जब भी यूनिफार्म सिविल कोड को लागू करने की बात होती हैं तो मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता हैं और मुजरिम के कटघरे में खड़ा कर दिया जाता हैं। मगर यहाँ दो अहम सवाल हैं कि आखिर आज मुसलमानों की यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में जो भूमिका हैं उस के लिए कौन से फॅक्टर्स ज़िम्मेदार हैं?
दूसरा सवाल यह कि क्या कोई भी सरकार यूनिफार्म सिविल कोड को ले कर ईमानदार रही हैं? क्या हर समुदाय यूनिफार्म सिविल कोड के लिए तैयार हैं?
इसी प्रकार यूनिफार्म सिविल कोड को ले कर कुछ गलत फहमिया भी भारत में पाई जाती हैं। जब भी यूनिफार्म सिविल कोड पर बहस होती हैं तो ज़्यादा तर बहसें हाथापाई से शुरू हो कर हमरी-तुमरी पर ही समाप्त हो जाती हैं। इसे हमें व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी देखना पड़ेगा तथा यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने कि राह में कौन सी चुनौतीया हैं? इस पर भी विचार करना पड़ेगा।
सवाल उठता है कि मुसलमानों ने समान नागरिक संहिता के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाई? यह भी पूछा जाना चाहिए कि नीति निर्देशक तत्वों में शामिल यूनिफार्म सिविल कोड पर संसद में क़ानून बनाने की पहल क्यों नहीं की गई?
अधिकांश समय सत्ता में रहने वाली धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस ने क्या मुसलमान मर्दों और मौलवियों का तुष्टिकरण करने के लिए ऐसा किया?
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सांप्रदायिकता का उन्माद
दरअसल, यूनिफार्म सिविल कोड पर क़ानून नहीं बन पाने या पहल नहीं होने की एक दूसरी वजह है। 1960 के दशक से उत्तर भारत में होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने मुसलमानों को आत्मरक्षा में अधिक संकीर्ण बना दिया। 1980 के दशक में शुरू हुई राम मंदिर की राजनीति के कारण पूरे देश में फैल गया। 1992 में दक्षिणपंथियों द्वारा बाबरी मस्जिद तबाह की गई। 2002 में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार किया गया।
ऐसे हालातों में मुस्लिम समाज आधुनिक मूल्यों और राजनीतिक नेतृत्व से ज़्यादा धार्मिक गुरुओं और मज़हब की सरहदों में सिमटता चला गया। इस मुद्दे को मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ प्रचारित किया जाता है। लेकिन ईसाई प्रतिनिधि भी यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध करते रहे हैं। पारसी समुदाय संख्या में ज़रूर छोटा है लेकिन आर्थिक और शैक्षिक रूप से बहुत समृद्ध है।
क्या यूनिफार्म सिविल कोड पर ईसाई और पारसी समुदाय से कोई राय-मशविरा किया जाएगा? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि समान नागरी संहिता में क़ानूनों की समानता का आधार क्या होगा? क्या यह बहुसंख्यक समाज यानी हिन्दू धर्म की मान्यताओं के आधार पर होगा? जैसा कि ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की आशंका है?
अथवा यूनिफार्म सिविल कोड आधुनिक और पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर होगा? क्या मोदी सरकार, नेहरू-अम्बेडकर के सपनों का यूनिफार्म सिविल कोड लाएँगे? दरअसल, मोदी सरकार का यूनिफार्म सिविल कोड हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि हिन्दुत्व के मानकों पर आधारित होगा। तब अल्पसंख्यकों की आशंका को निर्मूलन कैसे किया जा सकता है?
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गलत दावे
इस संदर्भ में भारत में तीन बातें मुख्य रूप से कही जाती हैं। (1) यूनिफार्म सिविल कोड से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा। (2) जब यूरोप और अन्य देशों में यूनिफार्म सिविल कोड हो सकता हैं तो भारत में क्यों नहीं? (3) भारत एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र हैं और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक कानूनों की कोई गुंजाइश नहीं।
मेरी नज़र में यह तीन बातों की अहमियत गलत फहमी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। आइये बारी बारी इन तीनों बातों का जायज़ा लेते हैं।
कानून से राष्ट्रीय एकता स्थापित नहीं होती बल्की एकता स्थापित होती हैं सहिष्णुता और एक दूसरे के निजी मामलों में हस्तक्षेप ना करने से। पहला और दूसरा विश्वयुद्ध मुख्य रूप से जिन देशों के बीच हुए उन के धर्म, संस्कृतियां, कानून और जीवन पद्धतीयाँ समान थी।
इतनी समानताए होने के बावजूद यह समानताए उन में युद्ध रोकने और एकता की भावना को बढ़ावा देने में असफल हुई। इस के इलावा अगर हम मुस्लिम राष्ट्रों की बात करें तो ईरान-ईराक में लंबे समय तक युद्ध का उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं।
इस के इलावा सीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि देशों में उन देशों में बसने वाले विभिन्न गुटों में आए दिन खुनी झड़पों की खबरे आती रहती हैं। जबकि उन के धर्म, संस्कृती, कानून आदि सब समान हैं। फिर क्या वजह हैं कि इतनी समानताए होने के बावजूद यह समानताए उन्हें एक सूत्र में नहीं बाँध पाई?
उन में यह समानताए राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में असफल हुई? अगर हम भारत की बात करें तो यहाँ भी समान धर्म, संस्कृति, धार्मिक मान्यताओं और जीवन पद्धती वाले राजाओं में युद्ध का लंबा इतिहास मौजूद हैं। यह तो थी इतिहास की बात।
अगर हम भारत के परिदृश्य में व्यावहारिक दृष्टी से देखे तो राष्ट्रीय एकता को खतरा विभिन्न पर्सनल लॉ से नहीं बल्की सांप्रदायिक विचारधारा और झूठी खबरों के प्रचार आदि से हैं, क्योंकि आज भारत में दंगे इसलिए नहीं होते कि विभिन्न धर्म अनुयायियों के लिए विभिन्न पर्सनल लॉ हैं बल्की सांप्रदायिक विचारधारा रखने वाले लोगों के द्वारा झूठी खबरों के प्रचार से होते हैं।
यह दंगे भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा तथा बड़ी चुनौती हैं। एकता इस बात से स्थापित होगी कि हर गुट को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी और अपनी संस्कृति को परवान चढ़ाने का मौका दिया जाए। इस से हर गुट संतुष्ट होगा। हर गुट महसूस करेगा कि वह इस देश में बराबर का हिस्सेदार हैं, इस से देशप्रेम की भावना को बढ़ावा मिलेगा
इस से भाईचारे का माहौल होगा और इसी से राष्ट्रीय एकता स्थापित होगी। भारत की खूबसूरती और विशेषता अनेकता में एकता में हैं और यहीं हमारी पहचान हैं।
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अव्यवहारिक तर्क
यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में भारत के लिए यूरोप और अन्य देशों का जो उदाहरण दिया जाता हैं वह भी अव्यवहारिक हैं। भारत इतना विस्तृत देश हैं कि पूरा यूरोप इस में समा जाए और भारत की जनसँख्या इतनी ज़्यादा हैं कि पूरा यूरोप भी इस की बराबरी नहीं कर सकता।
अगर इस मामले में हमें किसी दूसरे देश को आदर्श बनाना ही हैं तो अमेरिका को बनाना चाहिए, जो विश्व का दूसरा सब से बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं और भारत की ही तरह बहुल सांस्कृतिक भी। अमेरिका के हर राज्य में अलग अलग कानून लागू हैं।
अगर किसी ऐसे राज्य का नागरिक जहाँ दूसरी शादी की इजाज़त नहीं हैं मगर वह दूसरे किसी ऐसे राज्य में जा कर शादी कर सकता हैं, जहाँ पाबंदी नहीं हैं। इसलिए भारत जैसे देश के लिए सही कदम यहीं होगा कि अनेकता में एकता को बरकरार रखा जाए।
दूसरा पहलू यह हैं कि पूर्व और पश्चिम के देशों में एक बुनियादी फर्क हैं। पश्चिमी देशों के लोगों का अपने धर्म से उतना गहरा और जज़बाती रिश्ता नहीं हैं जितना पूर्व के देशों का हैं। पश्चिमी देशों में एक दो धार्मिक त्योहारों के सिवा धर्म से रिश्ता बाकी नहीं रहा, जनगणना के समय पारिवारिक रिवायत के तहत अपने धर्म का नाम दर्ज करवा दिया जाता हैं।
यहीं कारण हैं कि उन देशों में धार्मिक कानून रद्द कर दिए जाने पर भी सरकार को शदीद प्रतिक्रिया का सामना नहीं करना पड़ता और ना लॉ एंड आर्डर की समस्या का सामना करना पड़ता हैं। जबकि भारत के हालात पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग हैं।
यहां बसने वाले लोगों का अपने धर्म से गहरा जज़बाती रिश्ता हैं। जब भी पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ की गई तो सरकारों को शदीद प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा। इस के दो मुख्य उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं। पहला उदाहरण हैं जब हिन्दू कोड बिल को प्रस्तुत किया गया उस के बाद के अनियंत्रित हालातों का और दूसरा उदाहरण हैं शाह बानो केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के हालातों का।
यूनिफार्म सिविल कोड के पक्ष में एक बात यह भी कही जाती हैं कि भारत एक सेक्युलर देश हैं और इस देश में किसी भी धार्मिक कानून या पर्सनल लॉ की कोई गुंजाइश नहीं। यह भी महज़ एक गलत फहमी हैं क्योंकि सेक्युलरिज़्म का कोई एक अर्थ निश्चित नहीं हैं, बल्की विभिन्न देशों में वहा के हालात के हिसाब से अर्थ निश्चित किया गया हैं।
धर्मनिरपेक्षता का एक अर्थ वह हैं जो फ्रांस ने अपनाया हैं। जिस की आधारशीला ही धर्म का विरोध हैं। जो चाहता हैं कि सार्वजनिक जीवन में कोई धार्मिक पहचान बाकी ना रहे तो बेहतर हैं। जो इस बात को पसंद नहीं करता कि, इंसान अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में धर्म की किसी हिदायत का पालन करें।
दूसरा अर्थ यह हैं कि, सरकार का कोई धर्म नहीं होगा और ना ही सरकार किसी धर्म विशेष की पुश्त पनाही करेगी। ना किसी धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार करेगी। मगर देश के हर नागरिक को धर्म का पालन की आज़ादी होगी। अधिकांश यूरोपीय देशों और भारत ने इसी अर्थ में धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारा हैं। इसलिए यह तीसरी बात भी अव्यवहारिक और गलत फहमी से अधिक कुछ भी नहीं।
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चुनौतियां
स्वतंत्रता के बाद से संसद द्वारा अधिनियमित सभी केंद्रीय पारिवारिक कानूनों में प्रारंभिक खंड में यह घोषणा की गई है कि वे ‘जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू होंगे।’ इन सभी अधिनियमों में 1968 में एक दूसरा अपवाद जोड़ा गया था, जिस के मुताबिक ‘अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी पर लागू नहीं होगा।’
एक तीसरे अपवाद के मुताबिक, इन अधिनियमों में से कोई भी गोवा और दमन एवं दीव में लागू नहीं होगा। नागालैंड और मिज़ोरम से संबंधित एक चौथा अपवाद, संविधान के अनुच्छेद ‘371A’ और ‘371G’ में शामिल किया गया है, जिसके मुताबिक कोई भी संसदीय कानून इन राज्यों के प्रथागत कानूनों और धर्म-आधारित प्रणाली का स्थान नहीं लेगा।
समान नागरी संहिता का मुद्दा किसी सामाजिक या व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दे से हटकर एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से राजनीतिक तुष्टिकरण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं।
हिन्दू या किसी और धर्म के मामलों में बदलाव उस धर्म के बहुसंख्यक समर्थन के बगैर नहीं किया गया है, इसलिये राजनीतिक तथा न्यायिक प्रक्रियाओं के साथ ही धार्मिक समूहों के स्तर पर मानसिक बदलाव का प्रयास किया जाना आवश्यक है, जो कि कभी नहीं किया गया।
संस्कृति की विशेषता को भी वरीयता दी जानी चाहिये क्योंकि समाज में किसी धर्म के असंतुष्ट होने से अशांति की स्थिति बन सकती है।
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया था। विधि आयोग ने कहा था कि, समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। 2019 में इसी विभाग नें घोषित रुप से कहा था की, भारत जैसे देशो में समान नागरी संहिता लागू करने की कोई जरुरत नही हैं।
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।