वृत्ति थी, वीरत्व तथा बलिदान का भाव था और मुसलमान शासकों के विरुद्ध युद्ध करते रहने का भाव था, परंतु उसके बाद क्या करना होगा यह ये भली-भांति नहीं समझे।

तभी तो उन वीर योद्धाओं के समूह (मिसलें) आपस में भिड़ गए। यहीं पर सामयिक भावों की त्रुटि बुरी तरह अखरती है। यदि बाद में रणजीतसिंह जैसा वीर योद्धा और चालाक शासक न निकल आता, तो सिखों को एकत्रित करने के लिए कोई उच्च आदर्श अथवा भाव शेष न रह गया था।

इन सबके साथ एक बात और भी खास ध्यान देने योग्य है। संस्कृत का सारा साहित्य हिन्दू समाज को पुनर्जीवित न कर सका, इसलिए सामयिक भाषा में नवीन साहित्य की सृष्टि की गई।

उस सामाईक भाव के साहित्य ने अपना जो प्रभाव दिखाया वही हम आजे तक अनुभव करते हैं। एक अच्छे समझदार व्यक्ति के लिए क्लिष्ट संस्कृत के मंत्र तथा पुरानी अरबी की आयतें इतनी प्रभावकारी नहीं हो सकतीं जितनी की उसकी अपनी साधारण भाषा की साधारण बातें।

ऊपर पंजाबी भाषा तथा साहित्य के विकास का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। अब हम वर्तमान अवस्था पर आते हैं। लगभग एक ही समय पर बंगाल में स्वामी विवेकानन्द तथा पंजाब में स्वामी रामतीर्थ पैदा हुए।

दोनों एक ही ढर्रे के महापुरुष थे। दोनों विदेशों में भारतीय तत्त्वज्ञान की धाक जमाकर स्वयं भी जगत्-प्रसिद्ध हो गए, परंतु स्वामी विवेकानन्द का मिशन बंगाल में एक स्थायी संस्था बन गया पर पंजाब में स्वामी रामतीर्थ का स्मारक तक नहीं दीख पड़ता।

उन दोनों के विचारों में भारी अन्तर रहने पर भी तह में हम एक गहरी समता देखते हैं। जहां स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहां स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे :

हम रूखे टुकड़े खायेंगे, भारत पर वारे जायेंगे।

हम सूखे चने चबायेंगे, भारत की बात बनायेंगे।

हम नंगे उमर बितायेंगे, भारत पर जान मिटायेंगे।

वे कई बार अमरीका में अस्त होते हुए सूर्य को देखकर आंसू बहाते हुए कहा करते थे – ‘तुम अब मेरे प्यारे भारत में उदय होने आ रहे हो। मेरे इन आंसुओं को भारत के सलिल सुन्दर खेतों में ओस की बूंदों के रूप में रख देना।’

इतना महान देश तथा ईश्वर-भक्त हमारे प्रान्त में पैदा हुआ हो, परंतु उसका स्मारक तक न दिख पड़े, इसका कारण साहित्यिक फिसड्डीवन के अतिरिक्त क्या हो सकता है?

यह बात हम पग-पग पर अनुभव करते हैं। बंगाल के महापुरुष श्री देवेन्द्र ठाकुर तथा श्री केशवचन्द्र सेन की टक्कर के पंजाब में भी कई महापुरुष हुए हैं, परंतु उनकी वह कद्र नहीं और मरने के बाद वे जल्द ही भुला दिए गए जैसे गुरु ज्ञानसिंह जी इत्यादि। इन सबकी तह में हम देखते हैं कि एक ही मुख्य कारण है और वह है साहित्यिक रुचि जागृति का सर्वथा अभाव।

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हिन्दी होने का महत्त्व

यह तो निश्चित ही है कि साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकती, परंतु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्यकता होती है और पंजाब में वह नहीं हैं। इतने दिनों से यह त्रुटि अनुभव करते रहने पर भी अभी तक भाषा का कोई निर्णय न हो पाया।

उसका मुख्य कारण हैं हमारे प्रान्त के दुर्भाग्य से भाषा को मज़हबी समस्या बना देना। अन्य प्रान्तों में हम देखते है कि मुसलमानों ने प्रान्तीय भाषा को खूब अपना लिया है। बंगाल के साहित्य-क्षेत्र में कवि नज़रुल-इस्लाम एक चमकते सितारें हैं। हिन्दी कवियों में लतीफ हुसैन नटवर उल्लेखनीय हैं।

इसी तरह गुजरात में भी हैं। परंतु दुर्भाग्य हे पंजाब का। यहां पर मुसलमानों का प्रश्न तो अलग रहा, हिन्दू सिख भी इस बात पर न मिल सके। पंजाब की भाषा अन्य प्रान्तों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिए थी, फिर क्यों नहीं हुई, यह प्रश्न अनायास ही उठता है, परंतु यहां के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया।

मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्त्व न समझकर अरबी लिपि तथा फारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं।

समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिन्दी होने का महत्त्व उनकी समझ में नहीं आता। इसलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक ओर बैठ गए। फिर सिखों की बारी आई। उनका सारा साहित्य गुरुमुखी लिपि में है।

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घृणा की दृष्टि

भाषा में अच्छी-खासी हिन्दी है, परंतु मुख्य पंजाबी भाषा है। इसलिए सिक्खों ने गुरुमुखी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी भाषा को ही अपना लिया। वे उसे किसी तरह छोड़ नहीं सकते थे। वे उसे मज़हबी भाषा बनाकर उससे चिपट गए।

इधर आर्य समाज का आविभाव हुआ। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने समस्त भारतवर्ष में हिन्दी प्रचार करने का भाव रखा। हिन्दी भाषा आर्यसमाज का एक धार्मिक अंग बन गई। धार्मिक अंग बन जाने से एक लाभ तो हुआ कि सिखों की कट्टरता से पंजाबी की रक्षा हो गई और आर्य समाजियों की कट्टरता से हिन्दी भाषा ने अपना स्थान बना लिया।

आर्यसमाज के प्रारंभ के दिनों में सिक्खों तथा आर्य समाजियों की धार्मिक सभाएं एक ही स्थान पर होती थीं। तब उनमें कोई भिन्न भेदभाव न था, परंतु पीछे ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के किन्हीं दो-एक वाक्यों के कारण आपस में मनोमालिन्य बहुत बढ़ गया और एक-दूसरे से घृणा होने लगी। इसी प्रवाह में बहकर सिख लोग हिन्दी भाषा को भी घृणा की दृष्टि से देखने लगे। औरों ने इसकी और किंचित भी ध्यान नही दिया।

बाद में कहते हैं कि आर्यसमाजी नेता महात्मा हंसराज जी ने लोगों से कुछ परामर्श किया था कि यदि वह हिन्दी लिपि को अपना लें, तो हिन्दी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी भाषा यूनिवर्सिटी में मंजूर करवा लेंगे परंतु दुर्भाग्य-वश वे लोग संकीर्णता के कारण और साहित्यिक जागृति के न रहने के कारण इस बात के महत्त्व को समझ ही न सके और वैसा न हो सका। खैर!

तो इस समय पंजाब में तीन मत हैं। पहला मुसलमानों का उर्दू संबंन्धी कट्टर पक्षपात, दूसरा आर्य समाजियों तथा कुछ हिन्दुओं का हिन्दी सम्बन्धी, तीसरा पंजाबी का।

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