मौ. शौकत अली के वजह से बने थें तुर्की खलिफा और निजाम संबंधी

मौलाना मुहंमद अली और शौकत अली जो ‘अली ब्राद्रान’ के नाम से भी मशहूर थे। यह दोनो भाई भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दो अहम किरदार हैं। गांधीजी और दुसरे नेताओं से इनका करीबी रिश्ता था। अली ब्रदर में मौलाना शौकत अली बडे भाई थे।

हैदराबाद रियासत के आखरी हुक्मरान मीर उस्मान अली खान अपने दोनो लडकों आजमजाह और मुअज्जमजाह का रिश्ता तुर्की के खलिफा के खानदान में तय कराना चाहते थे। और इन्होने अपने बडे बेटे का रिश्ता तय करने के लिए मौलाना शौकत अली के जरिए कोशिशें कि थी।

मौलाना ने उस्मान अली खान कि इच्छा और सूचना के मुताबिक इनके बडे बेटे का रिश्ता तुर्की के खलिफा सुलतान अब्दुल मजीद खान कि एकलौती सहाबजादी से करवाया था।

शौकत अली के इस खिदमत के सिलसिले में उनकी शख्सियत का खयाल करते हुए उस्मान अली खान ने मौलाना को दुसरे आलमी जंग से पहले २०० रुपये हर माह पेन्शन शुरु किया था। शौकत अली के इन्तेकाल के बाद भी इस पेन्शन की कुछ रकम इनके खानदान को अपने गुजर बसर के लिए मिलती रही।

आंध्र प्रदेश स्टेट आर्काइव्हज अँड रिसर्च इन्स्टिट्यूट के रेकॉर्ड कि छानबिन के बाद कुछ अहम तथ्य सामने आते हैं। नवाब उस्मान अली ने इस बारे में एक फर्मान १५ मार्च १९३६ को जारी किया था। जिसमें मौलाना शौकत अली को जिंदगीभर के लिए आर्थिक सहाय्यता करने देने हेतू कौन्सिल कि सलाह मांगी थी।

पढ़े : डॉ. इकबाल और सुलैमान नदवी – दो दार्शनिकों की दोस्ती

पढ़े : मुहंमद इकबाल की नजर में राष्ट्रवाद की चुनौतीयां

फर्मान –

“मौलवी शौकत अली ने सिनियर प्रिन्स के तआल्लुक से खलिफा ए तुर्की की सहाबजादी से करार देने के मुतआल्लिक, मेरी हिदायत के मुताबिक जो कुछ काबिल ए कद्र खिदमात अंजाम दी थी। इससे ग़ालिबन कॉन्सिल नावाकीफ नहीं है। और उस वक्त मौलवी साहब से मैने वादा किया था, कि वह इतमिनान कर लें जब वक्त आएगा इसका क्या सिला मिलेगा, मैं जरुर गौर करुंगा।

चुंनाचा देहली में जब यह मुझसे खानगी में मिलने आए, तो एक तरह मेरे वादे की याददहानी कि थी। दुसरी तरफ अपनी माली मुश्किलात का भी तज्कीरा किया था। इस बिना पर लिखता हूं, जबकी रियासत हैदराबाद ने महज रियायत के बिना पर कई अश्कास को माकुल वजीफे दिए हैं। तो कोई वजह नहीं है, की इस शख्स को सिले से महरुम किया जाए।

बस मुनासिब होगा कि इस तारीख से जबके बिरादारान ए वाला, बाद ए अक्द नाईस (पश्चिमी फ्रान्स) से हैदराबाद आएं तो मौलवी साहब के नाम दो सौ रुपये कुलदार (यानी जनवरी 1932 से) वजीफा ता हयात जारी किया जाए।

जो के इस वक्त इनकी बहोत इमदाद का बाईस होगा। मुझे उम्मीद है कौन्सिल को मेरी राय से पुरा इत्तेफाक होगा। मोहर्रम कि छुट्टीयाँ खत्म होने के बाद कौन्सिल अपनी राय से मुतआलिक अर्जदाश्त मेरे यहां पेश करे।’’

कौन्सिल को मीर उस्मानअली के राय से पुरी तरह इत्मिनान नहीं था। कौन्सिल ने अपनी एक मिटींग में कुछ बदलाव के साथ एक प्रस्ताव को मंजूरी दी उसके मुताबिक मौ. शौकतअली के पिछले और वर्तमान रेकॉर्ड को नजर में रखते हुए

पढ़ें : शिबली नोमानी कैसे बने ‘शम्स उल उलेमा’?

पढ़े : सर सय्यद के कट्टर आलोचक थे अल्लामा शिबली नोमानी

कौन्सिल के इस प्रस्ताव को 10 जून 1936 को मीर उस्मानअली खान के सामने रखा गया जिसमें कौन्सिल कि सूचनाएं शामील थी। इस प्रस्ताव के बाद मीर उस्मानअली खान ने कोई फर्मान जारी नहीं किया। इससे यह बात साफ होती है कि उनके राय के मुताबिक मौलाना शौकत अली के लिए दो सौ रुपये महाना आर्थिक सहाय्यता को मंजूरी दी जाए।

इसी बीच मौ. शौकत अली ने अपने अपना एक खत 14 अगस्त 1937 को सद्र आजम रियासत हैदराबाद को लिखा। जिसमें उन्होने कहा

मुझको इल्म हुआ था के आला हजरत हुजुर निजाम ने मेरी हिम्मत अफजाई और कदरदानी के लिए मेरे लिए दो सौ रुपये कुलदार का मन्सब मुकर्रर फरमाया था। और वह भी 1 जनवरी 1932 से जबके आला हजरत के हुक्म के मुताबिक मैने हिज हायनेस प्रिन्स कि शादी खलिफा सुलतान . मजिद खान की साहबजादी से करवाई थी। खुदाए बरतर ने इसमें कामयाबी अदा फरमायी थी। और मैं अपनी बडी खुशकिस्मती समझता हूं की मेरे जरिए ऐसा काम सर अंजाम पाया।

इस खत को कौन्सिल के सामने रखा गया। इस खत पर गौर करने के बाद कौन्सिल ने आर्थिक सहाय्यता को मंजुरी दे दी। इसके बाद मौ. शौकत अली हैदराबाद आए थे। तब दफ्तर पेशी के चीफ सेक्रेटरी मीर काजीम यार जंग ने उनसे पुछा की ‘‘पेन्शन कि जो बकाया रकम आपको 1932 से आपको मिलने वाली है

पढ़े : उदार और धर्मनिरपेक्ष निज़ाम जब हुए दुष्प्रचार के शिकार!

पढ़े :निज़ाम ने शुरू कि थी गोखले के नाम स्कॉलरशिप

तब मौ. शौकत अली ने काजीम यार जंग से कहा कि

‘‘यह बात निजाम मीर उस्मान अली खान कि खिदमत में पहुंचाई जाए की मैं अपना वक्त कौमी और इस्लामी खिदमत के बाद खेती और बागबानी में बिता रहा हूं। और मैंने अपने बेटे को भी इसी काम में लगाया है।

भोपाल में कुछ जमीन खरीदी है। नवाब भोपाल ने भी कुछ जमीन दी है। जिसपर मैने आम और अन्य फलों के पेड कर्ज लेकर लगवाए हैं। निजाम कि तरफ से मिलनेवाली रकम से 4 हजार का मकान खरीद कर अपनी भाभी मौ. मुहंमद अली जोहर की बेवा बीवी को देना चाहता हूं। और बाकी रकम कर्जा और खेती

इसके बाद 26 नवंबर 1938 को मौ. शौकत अली का निधन हुआ। उनके इंतकाल के बाद मौलाना के बेटे जाहीद अली ने सर अकबर हैदरी को लिखा के वह अपने पिता के मौत कि वजह से काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं।

इनके बडे खानदान के गुजरबसर कि जिम्मेदारी उनके पिता ही संभालते थे। मगर उनके निधन से कमाई के सारे जरिए खत्म हो चुके हैं। पिता निजाम हैदराबाद से मिल रही अर्थसहाय्यता से ही अपने खानदान का गुजर बसर करते और अपने नवासों के शिक्षा का खर्चा भी उठाते थे जो आजकल अलीगड में पढ रहे हैं।

इस खत में जाहीद अली ने ऐसी बिनती कि थी की जो रकम इनके पिता को हैदराबाद कि आसिफीया हुकुमत की तरफ से मिल रही थी वह अबउन्हे मिलती रहे ताकी उससे वह अपने खानदान का गुजर बसर कर सकें।

जाहीद अली का यह खत जब कौन्सिल के सामने रखा गया। तब कौन्सिलने मौ. शौकत अली कि बीवी को पेन्शन का तिसरा हिस्सा यानी 66 रुपये महाना पेन्शन के तौर पर देने को मंजूरी दी। इसके साथही निजाम मीर उस्मानअली खान ने मौलाना शौकत अली कि मरहूम बेटी के बच्चों कि शिक्षा के लिए महाना 50 रुपये अर्थ सहाय्यता को मंजूरी दी।

जाते जाते  :

* एक मामूली शौक ने बनवा दिया सालारजंग म्युजिअम

* शिक्षा की विरासत लिए खडी हैं आदिलशाही लायब्ररियाँ

Share on Facebook