दोहा जो किसी समय सूरदास, तुलसीदास, मीरा के होंठों से गुनगुना कर लोक जीवन का हिस्सा बना, हमें हिन्दी पाठ्यक्रम की किताबों में मिला। थोड़ा ऊबाऊ। थोड़ा बोझिल। लेकिन खनकती आवाज़, भली सी सूरत वाला एक शख्स, जो आधा शायर है आधा कवि, दोहों से प्यार करता है।
अमीर खुसरो के ‘जिहाल ए मिसकीन’ से लेकर कबीर के ‘हमन है इश्क़ मस्ताना’ में नये फ्लेवर, तेवर के साथ रिफ़रष वाले इस शायर का नाम है निदा फ़ाज़ली।
निदा याने आवाज़। फाज़ली बना फाज़ला से। कश्मीर का एक इलाक़ा जो उनके पुरखों का है। यह पेन नेम है। असल नाम है मुक्तदा हसन। पैदाईश-ग्वालियर, अक्टूबर 12,1938 !
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गहरी बात आसानी से
रियल नेम से पेन नेम तक के सफ़र में मां ‘साहिबा’ की ममता, बाप ‘दुआ डिबाइवी’ की शायराना मिजाज़ी शफ़क़त के साथ खुले आँगन, बड़े दालानों, ऊंचे पेड़ों, कच्चे-पक्के छप्परों, गहरे कुँओं-तालाबों, ख्वाजा की दरगाहों, कोने वाले मंदिर, मुल्क़ में कमज़ोर पड़ती अंग्रेज़ी हुकूमत, नये जन्में पाकिस्तान और गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने वाली एक खुशशक्ल हसीं का भी योगदान था। निदा जिसकी मुहब्बत में एकतरफ़ा गिरफ्तार थे।
एक दिन कालेज नोटिस बोर्ड पर उसकी मौत की खबर ने निदा को हिला कर रख दिया। स्थानीय स्तर पर एक स्थापित शायर होने के बावजूद इस रंज के लिये वे एक शे’र तक ना कह सके। हत्ता कि पूरे उर्दू साहित्य में अपने दुख के मुक़ाबिल उन्हें कुछ ना मिला। मिला तो एक सुबह किसी मंदिर के पुजारी की आवाज़ में सूरदास का भजन-
मधुबन तुम क्यौ रहत हरे
बिरह बियोग स्याम सुंदर के
ठाढ़े क्यौं ना जरे? वे ठहर गये।
निदा फ़ाजली ने भारतीय साहित्य को तरजीह देते हुए अमीर खुसरो से लेकर नज़ीर अकबराबादी तक को घोल के पी डाला। निष्कर्ष निकाला। गहरी बात सादे शब्दों में प्रभावी हो सकती है। तब महबूबा को सीधे, सरल और शायद सबसे खूबसूरत लहजे में निदा ने याद किया-
बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता
वह इक चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नहीं जाता।
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धर्म की खामियों पर चोट
निदा अल्फाज़ की दाढ़ी नहीं तराशते। ना चोटी-जनेऊ पहनाते हैं। वे नास्तिक नहीं हैं। खास आस्तिक भी नहीं। सेकुलर भारतीय नजरिया लिये दोनों धर्म की खामियों पर चोट करते हैं-
अंदर मूरत पर चढ़े, घी, पूरी, मिष्ठान
मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर मांगे दान।
घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो कुछ यूँ करें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
इस पर बवाल ही हो जाता है। स्टेज से उतरते ही टोपियाँ और कुर्ते घेर कर सवालों की बौछार करते हुए पूछते हैं, क्या वे किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा अपनी भारी और ठहरी हुई आवाज़ में जवाब देते हैं, मैं समझता हूं मस्जिद को इन्सान के हाथ बनाते हैं। बच्चे को खुद अल्लाह बनाता है।
धर्म को केंद्रत कर लिखी गज़लों में निदा अक्सर ट्रोल किये गए। बेलौसियत और एलाहदियत (detachment) की आदत से वे ट्रोलर्स को ट्रीट कर लेते हैं।
निदा सजदा नहीं करते। हम्द कहते हैं। हम्द याने ईश्वर की शान में पढ़ी जाने वाली नज़्म को उनके के अंदाज़ में देखिये –
नील गगन पर बैठे
कब तक
चांद सितारों से झांकोगे
पर्वत की ऊंची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे
आदर्शों के बंद ग्रंथों में
कब तक
आराम करोगे
मेरा छप्पर टपक रहा है
बनकर सूरज इसे सुखाओ
खाली है आटे का कनस्तर
बनकर गेंहू इसमें आओ
मां का चश्मा टूट गया है
बनकर शीशा इसे बनाओ
चुप-चुप हैं आंगन में बच्चे
बनकर गेंद इन्हें बहलाओ
शाम हुई है
चांद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ
काम बहुत है हाथ बटाओ
अल्लाह मियां
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्लाह मियां!
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मां-बाप पर मुल्क़ को तरजीह
60 के दशक में निदा के वालिदैन का पाकिस्तान चले जाने पर एक दोस्त कहता है, तुम ही क्यूँ यहां हो। साथ चले जाओ सबके।
देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट बाँटने वाले खोखले देशभक्तों पर निदा का जवाब सुनना लाज़िम होना चाहिये – ’यार इन्सान के पास कुछ चीजें बहोत सी हो सकती हैं। लेकिन मुल्क़ तो एक ही होना चाहिये। वह दो कैसे हो सकता है।’
मां-बाप पर मुल्क़ को तरजीह देने वाले निदा से बड़ा वतनपरस्त कौन हो सकता है भला! उनके लिये दिल के एक कोने में ता उम्र मुहब्बत का दिया रोशन रखने वाले निदा गज़ल की नाज़ुक नायिका से माँ को रिप्लेस करते हुए लिखते है –
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आता है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी जैसी माँ।
मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।
पिता की मौत पर लाहौर ना पहुँच पाने की कसक में मास्टरपीस नज़्म ‘फातेहा’ शायद ही किसी स्टेज पर सुने बगैर उन्हें जाने दिया गया।
गज़ल में गालिब- मीर, नज़्म में फैज़ के समकक्ष होने के बाद भी उनकी शख्सियत की शिनाख्त दोहों से की जाएगी। जहाँ ज़िन्दगी के फलसफ़े और समीकरणों के घटजोड़ में वे पूरी मज़बूती से कबीर के बगल जा खड़े होते हैं-
सीधा-सादा डाकिया
जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान।
सूफी का कौल हो या पंडित का ज्ञान
जितनी बीते आप पर
उतना ही सच जान।गीता बांचिये
या पढ़िए कुरआन
मेरा-तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान
सातों दिन भगवान के
क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक
भूखा रहे फ़क़ीर। सीता रावण राम का
करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये
तीनो का संजोग
रुकिये अभी। निदा का एक और रूप बाक़ी है। फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ का गाना ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ याद है ना। ‘सरफरोश’ की गज़ल ‘होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज़ है’ या ‘तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है’ जैसे ज़हन में गहरे बैठ गये फिल्मी गीत भी उन्हीं की क़लम से निकले।
यूँ लगता है चेहरे के जंगल बंबई में भी निदा ग्वालियर का वह चेहरा नहीं भूले जिससे अबोले इश्क़ का रिश्ता ज़िंदगी भर निभाते रहे।
यही निदा का कमाल है। वे एक ही वक़्त में अम्मा अब्बा के प्यारे बेटे होते हैं। मालती जोशी के शौहर भी। बिटिया के लिये शॉपिंग करते ‘शॉपिंग’ लिखते बाबा। पहली प्रेमिका के नक़्श को आहिस्ता से कुरेद कर ताज़ा कर लेते प्रेमी भी। पान से होंठ लाल किये, ताली मार स्टेज पर पढ़ते शायर।
समाज, धर्म, राजनीति के लूपहोल्स पर लिखते-पढ़ते, टिप्पणी करते सतर्क, जागरूक नागरिक भी। सबसे बढ़कर साहित्य अकादमी और पद्मश्री से सजे सेक्युलर भारत का प्रतिनिधित्व करते खालिस भारतीय।
जाते जाते :
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।