भगतसिंग के पुण्यतिथी के अवसर पर हम आपको, उनके भाषाई मतों से रुबरू करा रहे हैं। भाषा राष्ट्र और उसके नागरिको के उन्नति के लिए जितनी जरूरी हैं, उतनी ही वोह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए जरुरी हैं।
इस बारें में एक लेख लिखकर भगत सिंग ने अपनी बात विस्तार से रखी हैं। आज हम वह लेख दो हिस्सों मे दे रहे हैं। पेश हैं उसका दूसरा भाग।
इस समय हम एक-एक भाषा के संबंध में कुछ विचार करें, तो अनुचित न होगा। सबसे पहले हम मुसलमानों का विचार रखेंगे। वे उर्दू के कट्टर पक्षपाती हैं। इस समय पंजाब में इसी भाषा का जोर भी है।
कोर्ट की भाषा भी यही है और फिर मुसलमान सज्जनों का कहना यह है कि उर्दू लिपि में ज्यादा बात थोड़े स्थान में लिखी जा सकती है। यह सब ठीक है, परंतु हमारे सामने इस समय सबसे मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है।
एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परंतु यह एकदम हो नहीं सकता। उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है। यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए।
उर्दू लिपि तो सर्वांगसम्पूर्ण नहीं कहला सकती, और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी भाषा पर है। उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वे हिन्दी (भारतीय) ही क्यों न हों, ईरान के साकी और अरब की खजूरों को जा पहुंचती है।
पढ़े : राम मुहंमद आज़ाद उर्फ उधम सिंह के क्रांतिकारी कारनामे
पढ़े : भगत सिंह कहते थे, ‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष जरुरी नहीं’
साहित्य में विभिन्नता
काजी नज़रुल इस्लाम की कविता में तो धूर्जटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, परंतु हमारे पंजाबी हिन्दी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके। क्या यह दुःख की बात नहीं इसका मख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है।
उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती, तो फिर उनके रचित साहित्य से हम कहां तक भारतीय बन सकते है? केवल उर्दू पढ़ने वाले विद्यार्थी भारत के पुरातन साहित्य का ज्ञान नहीं हासिल कर सकते। यह नहीं कि उर्दू जैसी साहित्यिक भाषा में उन ग्रन्थों का अनुवाद नहीं हो सकता, परंतु उसमें ठीक वैसा ही अनुवाद हो सकता है, जैसा कि एक ईरानी को भारतीय साहित्य संबंधी ज्ञानोपार्जन के लिए आवश्यक हो।
हम अपने उपरोक्त कथन के समर्थन में केवल इतना ही कहेंगे कि जब साधारण आर्य और स्वराज्य आदि शब्दों को ‘आर्या’ और ‘स्वराजिया’ लिखा और पढ़ा जाता है तो गूढ तत्त्वज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा ही क्या?
अभी उस दिन श्री लाला हरदयाल जी एम. ए. की उर्दू पुस्तक ‘कौमें किस तरह जिन्दा रह सकती हैं?’ अनुवाद करते हुए सरकारी अनुवादक ने ऋषि नचिकेता को उर्दू में लिखा होने से नीची कुतिया समझकर ‘ए बिच आफॅ लो ओरिजिन’ अनुवाद किया था।
इसमें न तो लाला हरदयाल जी का अपराध था, न अनुवादक महोदय का। इसमें कसूर था उर्दू लिपि का और उर्दू भाषा की हिन्दी भाषा तथा साहित्य में विभिन्नता का। शेष भारत में भारतीय भाषाएं और लिपियां प्रचलित हैं। ऐसी अवस्था में पंजाब में उर्दू का प्रचार कर क्या हम भारत से एकदम अलग-थलग हो जावें? नहीं।
और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उर्दू के कट्टर पक्षपाती मुसलमान लेखकों की उर्दू में फारसी का ही आधिक्य रहता है। ‘जमींदार’ और ‘सियासत’ आदि मुसलमान समाचार पत्रों में तो अरबी का जोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता। ऐसी दशा में उसका प्रचार कैसे किया जा सकता है?
हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मज़हब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जाए जैसे कि केमाल तुर्क थे। भारतोद्धार तभी हो सकेगा। हमें भाषा आदि के प्रश्नों को मार्मिक समस्या न बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
पढ़े : भगत सिंह ने असेम्बली में फेंके पर्चे में क्या लिखा था?
पढ़े : सिराज उद् दौला की वह माफी जिससे भारत दो सौ साल गुलाम बना
अंग्रेजी पराई भाषा
इसके बाद हम हिन्दी-पंजाबी भाषाओं की समस्या पर विचार करेंगे। बहुत से आदर्शवादी सज्जन समस्त जगत को एक राष्ट्र, विश्व राष्ट्र बना हुआ देखना चाहते है। यह आदर्श बहुत सुन्दर है।
हमको भी इसी आदर्श को सामने रखना चाहिए। उस पर पूर्णतया आज व्यवहार नहीं किया जा सकता, परंतु हमारा हर एक कदम, हमारा हर एक कार्य इस संसार की समस्त जातियों, देशों तथा राष्ट्रों को एक सुदृढ़ सूत्र में बांधकर सुख वृद्धि करने के विचार से उठना चाहिए।
उससे पहले हमको अपने देश में यही आदर्श कायम करना होगा। समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और एक राष्ट्र बनाना पडेगा, परंतु समस्त एकताओं से पहले एक भाषा का होना जरूरी है, ताकि हम एक-दूसरे को भली-भांति समझ सके।
एक पंजाबी और एक मद्रासी इकट्ठे बेठकर केवल एक-दूसरे का मुंह ही न ताका करें, बल्कि एक-दूसरे के विचार तथा भाव जानने का प्रयत्न करें, परंतु यह पराई भाषा अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिन्दुस्ताँन की अपनी भाषा हिन्दी में। यह आदर्श भी पूरा होते-होते अभी कई वर्ष लगेंगें।
उसके प्रयत्न में हमें सबसे पहले साहित्यिक जागृति पैदा करनी चाहिए। केवल गिनती के कुछ-एक व्यक्तियों में नहीं, बल्कि सर्वसाधारण में। सर्वसाधारण में साहित्यिक जागति पैदा करने के लिए उनकी अपनी ही भाषा आवश्यक है।
इसी तर्क के आधार पर हम कहते हैं कि पंजाब में पंजाबी भाषा ही आपको सफल बना सकती अभी तक पंजाबी साहित्यिक भाषा नहीं बन सकी है और समस्त पंजाब की एक भाषा भी यह नहीं है।
गुरुमुखी लिपि में लिखी जाने वाली मध्य पंजाब की बोलचाल की भाषा को ही इस समय तक पंजाबी कहा जाता है। वह न तो अभी तक विशेष रूप से प्रचलित हीं हो पाई है और न ही साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ही बन पाई है। उसकी ओर पहले तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, परंतु अब जो सज्जन उस ओर ध्यान भी दे रहे हैं, उन्हें लिपि की अपूर्णता बेतरह अखरती है।
संयुक्त अक्षरों का अभाव और हलन्त न लिख सकने आदि के कारण उसमें भी ठीक-ठीक सब शब्द नहीं लिखे जा सकते, और तो और, पूर्ण शब्द भी नहीं लिखा जा सकता। यह लिपि तो उर्दू से भी अधिक अपूर्ण है और अब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्भर सर्वांगसम्पूर्ण हिन्दी लिपि विद्यमान है, फिर उसे अपनाने में हिंचक क्या?
पढ़े : ‘रोमन’ हिन्दी खिल रही है, तो ‘देवनागरी’ मर रही है
पढ़े : क्या हिन्दी को रोमन लिपि के सहारे की जरूरत हैं?
पंजाबी हिन्दी जैसी
गुरुमुखी लिपि तो हिन्दी अक्षरों का ही बिगड़ा हुआ रूप है। आरंभ में ही उसका उ का img अका img बना हुआ है और म टठ आदि तो वे ही अक्षर हैं। सब नियम मिलते हैं फिर एकदम उसे ही अपना लेने से कितना लाभ हो जाएगा?
सर्वांगसम्पूर्ण लिपि को अपनाते ही पंजाबी भाषा उन्नति करना शुरू कर देगी। और उसके प्रचार में कठिनाई ही क्या है? पंजाब की हिन्दू स्त्रियां इसी लिपि से परिचित हैं। डी. ए. वी. स्कूलों और सनातन धर्म स्कूलों में हिन्दी ही पढ़ाई जाती है। ऐसी दशा में कठिनाई ही क्यों है?
हिन्दी के पक्षपाती सज्जनों से हम कहेंगे कि निश्चय ही हिन्दी भाषा ही अन्त में समस्त भारत की एक भाषा बनेगी, परंतु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी।
हिन्दी लिपि के अपनाने से ही पंजाबी हिन्दी की-सी बन जाती है। फिर तो कोई भेद ही नहीं रहेगा और इसकी जरूरत है। इसलिए कि सर्वसाधारण को शिक्षित किया जा सके और यह अपनी भाषा के अपने साहित्य से ही हो सकता है। पंजाबी की यह कविता देखिए
ओ राहिया राहे जान्दया, सुन जा गल मेरी,
सिर ते पग तेरेबलेत दी, इहनू फूकमआतड़ाला।
और इसके मुकाबले में हिन्दी की बड़ी-बड़ी सुन्दर कविताएं कुछ प्रभाव न कर सकेगा, क्योंकि वह अभी सर्व साधारण के हृदय के ठीक भीतर अपना स्थान नही बना सकी हैं। वह अभी कुछ बहुत पराई-सी दीख पड़ती हैं। कारण कि हिन्दी का आधार संस्कृत है। पंजाब उससे कोसों दूर हो चुका है।
पंजाबी में फारसी ने अपना प्रभाव बहुत कुछ रखा है। यथा, चीज़ का जमा चीज नहोकर फारसी की तरह चीज़ा बन गया है। यह असूल अन्त तक कार्य करता दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पंजाबी के निकट होने पर भी हिन्दी अभी पंजाबी हदय से काफी दूर है। हां, पंजाबी भाषा के हिन्दी लिपि में लिखे जाने पर और उसके साहित्य बनाने के प्रयत्न में निश्चय ही वह हिन्दी के निकटतर आ जायगी।
प्राय: सभी मुख्य तकों पर तर्क किया जा चका है। अब केवल एक बात कहेंगे। बहुत-से सज्जनों का कथन है कि पंजाबी भाषा में माधुर्य, सौन्दर्य और भावुकता नहीं है। यह सरासर निराधार है। अभी उस दिन
लच्छीए जित्ये तू पानी डोलिया ओत्ये उग पये सन्दल दे बूटे
वाले गाने के माधुर्य ने कवीन्द्र रवीन्द्र तक को मोहित कर लिया और वे झट अंग्रेजी में अनुवाद करने लगे –
O lachhi, where there spilt water, where there spilt water… etc… etc….
बहुत से और उदाहरण भी दिये जा सकते हैं। निम्न वाक्य क्या किसी अन्य भाषा की कविताओं से कम है?
पिपले दे पतया वे केही खड़खड़ लायी ऐ
पत्ते झड़े पुराने हुण रुत्त नवयां दी आयी आ॥
और फिर जब पंजाबी अकेला अथवा समूह में बैठा हो तो ‘गौहर’ के यह पद जितना प्रभाव करेंगे, उतना कोई और भाषा क्या करेगी?
लाम लक्खां ते करोड़ा दे शाह बेखे
न मुसाफिरां कोई उधार देंदा,
दिने राती जिन्हां दे कूच डेरे
न उन्हीं दे थायीं कोई इतबार देंदा।
भोरे बहंदे गुला दीवाशना ते
ना सप्पा दे मुहां ते कोई प्यार देंदा
गौहर समय सलूक हन ज्यूदया दे
मोयां गियां नूं हर कोई बिसार देंदा।
और फिर जीम ज्युदिया ने क्यों मारनाऐं, जेकर नहीं तं मोया नं जिओण जोगा घर आये सवाली नूं क्यों घूरना ऐं, जेकर नहीं तू हत्यी खैर पौण जोगा मिले दिला नूं क्यों बिछोड़ना ऐं जेकर नहीं तूं बिछड़यां न मिलौण जोगा
गौहरा बदिया रख बन्द खाने, जेकर नहीं त नेकीआं कमौण जोगा।
और फिर अब तो दर्द, मस्ताना, दीवाना बड़े अच्छे-अच्छे कवि पंजाबी की कविता का भंडार बढ़ा रहे है।
ऐसी मधुर, ऐसी विमुग्धकारी भाषा तो पंजाबियों ने हीन अपनाया, यही दुःख है। अब भी नहीं अपनाते, समस्या यही है। हरेक अपनी बात के पीछे मज़हबी डंडा लिए खड़ा है। इसी अडूंगे को किस तरह दूर किया जाए यही पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या है, परंतु आशा केवल इतनी है कि सिखों में इस समय साहित्यिक जागति पैदा हो रही है। हिन्दुओं में भी है!
सभी समझदार लोग मिलकर-बैठकर निश्चय ही क्यों नहीं कर लेते! यही एक उपाय है इस समस्या के हल करने का। मज़हबी विचार से ऊपर उठकर इस प्रश्न पर गौर किया जा सकता है, वैसे ही किया जाए और फिर अमृतसर के ‘प्रेम’ जैसे पत्र की भाषा को जरा साहित्यिक बनाते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी में पंजाबी भाषा को मंजूर करा देना चाहिए।
इस तरह सब बखेड़ा तय हो जीता है। इस बखेड़े के तय होते ही पंजाब में इतना सुन्दर और ऊंचा साहित्य पैदा होगा कि यह भी भारत की उत्तम भाषाओं में गिनी जाने लगेगी।
जाते जाते :
* शकील बदायूंनी : वो मकबूल शायर जिनके लिये लोगों ने उर्दू सीखी
* राही मासूम रजा : उर्दू फरोग करने देवनागरी अपनाने के सलाहकार