परवीन शाकिर वह शायरा जो ‘खुशबू’ बनकर उर्दू अदब पर बिखर गई

पने महबूब को हवाओं में बिखरने वाली खुशबू की मिसाल देते हुए एक दफा पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर ने ‘फूल’ की समस्या का जिक्र किया था।

1994 के दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में याने 26 तारीख को यह फूल हमेशा हमेशा के लिए मुरझा गया। इस्लामाबाद में एक कार दुर्घटना में 42 वर्षीया परवीन शाकिर चल बसी। उनकी दुखद मौत के साथ ही चल बसी पाकिस्तानी शायरी की वह खशबू, जिसकी महक हमारे यहां भी महसूस की गयी थीं।

वह तो ख़ुशबू है, हवाओं में बिखर जायेगा, 

मसअला फूल का है, फूल किधर जायगा?

केवल छब्बीस वर्ष की आयु में, जब 1978 में उनका पहला कलाम ‘खुशबू’ प्रकाशित हुआ, तो नये, पुराने, आधुनिकवादी, प्रगतिशील सभी चौंक गए।

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एहसास का प्रतीक

‘खुशबू’ केवल एक शायरा लड़की का कलाम ही न था, बल्कि पाकिस्तान और उससे भी परे, सरहदों की सियासत को नकारती हुई सारे उपमहाद्वीप की मासूम और मजबूर कुंआरियों के दबे कुचले अरमानों, ख्वाहिशों का खुला और बेबाक प्रदर्शन था।

खुशबू हमारे ढके-छुपे समाज की भावनाओं और एहसास का प्रतीक बनकर आई। उसकी गजलों और नज्मों में हसरतों और तमन्नाओं कि चाशनी ही नही, खालिस शायरी कि रूह भी मौजूद थी। तकनीक थी, गहराई थी, औऱ एक पुख्ता शायरी के सारे तत्व थें।

इसलिए ‘खुशबू’ का जहां आम पढे-लिखे लोगों ने स्वागत किया।, वही भारी-भरकम आलोचकों और बुद्धिजीवियों को भी उससे नजर बचाना मुश्कील हो गया।

सरगोधा (डॉ. वजीर आगा), लाहौर (अहमद नदीम कासमी) और कराची (डॉ. सलीम अहमद व नजीर सिद्दीकी) की अदबी महफिलों और कॉफी हाऊसो में खुशबू पर चर्चे हुए, गोष्ठियाँ हुई। इस प्रकार पाकिस्तानी अदब में एक और शायरा का नाम, परवीन शाकिर बनकर उभरा।

दरअसल परवीन शाकीर ने जिस क्षेत्र को और जिन विषयों को अपनी शायरी में अपनाया, वह एक वर्जित क्षेत्र था। उसकी सरहदों में मर्द शायर तो दूर, महिला शायरों ने भी कलमआजमाई नही की।

भला आज भी उपमहाद्वीप के घरानों में लजीली, शर्मीली किशोरियों और कुंआरियों के जज़्बात को समझा गया है? वह भी शायरी और कविता की जबान में? वह भी खालिस पर्दानशीं माहौल में?

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नग्मों की दिलकशी

मशहूर उर्दू आलोचक नज़ीर सिद्दीक़ी के अनुसार, “उनकी शायरी में देखा जा सकता हैं कि इस मुल्क में लडकियां किस तरह जवान होती हैं। उनके दिन किन सपनों में गुजरते हैं और उनकी रातें किस तरह के माहौल की भेंट होती है।

उनकी साड़ियां और उनके ज़ेवर किस हद तक उनकी भावनाओं का प्रतीक होते हैं। उनके विचार और सोच, उनकी मुहब्बतों में क्या-क्या रंग मिलाते हैं। उनकी बातचीत कितनी गूंगी होती है और उनकी ख़ामोशी में कितनी आवाज़ होती हैं।”

‘खुशबू’ पर आलोचना करते हुए सिद्दीकी साहब ने उनकी कुछ कुछ ग़ज़लें पेश की थीं। लेकिन यहां सिर्फ दो-चार शेर ही पेश करता हूँ…

बदन के कर्ब को वह भी समझ न पाएगा, 

मैं दिल में रोऊंगी, आंखों में मुस्कुराऊंगी। 

धुनक-धुनक मेरी पोरों के ख़्वाब कर देगा, 

वो लम्स मेरे बदन को गुलाब कर देगा। 

मैं सच कहूंगी, मगर फिर भी हार जाऊंगी, 

वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा। 

ऐसी कई मिसालें और ‘खशबू’ के हर पन्ने पर अंकित हैं। एक पच्चीस छब्बीस साल कि लडकी ने अपनी हर चोट और हर दर्द को उड़ेल दिया है। उनका यह दर्द और दुख वास्तविक लगते है।

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विचारों की निरन्तरता

शायद उनकी ग़ज़लों और नग्मों की दिलकशी का यह भी उन्होंने अपनी शायरी में सच्चाई से काम लिया है वरना ज़्यादातर शब्दों और कारीगरी करने वाले कवि और शायर सच नहीं लिखा करते हैं।

आरामदेह कमरों में बैठकर भला सरसों की सुगंध महसूस की जा सकती है या फिर पीले काले काग़ज़ी जलवे बिखरने वाले क्या वास्तव में प्रकृति की उस छटा के दर्शन करते हैं।

खुदा जाने ! परवीन शाकिर ने अपने घर पड़ोस, मुहल्ले में जवान होते तक जो देखा, जो महसूस किया और शायद भोगा भी, उसे ज़रूर ही बिखेर दिया कागज़ पर।

 नहीं-नहीं यह ख़बर दुश्मनों ने दी होगी 

 वो आये, आके चले भी गए, मिले भी नहीं। 

कभी कभार उसे देख लें, कहीं मिल लें, 

यह कब कहा था कि वह खुशबदन हमारा हो। 

परवीन शाकिर की ग़ज़लों का सबसे बड़ा कमाल है उनका निरन्तरता। उर्दू गझलों में हर शेर का अपना अलग वजूद होता है। इस प्रकार शायरी के व्याकरण के हिसाब से तो वह ठीक है, लेकिन विचारों की निरन्तरता उनमें अक्सर नहीं होती है।

जानें माने उस्तादों से लेकर नौसिखिये भी ग़जल की इस परंपरा से विमुख नहीं होते हैं। लेकिन परवीन शाकिर ने अपने कुछ गिने चुने बुजुर्गों की तरह ग़ज़ल की इस परम्परा को तो नये अंदाज़ में ग़ज़ल कही है।

लोग उनकी ग़ज़लों को नज़्मनुमा ग़ज़ल कह सकते है लेकिन वह अपनी बनावट और साज सज्जा में ग़ज़ल ही है। उर्दू में ऐसी ग़ज़लें लिखने वालों में फ़ैज़ के अलावा इब्ने इंशा भी है।

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साहित्यिक और सरकारी अवार्ड

24 नवंबर 1954 मे कराची में जन्मी परवीन शाकिर ने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया था। कुछ दिनों तक कालेज में पढ़ाया। फिर पाकिस्तान की उच्च सरकारी सेवा परीक्षा में सफलता पाकर कछ दिनों के लिए विदेश विभाग, फिर कस्टम विभाग में रहीं।

मौत के समय वह इस्लामाबाद में कस्टम इंटेलिजेंस में डिप्टी डायरेक्टर थीं। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से भी सनद लिया था और पीएच. डी. के लिए एक थीसिस भी पूरी की थी।

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है 

मुझ पे एहसान हवा करती है 

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर 

गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है 

दिल को उस राह पे चलना ही नहीं 

जो मुझे तुझ से जुदा करती है 

ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो 

तेरे कहने में रहा करती है

मौत से कुछ दिनों पहले उन्होंने अपने शौहर डॉ. नसीर अहमद से तलाक़ ले लिया था और इस्लामाबाद में अपने पंद्रह वर्षीय बेटे के साथ रहती थीं। ‘ख़ुशबू’ के बाद उनकी तीन अन्य शायरी की पुस्तकें भी आईं और उन्हें सराहा भी गया।

यह अलग बात है कि ‘ख़ुशबू’ जैसी शोहरत उन्हें अन्य कविता संग्रह पर नहीं मिल सकी। फिर भी पाकिस्तान में उन्हें कई साहित्यिक और सरकारी अवार्ड मिले, जिनमें पाकिस्तान का प्रतिष्ठित साहित्यिक अवार्ड, आदमजी अवार्ड भी शामिल है।

हिन्दी जगत में भी परवीन शाकिर का कलाम ’खशबू’ हाथों हाथ लिया गया है। वह हमारी अदबी दुनिया में भी एक जानी पहचानी नाम हैं।

मुबंई के एक शा उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि ईमानदारी से शायरी करने वाले जब एक ही प्रकार के तर्जुबे से गुज़रते हैं तो उनमें एक प्रकार का रिश्ता कायम हो जाता है। उनका मान भी वह रिश्ता बना रहेगा, चंकि खुशबू न तो मिटती है और न मरती है, वह बिखर-बिखर जाती है – हवाओं में, चारों दिशाओं में, सारी सृष्टि में।

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