अदाकारी के अजीमुश्शान बादशाह दिलीप कुमार 11 दिसम्बर को अनठानवे (98) साल के हो गए हैं। फिल्मी दुनिया में उनका ‘लेजेंड’ का मर्तबा है। वे न सिर्फ लाखों दिलों को जीतने वाले शानदार अदाकार हैं, बल्कि अपनी अदाकारी से उन्होंने दिलों को जोड़ा भी है।
फिल्में छोड़े उन्हें तीन दशक हो गए, लेकिन उनकी अदाकारी का जादू आज भी उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलता है। अपने महबूब अदाकार की उन्हें हर अदा सुहानी लगती है। दिलीप कुमार ने किसी अदाकारी के स्कूल में ट्रेनिंग नहीं ली, लेकिन अदाकारी का अपना एक ऐसा जुदा तरीका ईजाद किया, जिसे मेथड एक्टिंग कहते हैं। उनकी अदाकारी का यह अंदाज पूरे देश-दुनिया में खूब पसंद किया गया।
भारतीय सिनेमा में उनके समकालीन से लेकर मौजूदा पीढ़ी तक के नायक-महानायक उन्हें अभिनय-कला के शिखर पुरुष के तौर पर देखते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। एक दौर था, जब फिल्मों में एक्टिंग करना अच्छा नहीं माना जाता था, मगर दिलीप कुमार की शख्सियत के जादू ने अदाकारी को भी एक मो’तबर फन बना दिया। ये उनकी अदाकारी का ही करिश्मा है कि वे फिल्मी दुनिया में ट्रेजेडी किंग और शहंशाहे-जज्बात के तौर पर मशहूर हुए।
दिलीप कुमार, नेहरू पीरियड के हीरो थे। उनकी 57 फिल्मों में से 36 फिल्में ऐसी हैं, जो साल 1947 से 1964 के दरमियान बनी थीं। ‘शहीद’, ‘मेला’, ‘नया दौर’, ‘पैगाम’ ‘मुगल-ए-आजम’, ‘गंगा जमुना’ और ‘लीडर’ जैसी फिल्मों ने दिलीप कुमार को नेहरू-दौर के मसलों और नौजवानों के जज्बात का तर्जुमान बना दिया।
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एक के बाद एक सुपरहिट
दिलीप कुमार ने अपने साठ साल के फिल्मी कैरियर में बमुश्किल साठ फिल्में ही की होंगी, लेकिन इन फिल्मों में भी ज्यादातर ऐसी हैं, जिनमें उनकी अदाकारी को लोग बरसों तक याद रखेंगे। उन्हें कोई भुला नहीं पायेगा। उनकी कामयाब और बॉक्स ऑफिस पर हिट होने वाली फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है।
दिलीप कुमार का फिल्मों में अदाकारी का सिलसिला साल 1944 में आई फिल्म ‘ज्वार भाटा’ से शुरू हुआ और तीन साल के छोटे से वक्फे में उन्होंने अपनी पहली कामयाब फिल्म ‘जुगनू’ दे दी। इसके बाद का दौर, दिलीप कुमार की कामयाबी का दौर है। पूरे दो दशक तक लगातार उन्होंने फिल्म बॉक्स ऑफिस पर राज किया।
एक के बाद एक उन्होंने कई सुपर हिट फिल्में ‘मेला’, ‘शहीद’ (1948), ‘अंदाज’ (1949), ‘दीदार’ (1951), ‘आन’, ‘दाग’ (1952), ‘आजाद’, ‘उड़न खटोला’, ‘देवदास’ (1955), ‘नया दौर’ (1957), ‘मधुमति’, ‘यहूदी’ (1958), ‘पैगाम’ (1959), ‘कोहिनूर’, ‘मुगल-ए-आजम’ (1960), ‘गंगा जमुना’ (1961), ‘लीडर’ (1964), ‘दिल दिया दर्द लिया’ (1966), ‘राम और श्याम’ (1967) दीं। सातवे दशक में उनकी रफ्तार कुछ कम हुई लेकिन बीच-बीच में बतौर चरित्र अभिनेता वे फिल्मों में आते रहे।
इन फिल्मों में ‘क्रांति’ (1981), ‘शक्ति’, ‘विधाता’ (1982), ‘मशाल’ (1984), ‘कर्मा’ (1986) और ‘सौदागर’ (1991) आदि बेहद कामयाब हुईं। फिल्मों से दिलीप कुमार का सक्रिय तआल्लुक साल 1991 तक रहा। बाद में सियासी मसरुफियत और अपनी बढ़ती उम्र को मद्देनजर रखते हुए, उन्होंने फिल्मों से पूरी तरह किनारा कर लिया।
अविभाजित भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के अहम शहर पेशावर में एक पठान परिवार में 11 दिसम्बर, 1922 को जन्मे यूसुफ खान ने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वे एक दिन एक्टर दिलीप कुमार बनेंगे। क्योंकि उनका ऐसा कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था। उनके अब्बा मुहंमद सरवर खान मुंबई में क्रॉफर्ड मार्केट में फलों के थोक व्यापारी थे।
बचपन में एक फकीर ने जरूर उनके बारे में यह भविष्यवाणी की थी, “यह बच्चा बहुत मशहूर होने और गैर-मामूली ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए पैदा हुआ है।” बहरहाल उनके परिवार के पेशावर से मुंबई में शिफ्ट हो जाने के बाद यह बात आई-गई हो गई। माटुंगा के खालसा कॉलेज में दिलीप कुमार ने ग्रेजुएशन किया। कॉलेज में उनकी मुलाकात राज कपूर से हुई, जो जल्द ही अच्छी दोस्ती में बदल गई।
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अभिनय की पाठशाला
दिलीप कुमार की डैशिंग पर्सनालिटी देखकर अक्सर राज कपूर उनसे यह बात कहा करते थे, “तुसीं एक्टर बन जाओ ! तुसीं हो बड़े हैंडसम!” लेकिन दिलीप कुमार, राज कपूर की इस बात को कभी गंभीरता से नहीं लेते थे। वे सोचते, एक्टिंग ! न बाबा न यह उनके वश की बात नहीं !
राज कपूर और उनके परिवार का शुरू से ही करीबी रिश्ता था। राज के दादा बशेशरनाथ से उनके अब्बा का तआल्लुक पेशावर से ही था, जो मुंबई में भी जारी रहा। ग्रेजुएशन के बाद दिलीप कुमार एक छोटी सी नौकरी की तलाश मे थे। ताकि अपने बड़े परिवार का खर्चा उठाने में अपने अब्बा का सहारा बन सकें। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और ही मंजूर था। जो उन्हें बॉम्बे टॉकीज खींच ले गई और अदाकारा देविका रानी ने उन्हें फिल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिए हीरो चुन लिया।
परिवार के उसूलों के खिलाफ फिल्मों में काम करना यूसुफ खान के लिए नया था, देविका रानी ने उन्हें नया नाम भी दे दिया। कुमुदलाल गांगुली यानी अशोक कुमार की तर्ज पर यूसुफ खान, दिलीप कुमार हो गए। पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ ने भले ही कोई कमाल नहीं किया हो, लेकिन आगे चलकर उनकी कई बाकमाल, बेमिसाल फिल्में आईं।
बॉम्बे टॉकीज में नौकरी के दौरान उनकी मुलाकात जाने माने अभिनेता अशोक कुमार, निर्माता-निर्देशक एस. मुखर्जी, अमिय चक्रवती से हुई। जिनसे उन्होंने अदाकारी के बारे में बहुत कुछ सीखा। सीनियरों की सीख और अपने तजुर्बे से वे इस नतीजे पर पहुंचे,
“एक्टर को अपने इंस्टिंक्ट (सहज बुद्धि) को मजबूत करना चाहिए। क्योंकि असली और नकली के दोहरेपन को दिमाग से नहीं सुलझाया जा सकता। सिर्फ आपके इंस्टिंक्ट्स ही आपको स्क्रीनप्ले की भावनाओं को अपने दिलोदिमाग में उतारकर ऐसा अभिनय करने की प्रेरणा देते हैं, जो सच्चाई और विश्वसनीयता में लिपटा हुआ हो-इस जानकारी के बावजूद कि यह सब नकली है, नाटक है!”
फिल्में ही दिलीप कुमार के अभिनय की पाठशाला रहीं। जैसे-जैसे उन्होंने फिल्में की, अपने अभिनय में सुधार किया। अदाकारी में कुछ ऐसी नई भाव-भंगिमाएं ईजाद कीं कि उनके नक्शे कदम पर आज भी कई अदाकार चल रहे हैं। उनकी अदाकारी, दिलीप कुमार स्कूल के तौर पर मशहूर हो गई।
वे खुशकिस्मत रहे कि उन्हें देविका रानी, नितिन बोस, एस.यू. सन्नी, महबूब खान, के. आसिफ, रमेश सहगल, बिमल रॉय, बी. आर. चोपड़ा जैसे गुणीजनों के साथ फिल्म करने का मौका मिला। जो खुद भी बेहद प्रतिभाशाली थे। जब फिल्मों में आये, तब फिल्मों में अदाकार काफी लाउड और नाटकीय अभिनय करते थे। ‘पारसी थियेटर’ का फिल्मों पर असर बाकी था। दिलीप साहब हिन्दी सिनेमा के उन अभिनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने इस परिपाटी को तोड़ा।
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ट्रेजेडी हीरो
फिल्मों में उन्होंने बड़े ही सयंत तरीके से अपने किरदारों को निभाया। वे बड़े आहिस्तगी से अपने संवाद बोला करते थे। डायलॉग के बीच में उनकी लंबी चुप्पी, जानबूझकर चुप रह जाने की अदा दर्शकों को काफी पसंद आती थी। उन्होंने फिल्मों में जो भी किरदार निभाये, डूबकर किए। फिल्म ‘देवदास’ का गमगीन नौजवान ‘देवदास’, ‘गंगा जमुना’ का बगावती तेवर वाला ‘गंगा’, ‘नया दौर’ का जुझारू ग्रामीण शंकर, ‘मुगल-ए-आजम’ में शहजादा ‘सलीम’, ‘आदमी’ का जज्बाती नौजवान ‘राजा’ जैसे किरदार उनसे बेहतर कौन निभा सकता था।
ट्रेजेडी हीरो का रोल हो, रोमांटिक हीरो या फिर एंटी हीरो का किरदार, वे हर किरदार में जान डाल देते थे। खामोशी की आवाज और अपनी आंखों के अभिनय से उन्होंने फिल्मों में कई बार यादगार एक्टिंग की है। उनके अंदर एक्टिंग में टाइमिंग की जबर्दस्त समझ थी। यही नहीं अदाकारी में वे बेहद परफेक्शनिस्ट थे। फिल्म ‘कोहिनूर’ में ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ गाने में सितार बजाने के लिए, उन्होंने उस्ताद अब्दुल हालिम जाफर खान साहब से महीनों सितार बजाना इसलिए सीखा कि वे सितार बजाते हुए स्वाभाविक दिखें।
अदाकारी में ऐसा समर्पण बहुत कम दिखाई देता है। जब तक वे खुद अपनी अदाकारी से पूरी तरह मुतमईन न हो जाते, एक के बाद एक टेक देते चले जाते थे। ‘फुटपाथ’, ‘तराना’, ‘देवदास’, ‘मेला’ आदि फिल्मों में निराश प्रेमी से लेकर ‘आजाद’, ‘कोहिनूर’, ‘राम और श्याम’ आदि फिल्मों में उन्होंने गजब की कॉमेडी की है।
दिलीप कुमार ने जो भी फिल्में की, उसमें अपनी ओर से हमेशा यह कोशिश की इन फिल्मों में ऐसी कहानी हो, जिसमें अवाम के लिए एक बेहतर पैगाम हो। मनोरंजन के अलावा वे फिल्मों से कुछ सीखकर अपने घर जाएं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था,
“मैंने इस बात की भरपूर से कोशिश की है कि मैं एक अच्छा रोल मॉडल बनूं। मैं इस बात से पूरी तरह यकीन करता हूं कि एक कलाकार को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों की जानकारी होनी चाहिए और उसे इसके प्रति सजग होना चाहिए। उसे अपने प्रशंसकों के चरित्र-निर्माण का ध्यान रखना चाहिए। जो उसके काम और शख्सियत से प्रेरणा लेते हैं।”
उनकी कोई भी फिल्म उठाकर देख लीजिए, इनमें उनका यह उद्देश्य ओझल होता नहीं दिखाई देगा। ‘गंगा जमुना’ वह फिल्म थी, जिसमें दिलीप कुमार ने अदाकारी करने के अलावा इस फिल्म का निर्देशन और स्क्रिप्ट लिखी। अलबत्ता फिल्म में निर्देशक के तौर पर नितिन बोस का नाम था। भोजपुरी जबान के बावजूद यह फिल्म सुपर हिट साबित हुई।
कार्लोवी वैरी, चेकोस्लोवाकिया, बोस्टन और कैरो आदि अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में यह फिल्म दिखाई गई और इसे खूब पसंद किया गया। साल 1974 में आई ‘सगीना’, दिलीप कुमार की एक ऐसी फिल्म है, जो लीक से हटकर थी। इस फिल्म में निर्देशक तपन सिन्हा ने सर्वहारा मजदूर आंदोलन को दिखलाया था।
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सियासी लोग मुरीद
फिल्मी दुनिया में वे अकेले ऐसे अदाकार हैं, जिनकी अदाकारी ने अदीबों और दानिश्वरों को भी मुतास्सिर किया था। यहां तक कि सियासी लीडर भी उन्हें चाहते हैं। कौन नहीं उनकी अदाओं और अदाकारी का दीवाना था? वे जीते जी एक लेजेंड बने रहे। दिलीप कुमार की अदाकारी के दौर में उनके बारे में कई किदवंतियां प्रचलित थीं।
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने अपने एक लेख ‘फिल्मों की आबरू : दिलीप कुमार’ में उनकी अदाकारी के बारे में लिखा था, “दिलीप कुमार का अपना रंग है, जुदा लहजा है। मख्सूस (विशेष) तर्जे-अदा है। दिलीप कुमार की अदाकारी की सत्ह आलमी सत्ह की है। यूं तो दिलीप ने तरबिया (सुखान्त) अदाकारी में भी अपने जौहर दिखाये हैं, लेकिन हुज्निया और अल्मीया (दुखांत) अदाकारी में दिलीप ने एक क्लासिक का दर्जा इख्तियार कर लिया है। इस मैदान में कोई उसे छू नहीं सका।”
कृश्न चंदर की यह बात सोलह आने सही भी है। जिन लोगों का दिलीप कुमार की एक्टिंग से जरा सा भी तआरुफ है, वे उनकी इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखते हैं। नज्म निगार और ड्रामानिगार नियाज हैदर भी उनकी अदाकारी के दीवाने थे।
अपने लेख ‘फिल्मी सल्तनत का मुगले-आजम’ में अदाकारी के फन की तारीफ करते हुए उन्होंने लिखा था, “दिलीप कुमार की किरदार निगारी ने नई नस्ल के लिए एक बड़ा वरसा (धरोहर) जमा कर दिया है। दिलीप कुमार की अदाकारी एक मक्तब (स्कूल) है, जिससे नई नस्ल के अदाकारों को हमेशा फैज पहुंचता रहा है और आइन्दा भी वह मुस्तफीद (लाभान्वित) होते रहेंगे।”
औरों को छोड़ दें, देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू खुद, दिलीप कुमार की अदाकारी के बड़े मुरीद थे। वहीं दिलीप कुमार की नजरों में भी नेहरू के लिए बहुत एहतराम था। वे उनकी बहुत इज्जत किया करते थे। पं. नेहरू के विचारों से वे बेहद मुतास्सिर थे। नेहरू के एक इशारे पर वे उनके साथ खड़े हो जाते थे। साल 1962 के लोकसभा चुनाव में जब नेहरू ने उनसे वी. के. कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार के लिए कहा, तो वे इंकार नहीं कर सके।
दिलीप कुमार की धुआंधार चुनावी सभाओं का नतीजा था कि वी. के. कृष्ण मेनन ने जे. बी. कृपलानी को चुनाव में मात दे दी। इसके बाद वे कांग्रेस पाटी से आगे भी जुड़े रहे। उनके लिए सियासत में हिस्सेदारी का मतलब इन्सानियत और अवाम की खिदमत था और उन्हें यह बेहद पसंद था।
जब भी देश में भूकंप, बाढ़ या अकाल जैसी आपदाएं आती, तो वे उसके लिए सरकारी राहत कोष के लिए चंदा इकट्ठा करने की मुहिम में लग जाते। लेकिन सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे। रजनी पटेल और शरद पवार जो उनके अच्छे दोस्त थे, के इसरार पर उन्होंने मुंबई का शेरिफ बनना मंजूर किया।
आगे चलकर वे महाराष्ट्र से राज्यसभा के मेंबर भी चुने गए। राज्यसभा मेंबर के तौर पर उन्होंने मुंबई में काफी काम किया। स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी कामों को पूरा कराने के लिए हमेशा पेश-पेश रहे। वे नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन के कई सालों तक अध्यक्ष रहे और इसके लिए हर साल चंदा इकट्ठा करते थे। ताकि दिव्यांगजनों को मदद हो सके।
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स्टारडम से गरिबों की मदद
अदाकारी के अलावा दिलीप कुमार के जो शौक रहे हैं, उनसे मालूम चलता है कि उनका ज़ौक कितना अच्छा था। मिसाल के तौर पर उन्हें बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक रहा है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी अदब की खूब किताबें उन्होंने पढ़ी हैं। यूजीन ओ नील, फ्योदोर दास्तोव्यस्की और टेनिसन विलियम्स उनके पसंदीदा लेखक रहे हैं। वहीं उम्दा शायरी, क्लासिकल म्यूजिक, डांस आदि में भी उनकी दिलचस्पी रही है।
अपने फन को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने कई जबानें सीखीं। चाहे अपनी अदाकारी हो या फिर उनका सार्वजनिक जीवन उन्होंने हमेशा भारतीय जीवन मूल्यों, बहुलतावादी चरित्र की देश-दुनिया में नुमाइंदगी की। धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद में उनका गहरा यकीन है। दुनिया भर के सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और नस्लों को वे एहतराम की नजर से देखते हैं। कभी किसी में उन्होंने भेद नहीं किया।
फिल्मी दुनिया में दिलीप कुमार पहले ऐसे अदाकार हैं, जिन्होंने अपने समकालीनों और बाद की पीढ़ी के अदाकारों को यह राह दिखलाई कि अपने स्टारडम का इस्तेमाल, राष्ट्रीय संकट के दौर में सरकार के राहत कोष के लिए चंदा इकट्ठा करना कोई गलत काम नहीं।
यह उनकी सामाजिक जिम्मेदारी है। जिस समाज ने उनको बहुत कुछ दिया, उन्हें ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया, मौका आने पर उसको कुछ लौटाने का। जब भी देश को जरूरत पड़ी, उन्होंने जुलूसों, बेनिफिट मैचों और शो के जरिए चंदा इकट्ठा किया। मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री के लिए फिल्म सिटी और नेहरू सेंटर उन्हीं की कोशिशों से मुमकिन हुआ।
निशान-ए-इम्तियाज
फिल्मों में अदाकारी और समाजी, सियासी खिदमत के लिये दिलीप कुमार कई पुरस्कार-सम्मान से नवाजे गए। उन्हें फिल्म ‘दाग’ (1953), ‘आजाद’ (1955), ‘देवदास’ (1956), ‘नया दौर’ (1957), ‘कोहिनूर’ (1960), ‘लीडर’ (1964), ‘राम और श्याम’ (1967) और ‘शक्ति’ (1982) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का आठ बार फिल्मफेयर अवार्ड मिला। साल 1995 में वे ‘दादासाहेब फालके सम्मान’, साल 1997 में ‘एन. टी. रामाराव पुरस्कार’, साल 1998 में रामनाथ गोयंका पुरस्कार और साल 2000 में ‘राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार’ से सम्मानित किये गए।
भारत सरकार के बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मभूषण’ और ‘पद्म विभूषण’ के अलावा साल 1998 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से सम्मानित किया। जब इस सम्मान का एलान हुआ, तो शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने यह फतवा जारी कर दिया कि दिलीप कुमार को यह सम्मान नहीं लेना चाहिए।
यहां तक कि उनकी वतनपरस्ती पर भी सवाल उठाए गए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर दिलीप कुमार ने यह पुरस्कार स्वीकार किया। सच बात तो यह है कि भारतीय सिनेमा, राजनीति और समाज सेवा के क्षेत्र में दिलीप कुमार के जो बेमिसाल काम हैं, कोई भी पुरस्कार-सम्मान उनके लिए छोटा है। उनके नाम के आगे लगकर, कोई भी पुरस्कार-सम्मान बड़ा मर्तबा पाता है।
दिलीप कुमार जैसी शख्सियत सदियों में एक बार पैदा होती हैं। अल्लामा इकबाल का यह शाहकार शे’र, शायद उन जैसी आला शख्सियतों के लिए ही लिखा गया है,
“हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदा-वर पैदा”
जाते जाते :
* जब तक फिल्में हैं उर्दू जुबान जिन्दा रहेंगी
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।