स्टेक होल्डर की निर्भरता पर लड़खड़ाती पत्रकारिता

त्रकारिता एक पेशेवर काम है। यह एक पेशा नहीं है। बल्कि कई पेशों को समझने और व्यक्त करने का पेशा है। इसलिए पत्रकारिता के भीतर अलग-अलग पेशों को समझने वाले रिपोर्टर और संपादक की व्यवस्था बनाई गई थी जो ध्वस्त हो चुकी है।

इस तरह की व्यवस्था समाप्त होने से पहले पाठक और दर्शक किसी मीडिया संस्थान के न्यूज़ रूम में अलग अलग लोगों से संपर्क करता था। अब बच गया है एक एंकर। जिसे देखते देखते आपने मान लिया है कि यह सर्वशक्तिमान है और यही पत्रकारिता है।

आपकी भी ट्रेनिंग ऐसी हो गई है कि किसी घटना को कोई संवाददाता कवर कर रहा है, अच्छा कवर कर रहा है लेकिन लेकिन मुझे लिखेंगे कि आपको फील्ड में जाना चाहिए। यह कमी संस्थान ने कई कारणों से पैदा की है।

कुछ चैनल के सामने वाकई में बजट की समस्या होती है लेकिन जो नंबर एक दो तीन चार हैं उन्होंने भी पैसा होते हुए इस सिस्टम को खत्म कर दिया है। पत्रकारिता दिवस पर मैं सिस्टम की कमियों पर बात करूंगा।

न्यूज़ चैनल तरह तरह के प्रोग्राम बना रहे हैं ताकि ट्विटर से टॉपिक उठाकर न्यूज़ एंकर उस पर डिबेट कर ले। अब दर्शक भी न्यूज़ की जगह डिबेट का इस्तमाल करने लगा है। कहता है कि डिबेट करा दीजिए। जबकि वह देख रहा है कि डिबेट में समस्या से संबंधित विभाग का अधिकारी नहीं है।

जैसे जब कोरोना की दूसरी लहर में नरसंहार हुआ तो आपने नहीं देखा होगा कि स्वास्थ्य विभाग के लव अग्रवाल और कोविड टास्क फोर्स के डॉ वी के पॉल किसी डिबेट में बैठे हों और सवाल का जवाब दे रहे हों। उनकी जगह सत्ताधारी राजनीतिक दल का प्रवक्ता आएगा।

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जवाबदेही कहां

विपक्ष के हर सवाल को इधर उधर से भटका जाएगा। अगर सत्ताधारी दल का प्रवक्ता किसी सवाल के जवाब में फंस भी जाता है तो इससे आपका मनोरंजन होता है। सरकार और भीतर काम करने वाले लोग जवाबदेही से बच जाते हैं। एंकर को बस इतना करना होता है कि टॉपिक का एंगल तय करना होता है। अब तो तय भी नहीं करता। कोई और तय कर देता है या ट्विटर से खोज लाता है। फिर बोलेगा पूछता है भारत। पूछता है इंडिया।

जिस तरह का सतहीपन स्टुडियो के डिबेट में होता है उसी तरह का सतहीपन एंकरों के कवरेज में होता है। अब इसे सतहीपन कहना ठीक नहीं है क्योंकि इसी को पत्रकारिता का स्वर्ण मानक कहा जाता है। अंग्रेज़ी में गोल्ड स्टैंडर्ड कहते हैं। जैसे ही कोई बड़ी घटना होती है, चुनाव होता है या उनका प्रिय नेता बनारस के दौरे पर चला जाता है, एंकरों को स्टुडियो से बाहर भेजा जाता है।

एंकर के जाते ही कवरेज़ की बारीकियां पीछे चली जाती हैं। उसका वहां होना एक और घटना बन जाती है। यानी घटना के भीतर चैनल अपने लिए घटना पैदा कर लेता है कि उसने अपना एंकर वहां भेज दिया है। एक दर्शक के नाते आप भी उस एंकर के वहां होने को महत्व देते हैं और राहत महसूस करते हैं। वैसे आप यह बात नहीं जानते, लेकिन न्यूज़ चैनल वाले यह बात ठीक से जानते हैं।

जिसे आप बड़ा एंकर कहते हैं वह केवल घटना स्थल का वर्णन कर रहा होता है। घटना स्थल के अलावा वह भीतर की जानकारी खोज कर नहीं लाता है क्योंकि उसे लाइव खड़ा होना है। नहीं भी होना है तो ज़्यादातर कमरे में ही आराम करते हैं या जानकारी जुटाने के नाम पर दिखावे भर की मेहनत करते हैं।

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सूत्र बनाम एंकर

एंकर को सावधानी भी बरतनी होती है कि सरकार की जूती का रंग उसके कुर्ते पर ख़राब न हो जाए। क्योंकि दिन भर तो वह मोदी-मोदी करता रहता है। सरकार के बचाव में तर्क गढ़ता रहता है। जैसे ही एंकर अपने घर से निकलता है, माहौल बनाने लगता है।

एयरपोर्ट की तस्वीर ट्वीट करेगा। वहां पहुंच कर एक फोटो ट्वीट करेगा। नाश्ता खाना का फोटो ट्विट करेगा। जहां तीन घंटे से खड़े हैं वहां का फोटो ट्विट कर दिया जाएगा ताकि आप घटनास्थल पर मरने वालों के साथ साथ तीन घंटे से खड़े रिपोर्टर के दर्द को ज़्यादा महसूस कर सकें।

चैनल भी तुरंत प्रोमो बनाकर ट्वीट कर देगा। यह लिखते हुए गुज़ारिश है कि एक दर्शक के नाते आप हमेशा यह देखें कि आप क्या देख रहे हैं, क्या कोई अतिरिक्त जानकारी या समझ मिल रही है या केवल आप किसी के किसी जगह पर होने को ही देख रहे हैं और उसे ही पत्रकारिता समझ रहे हैं।

जबकि रिपोर्टर की प्रवृत्ति दूसरी होती है। वह ख़बर खोजता है। अपनी जानकारी को लेकर दूसरे रिपोर्टर से होड़ करता है। एंकर केवल अपने वाक्यों को एंगल देता है। प्रभावशाली बनाता है। रिपोर्टर सूचना से अपनी रिपोर्टिंग को प्रभावशाली बनाएगा।

घटना स्थल के वर्णन के अलावा कुछ गुप्त जानकारियां उसमें जोड़ेगा। सूत्र भी रिपोर्टर को बताना सही समझते हैं क्योंकि वह रिपोर्टर को लंबे समय से जानता है। पता है कि रिपोर्टर उसकी सूचना को किस तरह से पेश करेगा ताकि उस पर आंच न आए। सूत्र को एंकर पर कम भरोसा है। वह एंकर से दोस्ती करेगा मगर ख़बर नहीं देगा।

रिपोर्टरों की फौज ग़ायब होने से सूचनाओं का सिस्टम ख़त्म हो गया है। सिस्टम के भीतर के सूत्रों को पता है कि यहां मामला ख़त्म है। भरोसा करने का मतलब है सौ समस्याएं मोल लेना। एंकर और रिपोर्टर की भाषा अलग होती है। रिपोर्टर इस तरह से सूचना को पेश करेगा कि बात भी हो जाए और बात बताने वाला भी मुक्त हो जाए। साथ ही सूचनाओं के लेन-देन की व्यवस्था भी बनी रहे।

सबको पता है कि गोदी मीडिया के एंकर सरकार की गोद में हैं। उनका उठना-बैठना सरकार के लोगों के बीच ज़्यादा है। दिन भर ट्विटर पर सरकार का प्रचार करते देख रहा है तो वह भरोसा नहीं करेगा। क्या पता उसक ऑफ-रिकार्ड की जानकारी एंकर नेता को ऑफ-रिकार्ड बता दे और बाद में नेता उस अधिकारी की हालत ख़राब कर दे।

सूत्र पत्रकार से बात करना चाहेगा। दलाल से नहीं। नौकरशाही के पास धंधे के लिए अपने दलाल होते हैं तो वह एक और दलाल से फ्री में क्यों डील करे। है कि नहीं।

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अपवाद वाले पत्रकार

पत्रकारिता ख़त्म हो चुकी है। आप अगर इस बात को अपवाद के नाम से नकारना चाहते हैं तो बेशक ऐसा कर सकते हैं।

यह बात भी सही है कि कुछ लोग पत्रकारिता कर रहे हैं। काफी अच्छी कर रहे हैं लेकिन आप अपनी जेब से तो पूरे अखबार की कीमत देते हैं न। उस अपवाद वाले पत्रकार को तो अलग से नहीं देते।

लौटते हैं विषय पर। रिपोर्टर नहीं है। एंकर ही एंकर है। हर विषय पर बहस करता हुआ एंकर। जो विशेषज्ञ पहले रिपोर्टर से आराम से बात करता था अब सीधे एंकर के डिबेट में आता है। विशेषज्ञ को पांच मिनट का समय मिलता है जो बोला सो बोला वह भी दिखने से संतुष्ट हो जाता है।

उसे पता है कि रिपोर्टर बात करता था तो समय लेकर बात करता था लेकिन एंकर के पास हापडिप’(फोकसबाज़ी) के अलावा किसी और चीज़ के लिए टाइम नहीं होता है। विशेषज्ञ या किसी विषय के स्टेक होल्डर की निर्भरता भी उसी एंकर पर बन जाती है।

वह उसी को फोन करेगा। मुझे एक दिन में बीस विषयों के विशेषज्ञ मैसेज करते हैं और अपराध बोध से भर देते हैं कि आपको यह भी देखना चाहिए। ज़ाहिर है मैं बीस विषय नहीं कर सकता। वह तो फोन कर फिल्म देखने लगता है लेकिन मैं न कर पाने के अपराध बोध में डूबा रहता हूं। यही चीज़ पाठक और दर्शक के साथ होती है।

मुझे बैंक डकैती से लेकर ज़मीन कब्ज़ा, हत्या, बिजली-पानी की समस्या और न जाने कितनी समस्याओं के लिए लिखित संदेश आते हैं। मोहल्ले में तीन दिन से बिजली नहीं है तो रवीश कुमार को अपनी पत्रकारिता साबित करनी है और गुंडों ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया तो रवीश को अपनी पत्रकारिता साबित करनी होती है।

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दुखद दास्तानों पर नजर

दिन भर में इस तरह से सैंकड़ों मैसेज आते हैं जिसमें रवीश कुमार को साबित करने की चुनौती दी जाती है। हर समय फोन ऐसे बजता है जैसे अग्निशमन विभाग के कॉल सेंटर में बैठा हूं। यही कारण है कि कितने महीनों से फोन उठाना बंद कर चुका हूं। क्या आप दिन में एक हज़ार फोन उठा सकते हैं? मैं नरेंद्र मोदी नहीं हूं कि सिर्फ मेरे ट्वीट को रि-ट्वीट करने के लिए दस मंत्री ख़ाली बैठे हैं। मेरे पास न सचिवालय है और न बजट है।

ध्यान रहे इसमें नागरिक की ग़लती नहीं है। मुझसे आपका निराश होना जायज़ है। अपने फेसबुक पेज पर और शो में मैंने कई बार संसाधनों की कमी की बात की है। कल किसी जगह से एक महिला का फोन आया। बातचीत से लगा कि उन्हें ऐसा भ्रम है कि हर जगह हमारे संवाददाता हैं। उनके पास गाड़ी है। गाड़ी में सौ रुपये लीटर वाला पेट्रोल है। मेरे फोन करते ही वहां पहुंच जाएंगे।

संवाददाता के भेजे गए वीडियो को प्राप्त करने के लिए न्यूज़ रुम में पांच लोग इंतज़ार कर रहे हैं। उसे देखकर खबर लिखने वाले दस बीस लोगों की टीम है और फिर उसे एडिट करने के लिए वीडियो एडिटर की भरमार है। पता होना चाहिए कि इसके लिए काफी पैसे की ज़रूरत है। मुझे लगा कि समझाऊं लेकिन बहुत वक्त चला जाता।

इतना ज़रूर होता है कि ऐसे लिखित संदेश से मुझे पता चलता है कि आम लोगों के जीवन में क्या घट रहा है। उस फीडबैक का मैं अपने कार्यक्रम में इस्तमाल करता हूं लेकिन कई बार नहीं कर पाता। लोग बार बार मैसेज करते रहते हैं। लगातार फोन करते हैं। मेरे दिलो-दिमाग़ पर गहरा असर पड़ता है। मैं हर समय इन्हीं चीज़ों से जुड़ा रहता हूं। लगातार इन दुखद दास्तानों से गुज़रते हुए आप कैसे हंस सकते हैं।

एक मैसेज से निकलता हूं तो दूसरा आ जा जाता है। काम ही ऐसा है कि मैं फोन को उठाकर दूर नहीं रख सकता। यह विकल्प मेरे पास नहीं है। मैंने कई बार अपने काम का हिसाब दिया है। मैं एक शो के लिए उठते ही काम शुरू कर देता हूं। छह बजे से लेकर चार बजे तक लिखते मिटाते रहना आसान नहीं है।

पिछले ही शुक्रवार को एक पूरा शो तैयार करने के बाद बदलना पड़ा और नया शो लिखना पड़ा। एक मिनट का भी अंतर नहीं था। मेरी उंगलियां कराह रही थीं। उंगलियों के पोर में ऐसा दर्द उठा कि अगर मेरे पास पेंशन की व्यवस्था होती तो उसी वक्त यह काम छोड़ देता। बाकी एंकर इतना काम करते हैं या नहीं आप उनके कार्यक्रम को देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं।

जाते जाते :

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