एमएफ हुसैन के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर मकबूल फिदा हुसैन ऐसे मुसव्विर हुए हैं, जिनकी मुसव्विरी के फ़न के चर्चे आज भी आम हैं। दुनिया से रुखसत हुए उन्हें एक दहाई होने को आई, मगर उनकी यादें अभी भी जिंदा हैं।
चित्रकला के तो वे जैसे पर्याय ही थे। भारतीय आधुनिक चित्रकला को न सिर्फ उन्होंने आम अवाम तक पहुंचाया, बल्कि मुल्क की सरहदों के पार भी ले गए। वे देश के ऐसे पहले चित्रकार थे, जिनकी पेंटिंग्स दुनिया के नामी नीलामघरों में ऊंची कीमतों पर बिकती थीं।
बोनहाम नीलामी में उनका शीर्षक रहित एक तैल चित्र तकरीबन सवा करोड़ रुपए में बिका था। जिसमें उन्होंने अपने मनपसंद सिंबल घोड़ा और लालटेन को ही बुनियाद बनाया था। यह सिंबल तो जैसे उनकी पहचान थे। घोड़ों की पेंटिंग्स देखकर, लोगों के तसव्वुर में एमएफ हुसैन का ही अक्स झलकता है।
मुसव्विरी के उनके इस आला फन की एक और खासियत, हमारे मुल्क की सदियों पुरानी तहजीब के मिथकीय किरदारों को एक जु़दा अंदाज में पेश करना था। मुस्लिम होकर भी उन्होंने हिंदू धर्म और उसके देवी-देवताओं को अलग-अलग आयामों से चित्रित किया। उन्हें भारतीय संस्कृति की गहरी समझ थी।
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हमेशा रही माँ की तलाश
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की उन्होंने जो चित्रमालाएं बनाईं, वे लाज़वाब हैं। यह चित्रांकन और व्याख्या उन्होंने आधुनिक मुहावरे और नज़रिए से की। हुसैन द्वारा बनाए गए मदर टेरेसा, माधुरी दीक्षित और मराठी स्त्रियों की पेंटिग्स यदि देखें, तो मालूम चलता है कि उनके दिल में महिलाओं के लिए क्या मर्तबा और इज्जत थी।
औरत की ताकत को उन्होंने बड़े ही उद्दाम तरीके से चित्रित किया है। एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया कि “आप माधुरी दीक्षित के इतने दीवाने क्यों हैं ?”
इस सवाल का एमएफ हुसैन ने जो जवाब दिया, वह औरत के जानिब उनकी हकीकी सोच को दिखलाता है,
“मेरी वालिदा बचपन में ही दुनिया छोड़ गईं थीं। मुझे ठीक से उनकी शक्ल भी याद नहीं। हां, कुछ तस्वीरें थीं उनकी जिन्हें देखा था। माधुरी को देखता हूं, तो सोचता हूं कि मेरी वालिदा भी इस उम्र मे इतनी ही ख़ूबसूरत रही होंगी। जिन्दगी भर मैं मदर टेरेसा, दुर्गा, सरस्वती और दुनिया की तमाम औरतों में अपनी वालिदा को ही ढूँढता रहा।”
‘जमीन’, ‘बिटवीन स्पाइडर एंड द लैंप’, ‘मराठी विमेन’, ‘मदर एंड चाइल्ड’, ‘श्वेतांबरी’, ‘थ्योरामा’, ‘द हार्स दैट रेड’, ‘सेकेंड एक्ट’ जैसी शानदार कला कृतियां उनके कूची से निकलीं। एमएफ हुसैन के कैनवस का दायरा जितना विशाल था, उतनी ही उनमें एनर्जी थी। सत्यजीत राय की फिल्मों से लेकर ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म तक पर उन्होंने अपनी पेंटिग्स बनाईं थीं।
गालिब, इकबाल, फैज, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र जैसे अदीबों के उन्होंने चित्र बनाए, तो अमिताभ बच्चन, सचिन तेंडुलकर की शख्सियत को भी रेखांकित किया। राज्यसभा के मेंबर रहते हुए संसद में बैठे-बैठे उन्होंने कई रेखांकन और नेताओं के कैरिकेचर बनाए। जो एक किताब ‘संसद उपनिषद’ में संकलित हैं। देश-विदेश में उन्होंने जितनी प्रदर्शनियां कीं, उतनी दुनिया के शायद ही किसी दूसरे कलाकार ने की होंगी।
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और हुए मुतासिर
महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितम्बर, 1915 को जन्मे मकबूल फिदा हुसैन की मुसव्विरी की शुरुआत मुंबई में फिल्मों के पोस्टर बनाने से हुई। दीगर चित्रकारों की तरह वे भी पहले यथार्थवादी शैली में चित्रण किया करते थे। आरा, सूजा, रजा, राइबा और गाडे के साथ मुंबई के प्रोग्रसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप से जुड़े, तब उन्होंने यथार्थवादी शैली छोड़कर ‘अभिव्यंजनावाद’ (Expressionist) अपना लिया।
अभिव्यंजनावादी चित्रों की श्रंखला चल ही रही थी कि कोलकाता में यामिनी राय से मुलाकात हुई। उनके ग्रामीण और लोककला से परिपूर्ण चित्र देखे, तो खुद भी ऐसे चित्र बनाने लगे। बदरीविशाल पित्ती ने उन्हें यूरोप की यात्रा पर भेजा, तो इटली में ‘रेनेसां’ पेंटिंग्स ने उन्हें खास तौर पर मुतासिर किया।
वहां से लौटने पर उन्होंने कुछ अरसे तक ‘क्लासिकल’ शैली के चित्र बनाए। एफएफ हुसैन एक हरफनमौला कलाकर थे। मुसव्विरी के अलावा उन्होंने कविता, आर्टिकल लिखे, फिल्में बनाईं। अपनी आत्मकथा ‘अपनी कहानी : हुसैन की जुबानी’ लिखी। यानी जहां भी उन्हें मौका मिला, अपने आप को व्याख्यायित किया।
अपने फन के जरिए लोगों को तालीम दी। आधुनिक चित्रकला में ऊंचा नाम कमाने वाले इस बेमिसाल फ़नकार ने कभी दिखावे की जिन्दगी नहीं जी। उनकी जिन्दगी में दोहरापन नहीं था। जो उन्हें पसंद था, वही काम किया। एक बार उन्होंने जो जूते-चप्पल छोड़े, तो हमेशा नंगे पैर ही चले। कंधे तक लटकते लंबे सफेद बाल, दाढ़ी और हाथ में कूची उनकी स्थायी पहचान थी।
समाजवादी लीडर राममनोहर लोहिया से एमएफ हुसैन की अच्छी दोस्ती थी। एक मर्तबा आपसी बातचीत में लोहिया ने हुसैन को राय दी, “यह जो तुम बिड़ला और टाटा के ड्राइंगरूम में लटकने वाली तस्वीरों के बीच घिरे हो, उनसे बाहर निकलो। रामायण को पेंट करो। इस देश की सदियों पुरानी कहानी है…. गांव-गांव इसका गूंजता गीत है, संगीत है… गांव वालों की तरह तस्वीरों के रंग घुल-मिलकर नाचते-गाते नहीं लगते?”
उस वक्त तो हुसैन ने इस बात पर अपना कोई रद्दे अमल नहीं दिया। लेकिन उनके दिल में हमेशा यह बात रही। लोहिया के निधन के बाद उनकी याद में उन्होंने एक अनूठा काम किया। हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ के संपादक बदरीविशाल पित्ती जो लोहिया और उनके दोस्त थे, उनके हैदराबाद स्थित घर मोती भवन में उन्होंने रामायण सीरीज की तकरीबन डेढ़ सौ तस्वीरें बनाईं।
बाद में हिंदू धर्म के दूसरे महाकाव्य ‘महाभारत’ से मुताल्लिक पेंटिंग्स बनाईं। एमएफ हुसैन का एक और शाहकार ‘थियोरामा’ नाम से सेरीग्राफ बनाना था। जिसमें उन्होंने विश्व के प्रमुख धर्मों वैदिक, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, ताओवाद और आखिर में मानववाद से जुड़ी परंपराओं और मुखतलिफ माध्यमों पर आधारित पेंटिग बनाईं।
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विवादों के हुए शिकार
अमूमन हुसैन ने अपनी पेंटिंग्स की व्याख्या नहीं की है, लेकिन इन सभी सेरीग्राफ में हुसैन ने अपनी टीका दी है और तस्वीर के मायने साफ किए हैं। जाहिर है इससे हुसैन का नजरिया मालूम चलता है।
चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन उस वक्त जबरन विवादों में घसीट लिये गये, जब उन्होंने भारत माता और हिन्दू देवी-देवताओं की कथित नग्न तस्वीरें बनाई। कट्टरपंथी हिदुत्ववादी संगठनों ने हिन्दू देवियों के अश्लील चित्र बनाने के इल्जाम में उन्हें अपने निशाने पर ले लिया।
उनकी आर्ट गैलरियों पर योजनाबद्ध तरीके से हमले हुये। हुसैन के खिलाफ मजहबी जज्बात को ठेस पहुंचाने के इल्जाम में मुल्क भर में आपराधिक मुकदमे दर्ज कर दिये गये। नैतिकता के कथित पहरेदार यहीं नहीं रुक गये, बल्कि उन्होंने हुसैन को जान से मारने की धमकी भी दी। जिसके चलते उन्होंने अपनी जिन्दगी के आखिरी चार साल आत्मनिर्वासन में बिताए।
मजबूरी में साल 2010 में उन्होंने आखिरकार कतर की नागरिकता मंजूर कर ली। मगर अपने मुल्क के जानिब उनकी मुहब्बत बरकरार रही।
अपने आखिरी इंटरव्यू में उन्होंने जिन्दगी के बाकी बचे दिन अपने ही मुल्क में बिताने की आरजू जताई थी। वे हमेशा कहा करते थे कि उनका दिल भारत में रहता है और निन्यानवे फीसद भारतीय उन्हें मुहब्बत करते हैं।
अपने एक दीगर इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “मेरे लिए भारत का मतलब जीवन का आनंद उठाना है। आप दुनिया में कहीं भी ऐसी खूबियां नहीं पा सकते। मैं सामान्य सी बात कहना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी कला लोगों से बात करे।”
हुसैन की मुसव्विरी के फन पर कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठन ही अकेले ख़फा नहीं थे, बल्कि उन मुस्लिम तंजीमों को भी एतराज था, जो इस्लाम मजहब को दायरों में देखते हैं। जब हुसैन की फिल्म ‘मीनाक्षी : ए टेल ऑफ थ्री सिटीज’ आई, तो उसके एक नग्मे को लेकर इन कट्टर तंजीमों ने उनकी मुखालफत की।
उन पर ईश-निंदा का इल्जाम लगाया। इस लिहाज से कहें, तो उनकी कला हमेशा कट्टरपंथियों के निशाने पर रही। एक तरफ ये हुड़दंगी ताकतें थीं, जो हर दम उन पर हमलावर रहती थीं, तो दूसरी ओर मुल्क के फन, अदब और तहजीब से जुड़ा एक बड़ा दानिश्वर तबका भी था, जो उनकी हिमायत में मजबूती से खड़ा रहा। उन्होंने हमेशा हुसैन और उनकी मुसव्विरी के फन की पैरवी की।
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हो गए देश निकाला
मुसव्विरी के अपने बेमिसाल फन के लिए मकबूल फिदा हुसैन कई एजाजों और अवार्डों से नवाजे गए। मुल्क के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ सम्मान उन्हें साल 1955 में ही मिल गया था, तो बाद में ‘पद्म भूषण’ और ‘पद्म विभूषण’ से भी सम्मानित किए गए।
साल 1986 में हुसैन राज्यसभा के लिए भी नामांकित किए गए। साल 1967 में एमएफ हुसैन ने एक मुसव्विर के नज़रिए से अपनी पहली फिल्म बनाई। इस फिल्म ने बर्लिन फिल्म समारोह में ‘गोल्डन बीयर अवार्ड’ जीता। यही नहीं उन्हें यह खास एजाज भी हासिल है, साल 1971 में साओ पाओलो आर्ट बाईनियल में वे महान चित्रकार पाबलो पिकासो के साथ विशेष आमंत्रित मेहमान थे।
हुसैन ने ‘गजगामिनी’ समेत कई फिल्मों का निर्माण व निर्देशन किया। ‘गजगामिनी’ में उन्होंने मशहूर अदाकार माधुरी दीक्षित को लिया। उनकी अनेक पेंटिंग बनाईं, जो काफी चर्चित रहीं।
मकबूल फिदा हुसैन को एक लंबी जिन्दगी मिली और इस जिन्दगी का उन्होंने जी भर के इस्तेमाल किया। नब्बे पार की उम्र में भी वे अपने मुसव्विरी के फन में मशगूल रहे।
अपने आखिरी वक्त में भी वे कई कृतियों पर एक साथ काम कर रहे थे। 9 जून, 2011 को अपने वतन से बहुत दूर लंदन में इस मायानाज मुसव्विर ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।