क्या कलासक्त होना था व़ाजिद अली शाह के गिरते वैभव कि वजह?

वाब वाज़िद अली शाह का नाम आते ही तमाम ख़ुशरंग-बदरंग ख़याल जेहन में उभर आते हैं। एक शासक के रूप में उनकी इतनी थुक्का- फ़जीहत की गई है कि लख़नऊ से आपका लगाव और जुड़ाव आपको शर्मसार कर देता है। ख़राब और गैरजिम्मेदार शासक के रूप में उन्होंने इतना नाम हासिल किया है कि जब भी आप उनके नाम के ज़िक्र से गुज़रते हैं एक लापरवाह आदमी की छवि आंखों के सामने तैर जाती है।

उनकी कुछ तस्वीरें मिलती हैं जिनको अगर ध्यान से देखा जाए तो उनमें एक किस्म का डिस्कम्फर्ट (discomfort) दिखता है। इस बाबत तफ्सील में जाने पर एक सवाल सर उठाता है कि उनको खाने-पीने, रहने-सहने की कोई तकलीफ़ तो थी नहीं फिर उनके वजूद में एक अलहदा किस्म की बेचैनी क्यों तारी है।

जवाब ढूंढने पर नज़र एक ही जगह ठहरती है- ‘कला के विभिन्न आयामों के प्रति बेहद दीवानगी।’ ख़ासतौर से संगीत और नृत्य के प्रति उन्माद की हद तक दीवानापन उनके व्यक्तित्व में संतोष का अभाव लेकर आया।

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कलासक्त व्यक्तित्व

वाज़िद अली की बेचैनियों की वास्तविक वजह जो भी रही हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वे कला प्रेमी थे और गज़ब के लिख्खाड़ भी। इस गुण की तस्दीक उनके 65 साला जीवन में लिखी गई सौ किताबों से होती है। उनको गद्य-पद्य, फ़ारसी-उर्दू की बेहतरीन जानकारी थी।

गज़ब की कल्पना शक्ति और सृजन का हुनर रखने वाला ये नवाब दरअसल योद्धा और प्रशासक की जगह कलाकार का दिल रखता था। शासक होने की वजह से कैफ़ियत यह रही कि वह अपनी इच्छाओं को मनमाफ़िक रंग दे सके।

शासक के साधनों से अपने रचनाकार की ऊर्जा का पूरा-पूरा इस्तेमाल कर सके। लेखन की पद्य शैली के उरूज़ के दिनों में उन्होंने गद्य को भी तवज्जो दी। जब फ़ारसी अभिमान बनी बैठी थी उन्होंने उर्दू को सर आंखों पर बिठाया। ये छोटी बात न थी।

नवाब कि तक़रीबन 40 किताबें छपीं। ज़्यादातर शाही प्रेस से आईं। इनमें मसनवी, मरसिया, खिताबों का काव्यात्मक संकलन, संगीत जैसे विषयों पर लिखी पुस्तकें शामिल हैं। उनके बारे में दस्तावेजों में जो लिखत-पढ़त मिलती है उससे साफ़ है कि संगीत उनकी रूह में घुल गया था।

परंपरागत भारतीय संगीत के साथ उन्होंने नए प्रयोग किये और उसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर न छोड़ी। संगीत की तालीम देने वाले उनके परीखाना की खूब चर्चा मिलती है। इस चर्चा में नेकनामी और बदनामी दोनो शामिल हैं।

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तारीख़-ए-परिखाना

परीखाना नृत्य, संगीत और नाटक जैसी कलात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने वाला प्रशिक्षण केंद्र सरीखा था। इसमें नृत्य और संगीत में अभिरुचि रखने वाली स्त्रियां प्रशिक्षण लेती थीं। इन अंतःवासी स्त्रियों को ‘परी’ कहा गया है। परियों के अलावा उनके प्रशिक्षक, साजिंदे और इन विधाओं को अपनी सेवा देने वाले अन्य लोग भी परीखाना का हिस्सा थे।

वाजिद अली की आत्मकथात्मक मसनवी ‘हुन्ज़-ए-अख्तर’ में ज़िक्र है कि परियां अपने अभिभावकों के साथ दिये गए कमरों में रहती थीं। उनका आवासीय हिस्सा अलग और सुरक्षित था। बाहरी लोगों का प्रवेश निषेध था साथ ही सुरक्षा के लिए स्त्री सुरक्षा कर्मी भी रखी गईं थीं। इन्हें ‘तुर्किन’ कहा गया है जिससे संकेत मिलता है कि ये तुर्क महिलाएं होंगी।

वाज़िद अली ने फ़ारसी में लिखी अपनी ‘तारीख़-ए-परिखाना’ में बताया है कि परियों की संख्या बढ़ने पर उनके रहने के लिए पूरब, पश्चिम और दख्खिन में कमरे बनवाये गए। इन कमरों की व्यवस्था ऐसी थी कि लखी दरवाज़ा कमरों की पूर्वी-पश्चिमी शृंखला के बीचो बीच पड़ता था।

वाज़िद अली के नवाब की कुर्सी संभालने के पहले तक परीखाना फलता फूलता रहा और शाह इसमें रमें रहे। अपनी पसंद की कई परियों से उनके ‘मुताअ विवाह’ (तयशुदा तिथि तक शादी) के जिक्र है। अगर कोई परी मुताअ के बाद गर्भ से हुई तो उसके साथ बकायदा निक़ाह भी पढ़ा। चर्चा है कि उन्होंने 112 परियों से मुताअ किया।

बहरहाल ये सारा वाकया नवाबी का तख्त संभालने से पहले का है। लख़नऊ का नवाब बनने के तीसरे दिन ही परीखाना बंद कर दिया गया और नवाब साहब सियासी मसलों में मशगूल हो गए।

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मशहूर ठुमरी के रचियता

लखनवी भैरवी और ठुमरी को दिया गया वाज़िद अली शाह का योगदान काबिले-तारीफ है। ‘बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए’ के दर्द से हम सब वाकिफ़ हैं। ‘तोसे सइयाँ मैं नहीं बोलूं’ की चुहल मोहक है।

संगीत पर ‘बनी’ और ‘नाजो’ दो किताबें भी हैं जो उन्हें इस विधा का जानकार बताती हैं। शाह ने ‘रहस’ भी लिखा साथ ही उसमें अभिनय भी किया। यह उनके लोक नाट्य शैली की जानकारी और लगाव का दस्तावेज है। उनका ‘रहस’ भी छापे खाने तक पहुंचा। उसे हम पढ़ सकते हैं।

वाज़िद अली शाह ने शायरी की लगभग सभी विधाओं जैसे ग़ज़ल, मसनवी, मर्सिया, क़सीदा, रुबाई, क़ता में अपना कौशल दिखाया। फ़ारसी में उन्होंने अपना ‘इश्क़नामा’ लिखा। इसे उन्होंने 26 बरस की उमर में लिखना शुरु किया जब उन्हें बादशाहत हासिल किए लगभग दो साल गुज़रने को थे। यह नवाब साहब के जीवन का वह यथार्थ समेटे हुये है जिसकी सर्वाधिक चर्चा की गई।

उनकी कुंठा, कामुकता, इश्क़, मोहब्बत, स्त्रियों से संपर्क-संबंध, नृत्य-संगीत के प्रति लगाव का दस्तावेज है ‘इश्क़नामा।’ इसमें उनकी मोहब्बत की तमाम दास्तान दर्ज़ है और हर-पहलू दर्ज़ है। वफ़ा, बेवफाई, छल, कपट, जालसाजी, फ़रेब हर्फ़ दर हर्फ़ पूरा रुक्का मिलता है। मोहब्बत में बेवफ़ाई का एक किस्सा सरफराज परी का है।

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एक घायल प्रेमी

सरफ़राज़ उनकी ख़ास माशूक़ थी। जब उसकी बेवफ़ाई इन्तिहा पर पहुँच गई तो सदमें की वजह से नवाब वाजिद अली पागलों सी हरकत करने लगे। कभी वक़्त बे वक़्त जंगल की सैर तो कभी दरिया का रुख़।

गहरा दुःख, बेचैनी, तन्हाई की तड़प और कुढ़न, घण्टों आईने में ख़ुद को निहारना दूसरी परियों से जासूसी करवाना और उन परियों का डाह और जलन में दीगर परियों की शिकायत करना, एक दूसरे की टोह में रहना बेबाकी से बयान किये गए हैं।

‘इश्क़नामा’ में वाज़िद अली शाह बयान करते हैं कि, “सरफ़राज़ परी के गम में उनका सीना चूने की भट्टी की मिसाल बन गया था। उसकी मोहब्बत वैसे कम होती जा रही थी लेकिन एक ख़लिश सी आंखों में रहती थी।

एक रोज मैंने उसका हाथ पकड़ के रोक लिया और शिकायत आमेज़ अंदाज़ में कहा,  ऐ जाने- जां फ़िजूल ही तू मुझे मुब्तिल-ए- ग़म किये हुए है। यह कहाँ का तरीका है। किसी के दिल को अपने इश्क़ में मुब्तिला करके फिर बेमुरव्वती का सुलूक करे। तेरी इस बुरी हरकत का मुझे बड़ा मलाल है। अब भी कुछ नहीं गया, ख़ुदा के वास्ते अब भी सही रास्ते पर आ जा।’’

नवाब का ये बयान उनको एक घायल प्रेमी की तरह प्रस्तुत करता है। मोहब्बत में कैद जोड़े इस तरह की बातें करते हैं। ये आम है पर जो बात इसे ख़ास बनाती है वो ये है कि यहाँ कहने वाला ख़ुद नवाब है जो बेहद रसूख़दार है और उसकी प्रेमिका अपनी रोजी रोटी के लिए नवाब पर निर्भर है, परीखाना में संगीत की शिक्षा ले रही है।

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नरम दिल इन्सान

नवाब का उससे किसी किस्म की जोर-जबरदस्ती न करना मन को मोह लेता है। इस किस्से में प्रेम में विह्वल होकर नवाब वाज़िद अली शाह के ख़ुद को चोट पहुँचने का भी ज़िक्र मिलता है।

भले ही प्रेम का ये आवेग कुछ समय का रहा हो यह हमसे वाज़िद अली शाह को एक नरम दिल मुलायम इन्सान की तरह मिलवाता है।

‘इश्क़नामा’ के बयानों में दरकती हुई नवाबियत और उसके गिरते हुए वैभव को महसूस किया जा सकता है। बेहद जटिल और मुश्किल समय में नवाब के चुनाव, प्राथमिकताओं, नादानियों, असावधनियों को इश्क़नामा में देखा जा सकता है।

अपने कामुक व्यक्तित्व, स्त्रियों के प्रति अतिरिक्त लगाव, झुकाव, भावुकता पर नियंत्रण न रख पाने की वजह से आवाम के लाड़ले इस नवाब ने आवाम को ही भारी संकट में डाल अपने महबूब शहर को त्रासदियों के एक लंबे सिलसिले में झोंक दिया। संघर्ष की राह पर चलकर भी संभव है कि हश्र यही होता। लेकिन उस स्थिति में गरिमापूर्ण मूल्यांकन किया जाता।

नवाब वाज़िद अली शाह के व्यक्तित्व के नकारात्मक पक्षों की पूरी शिद्दत से कटु आलोचना की जानी चाहिये। लेकिन साथ ही कला और संस्कृति के प्रति उनके लगाव और योगदान को भी तवज्जो दी जानी चाहिये। बादशाहत मक्कारी मांगती है। वह ज़रूर वाज़िद अली शाह में कम रही होगी। ‘इश्क़नामा’ लिखकर वह अपनी बदनामी का दस्तावेज़ हमें खुद ही मुहैया करवा गए।

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