भारत की मीडिया के सामने इस समय सबसे बड़ा सवाल उसकी साख, उसकी भटकती भूमिका और भाषा के गिरते स्तर को लेकर है। ऐसे में ये सवाल उठना भी लाज़मी है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया का हमारा दावा कितना सही है?
हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट और तीन-चार राज्यों के हाई कोर्ट ने मीडिया की भूमिका को लेकर जो टिप्पणियां की हैं वह चिंताजनक हैं और ये सोचने को मजबूर करती हैं की हमारा मीडिया किस ओर जा रहा है? उसकी साख कितनी बची है और वह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम क्यूँ कर रहा है?
पिछले 15 सितंबर 2020, को सुप्रीम कोर्ट ने सांप्रदायिकता फ़ैलाने और विभाजनकारी कार्यक्रम दिखाने के लिए एक टीवी चैनल ‘सुदर्शन’ द्वारा मुसलमानों के सिविल सेवा में चुने जाने को लेकर दिखाए जा रहे कार्यक्रम पर सख़्त एतराज़ जताते हुए उसके बचे हुए एपिसोड दिखाने पर रोक लगा दी।
सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “इस चैनल की ओर से किए जा रहे दावे घातक हैं और इनसे यूपीएससी की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर लांछन लग रहा है और इससे देश का नुक़सान हो रहा है।”
जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा, “एक ऐंकर आकर कहता है कि एक विशेष समुदाय यूपीएससी में घुसपैठ कर रहा है। क्या इससे ज़्यादा घातक कोई बात हो सकती है। ऐसे आरोपों से देश की स्थिरता पर असर पड़ता है और यूपीएससी परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर लांछन लगता है।”
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कार्यक्रम पर रोक
उन्होंने कहा, “हर व्यक्ति जो यूपीएससी के लिए आवेदन करता है वो समान चयन प्रक्रिया से गुज़रकर आता है और ये इशारा करना कि एक समुदाय सिविल सेवाओं में घुसपैठ करने की कोशिश कर रहा है, देश को बड़ा नुक़सान पहुँचाता है।”
इससे पहले गत 28 अगस्त को सुदर्शन टीवी के इसी कार्यक्रम पर दिल्ली हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट के न्यायाधीश नवीन चावला ने इस कार्यक्रम के प्रसारण के ख़िलाफ़ ‘स्टे ऑर्डर’ जारी किया था।
मगर 10 सितंबर को केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनल को ये कार्यक्रम प्रसारित करने की इजाज़त दे दी। हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कहा कि उन्हें सुदर्शन न्यूज़ के इस प्रोग्राम के ख़िलाफ़ कई शिकायतें मिली हैं और मंत्रालय ने न्यूज़ चैनल को नोटिस जारी कर इस पर जवाब माँगा।
मंत्रालय ने अपने आदेश में लिखा कि सुदर्शन चैनल के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाणके ने 31 अगस्त को आधिकारिक रूप से अपना जवाब दे दिया था जिसके बाद मंत्रालय ने निर्णय लिया कि अगर कार्यक्रम के कंटेंट से किसी तरह नियम-क़ानून का उल्लंघन होता है तो चैनल के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जायेगी।
मंत्रालय ने ये भी कहा था कि कार्यक्रम प्रसारित होने से पहले कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं माँगी जा सकती और ना ही उसके प्रसारण पर रोक लगायी जा सकती है।
इसके अलावा एक दूसरा मामला गत 22 अगस्त को बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच द्वारा दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में तबलिगी जमात मामले में देश और विदेश के जमातियों के खिलाफ दर्ज एक एफ.आई.आर को रद्द करते हुए जो फैसला सुनाया और मीडिया के बारे में जो टिपण्णी की है वह ग़ौर करने लायक है।
कोर्ट ने कहा कि इस मामले में तबलिगी जमात को ‘बलि का बकरा’ बनाया गया। साथ ही कोर्ट ने मीडिया के रवैय्ये को लेकर तल्ख टिप्पणी की और मीडिया को फटकार लगाते हुए कहा कि तबलिगी जमात को कोरोना वायरस संक्रमण का जिम्मेदार बताकर प्रोपेगैंडा चलाया गया।
बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्तिद्वय टी.वी. नलावड़े एवं एम.जी. शेवलीकर ने इस मामले को बढ़ा चढ़ाकर पेश करने के लिए प्रचार माध्यमों (मीडिया) को लताड़ लगाई। उन्होंने अपने 56 पृष्ठों के फैसले में कहा है कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस मामले को ऐसे पेश किया, जैसे दिल्ली मरकज में आनेवाले विदेशी ही देश में कोविड-19 संक्रमण फैलाने के लिए जिम्मेदार हों।
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भावनाओं को उभारने का सिलसिला
कुछ इसी तरह की टिप्पणियां जून-जुलाई माह में मद्रास और बंगलौर हाई कोर्ट ने तबलिग़ी जमात के गिरफ्तार लोगों को रिहा करते समय की हैं। दरअसल भारत में मीडिया के ज़रिए नफ़रत और कोरोना को धर्म से जोड़कर सांप्रदायिकता फ़ैलाने का ये सिलसिला यूँ ही शुरू नहीं हुआ है। इसके पीछे ध्रुवीकरण और बहुसंख्यकवाद की राजनीति भी एक बड़ा कारण है।
इसके लिए बड़े ही सुनियोजित तरीक़े से फ़ेक जानकारियाँ, वीडियो, टीवी चैनल्स और अख़बारों के माध्यम से फैलाए जा रहे हैं और आम लोगों तक ये धारणा पहुंचाई जा रही है कि अल्पसंख्यक ख़ासकर मुसलमान देशविरोधी-समाज विरोधी हैं और वह सरकारी संस्थाओं पर क़ब्ज़े कर रहे हैं।
इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों से भारतीय मीडिया में भावनाओं को उभारने का सिलसिला भी ज़ोर शोर से चल रहा है और दुर्भाग्य से मीडिया सवाल करना खासकर सरकार से सवाल करना बिल्कुल भूल गया है जबकि उसका ये सबसे बड़ा काम होना चाहिए। तर्क और तथ्यों की बात करना भी आज के मीडिया में बहुत ही मुश्किल काम हो गया है।
अख़बारों और टीवी चैनलों, दोनों की भाषा एकदम से बदल गई है। वह बेहद सनसनीखेज़, उत्तेजना और उन्माद से भरी हुई होती है। कई टीवी एंकरों की भाषा तो गालियों की सीमा लांघने वाली होती है नतीजे में टीवी बहस में भाग लेने वाले पत्रकार और राजनीतिक दलों के प्रवक्ता भी इस गाली गलौज वाली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाते हैं।
पिछले कुछ सालों में लाइव टीवी शोज के दौरान कई बार मारपीट की घटनाएं भी देखने को मिली हैं। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ के ही टीवी चैनल और अख़बार ही नहीं, बल्कि अँग्रेज़ी के कुछ टीवी चैनल और अख़बार भी इस घृणित अभियान में शामिल हैं और छदम राष्ट्रवाद के नाम पर देश भर में उन्माद फैला रहे हैं।
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इस क़दर क्यों गिरा स्तर?
सवाल उठता है कि आज मीडिया का स्तर इस क़दर क्यों गिर गया? इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं। मगर कुछ और कारण भी हैं जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है राजनीतिक माहौल।
सरकार, देश, सेना और देशभक्ति का आपस में ऐसा घालमेल कर दिया गया है, जिसका मतलब है कि अगर आप सरकार से सहमत नहीं हैं और सवाल कर रहे हैं तो माना जाएगा कि आप देश के ख़िलाफ़ हैं।
आपको सरकार से सहमत होना ही होगा और जो ऐसा नहीं करेगा उसे देशद्रोही घोषित कर दिया जाएगा। इस नए माहौल में ख़ौफ़ और दहशत भी शामिल है। न केवल तर्कसंगत ढंग से बात करने वालों में खौफ़ फैल चुका है बल्कि मीडिया में काम करने वाले भी डरे सहमे हुए हैं।
वे ऐसा कोई भी सवाल करने से घबराते हैं जिससे सत्ताधारी दल नाराज़ हो या उनकी देशभक्ति पर कोई सवाल खड़ा कर दे। उल्टे उनमें खुद को देशभक्त साबित करने की प्रवृत्ति और प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है।
जाते जाते :
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लेखक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी) पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक सालों का अनुभव है। वह पीआईबी, भारत सरकार और भारत की संसद द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।