विश्व के राजनीतिशास्त्र का पितामह था अल फराबी

स्लाम की स्थापना के पश्चात अरब समाज में कई अहम चिंतक पैदा हुए। जिन्होंने ॲरिस्टॉटल, सॉक्रेटिस औऱ प्लुटो के तत्त्वज्ञान का अध्ययन कर मानवी समाज की प्रगती में बडा योगदान दिया। इनमें से एक नाम ‘अल फराबी’ का भी हैं। 

ल फराबी का पुरा नाम अबू नासर मुहंमद बिन अजलक इब्न तुरखान था। अल फराबी उन चंद महान तत्त्वचिंतको में था जो दुनिया ए इस्लाम ने पैदा किए थे।

वो तुर्क वंश से था, और महावर नहर के जिले फराब एक छोटेसे गांव वसीज पैदा हुआ था। जब वह पहली बार बगदाद पहुंचा तो वह युवा था।

कहते हैं, की उस समय वह अरबी भाषा से परिचित नहीं था। उउसने बहुत ही कम समय मे अरबी भाषा पर काफी प्रभुत्व हासिल किया। उसके बाद एक इसाई विद्वान अबू बशर मता बिन यूनुस का वह विद्यार्थी बन गया।

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राजकीय जीवन

इस्लामी दौर का यह समय बडे शोर और अस्थिरता का था। फराबी, अल मोहतम्मद के राज्यकाल में इसवी सन 870 में  पैदा हुआ और अल मती के राज्यकाल में इसवी सन 950 में उसका निधन हो गया। इस तरह वह दो बडे सुफीयों अबू बकर शिबली और मन्सूर हिलाज के समकालीन थें।

फराबी ने अपने जीवन में अब्बासिया खिलाफत की सामान्य स्थिती को देखा था। फराबी ने तत्त्वज्ञान, तर्कशास्त्र का अध्ययन किया, इसने मौसिकी पर भी कई किताबें लिखी, और मौसिखी के कई राग भी इसने खोज निकाले थे, कई नजमें भी लिखी थी।

इसी तरह उसने कई किताबें लिखी हुई हैं। जिसमें तर्कशास्त्र, प्लुटो के तत्त्वज्ञान रिपब्लिकका संक्षिप्तीकरण, ॲरिस्टॉटल की नैतिकता पर आधारित ग्रंथ का विश्लेषण और बहोत से दुसरे विषय पर किताबें लिखी हुई हैं। जिसमें मानवी स्वभाव, गणित के कुछ अहम प्रश्न पर इसने विस्तार से लिखा हैं।

इसके अलावा प्लुटो और ॲरिस्टॉटल पर इनसे की पुस्तिकाएं भी लिखी हुई हैं। 9वे शतक के बगदाद में यह उच्चकोटी का विद्वान था। फराबी सैफुलद्दौला के दरबार से जुडा हुआ था, सैफुद्दौला ने जब दमिश्क पर कब्जा कर लिया तो फराबी हमेशा के लिए वहीं बस गया।

उम्मया वंश के इस राज्यकर्ता के राज्य में वह अपने दोस्तों से विद्वत्तापूर्ण बहस करता। अपनी विचार और शायरी को कभी-कभी लिखकर रखता था।

कहा जाता है की वह दुनियाई समस्या सें इतना बेदखल था की, उसने उपजिविका के लिए कभी कोई अच्छा रोजगार नहीं ढुंढा। और उन चार दिरहम पर खुश रहा जो लोग उसे दिया करते थें। इसवी सन 950 में 80 बरस में वह दुनिया से रुख्सत हो गया।

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वैश्विक ज्ञान और फराबी

तत्त्वज्ञान में फराबी इतना मशहूर हो गया जितना इस्लाम का कोई और तत्त्वचिंतक नही हुआ। कहा जाता है की, इब्ने सिना जैसे विद्वान में भी ॲरिस्टॉटल की किताबों को समझने की क्षमता नहीं थी।

जब इब्न सिना ने फराबी की किताब खरीदी थी, इसकी मदद से वह ॲरिस्टोटल को समझ सका। इसीलिए सही तौर पर दावा किया जा सकता है की, फराबी उसके बाद आए अरब के तत्त्वज्ञानीयों का पितामह हैं।

इसीलिए नैसर्गिक तौर पर मुसलमान इसेमुअर्रीस ए आला’ (तत्त्वज्ञानीयों का पितामह) मानते हैं। और इसे मुसलमानमुअल्लीम ए सानी’ (दुनिया का दुसरा तत्त्वज्ञ) मानते हैं, और पहलामुअल्लीम’ (तत्त्वज्ञ) ॲरिस्टॉटल को मानते हैं। यह बात काबील ए गौर है की, उस समय कि अरब दुनिया को, ॲरिस्टॉटल के राजनीतिके तत्त्वज्ञान का ज्ञान नही था।

फराबी कि सियासी किताबें

फराबी कि ग्रंथो के जो नाम अब उपलब्ध हैं, उसमें पाच राजनितीशास्त्र पर हैं। उदाहरण के तौर परअफलातुन के नैतिकशास्त्र का सार’, ‘सियासतुल मदिना’, ‘आरा अहले मदिनतुफ्फाजिला’, ‘जवामीयुस्स सियासतऔरइश्तेमातुल मदनियाइन किताबों मेसियासतुल मदिनाऔरआरा अहले मदिनतुफ्फाजिलायह इसका महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तत्त्वज्ञान है।

यह सारी किताबें इस तरह महत्त्वपूर्ण हैं, की, इनकी अहमियत के बारे में कुफ्ती अपनीतारिख उल हिक्मामें लिखता है की, ‘इन दो किताबों का कोई जवाब नहीं।

दिलचस्प बात यह है की, इनमें सेआरा अहले मदिनतुफ्फाजिला’ (आदर्शवत शहर) मौत से कुछ दिन पहले सन 942 या 43 में लिखी गयी थी। इन दो किताबों में से एकसियासतमें उस राजनैतिक विचार का सार है जिसे फराबी दुनिया के सामने रखना चाहता था।

यह किताब इन्सान और हैवानों के फर्क से शुरु होता है। इसमें सामाजिक वर्तन की और उसकी जरुरत तथा इसके परिणाम, एक आदर्श नगर, उसकी रचना और व्यवस्था पर बहस की गयी है। जिसके नाम से ही यह स्पष्ट होता है की, इसमें एक आदर्श राज्य की व्याख्या कि गयी है। 

फराबी ने तीन प्रकार कि राज्यसंस्थाओ का चर्चा की है। उसमें फराबी सल्तनत पर आधारित राज्यसंस्था का औपनिवेशिक शासनसंस्था, समाजप्रमुखों की राज्यसंस्था का उल्लेख करता है।

इन शासनसंस्थाओं का उल्लेख करते हुए फराबी ने उसके विशेषताओं पर भी बहस की हैं। सामाजिक जीवन को समझने कि क्षमता जितनी फराबी में रही है, उतनी शायद ही किसी अन्य विद्वान में होगी।

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