समय के साथ शिवसेना बदली, पर क्या विचारधारा भी बदलेगी !

जून 19 को शिवसेना ने अपने 55 साल मुकम्मल किये। फिलहाल सेनाप्रमुख उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं। महाराष्ट्र के इतिहास में ये कोई पहला मौका नहीं हैं जब एक शिवसैनिक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा हो। इस से पहले भी गठबंधन की सरकार में सेना के कोटे से मनोहर जोशी और नारायण राणे (जो कि अब भाजपा के साथ हैं) मुख्यमंत्री रहे चुके हैं।

फिलहाल इस पार्टी के लोकसभा में 18 सांसद, राज्यसभा में 3 सांसद, महाराष्ट्र विधान सभा में 56 विधायक और विधान परिषद में 15 एमएलसी हैं। मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) पर भी लंबे समय से शिवसेना का कब्जा है।

महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने हेतू बाल ठाकरे ने 19 जून 1966 को शिवसेना की नींव रखी थी। ठाकरे मूल रूप से कार्टूनिस्ट थे और राजनीतिक विषयों पर तीखे कटाक्ष करते थे।

शिवसेना यूं तो कई राज्यों में सक्रिय है, लेकिन इसका राजनीतिक प्रभाव महाराष्ट्र तक ही सीमित है। वर्तमान में इसके प्रमुख उनके पुत्र उद्धव ठाकरे हैं। उस का चुनाव चिह्न धनुष-बाण है, जबकि प्रतीक चिह्न बाघ है। शिवसेना की पहचान हिन्दूवादी राजनीतिक दल के रूप में रही है।

साल 2018 के अंत में उद्धव ने अयोध्या में रामलला के दर्शन कर राम जन्मभूमि मुद्दे को हवा दी थी। सेना के गठन के समय बाल ठाकरे ने नारा दिया था, ‘ऐंशी टक्के समाजकरण, वीस टक्के राजकरण’ अर्थात 80 प्रतिशत समाजकारण और 20 फीसदी राजनीति। ‘भूमिपुत्र’ (स्थानीय निवासी) के मुद्दे को लंबे समय तक समर्थन नहीं मिलने से सेना ने हिन्दुत्व के मुद्दे को अपना लिया, जिस पर वह अब तक कायम है।

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पहली बार ही सफलता

शिवसेना ने पहला चुनाव 1971 में लड़ा था पर उसे सफलता नहीं मिली। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सांसद चुना गया। पार्टी मे महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव में पहली बार 1990 में लड़ा जिस में उस के 52 विधायक चुन कर आए थे ।

शिवसेना ने भाजपा के साथ 1989 में गठबंधन किया जो कि 2019 अर्थात 30 सालों तक जारी रहा। आज महाराष्ट्र में भले ही सेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़ दिया हो मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सेना आज भी NDA का घटक दल हैं। 2014 का विधानसभा चुनाव दोनों दलों ने अलग हो कर लड़ा था। उस के बाद से ही दोनों के रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे थे।

शिवसेना का एनसीपी के साथ समर्थन फिर भी एक बार लोग समझ ले रहे हैं मगर कांग्रेस के साथ शिवसेना के साथ आने को एक बड़ा वर्ग पचा नहीं पा रहा है। लोग सवाल कर रहे हैं कि आखिर कैसे अलग अलग विचारधारा की धूरियों पर टिके दो दल एक होंगे और कैसे साथ मिल कर सत्ता चलाएंगे?

तमाम सवाल हैं जो जस के तस हैं और लोगों के माथे पर चिंता के बल दे रहे हैं। बात अलग विचारधारा वाले दल से गठबंधन की आई है तो इतिहास में झांकना जरूरी हो जाता है। सेना से जुड़े कई ऐसे वाकये हमारे सामने आते हैं, जिसमें न सिर्फ इस ने बिलकुल अलग दलों से गठबंधन कर के लोगों को हैरत में डाला बल्कि सत्ता सुख तक भोगा।

आइये नजर डालें उस दौर पर जब शिवसेना ने उन दलों के साथ गठबंधन किया जिन से कभी भी शिवसेना के विचार मेल नहीं खाए और आज भी शिवसेना का इन दलों से छत्तीस का आंकड़ा है।

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विरोधी दलो के साथ गठजोड़

पार्टी की स्थापना 1960 में बाल ठाकरे ने की थी जिन्होंने 1971 में कांग्रेस O (कांग्रेस का इंदिरा गांधी विरोधी गुट जो 1969 में कांग्रेस से अलग हुआ था) के साथ गठबंधन किया। ठाकरे ने शिवसेना के टिकट पर लोकसभा चुनावों में 3 प्रत्याशियों को उतारा था जिन में से कोई भी नहीं जीता। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय इमरजेंसी घोषित की, बाल ठाकरे ने इसे सही ठहराया और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को समर्थन दिया।

इस के बाद 1980 में भी शिवसेना ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को समर्थन दिया। तब ये इसलिए संभव हुआ क्योंकि ठाकरे और तब के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले में घनिष्ठ संबंध थे।

मुस्लिम लीग से दोस्ती

ये सुनने में भले ही थोडा अजीब लगेगा मगर वो शिवसेना जो अपनी कट्टर विचारधारा और मुसलमानों के खिलाफ ज्वलनशील बयान देने के लिए जानी जाती है मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर एक ज़माने में राजनीति के सूरमाओं को हैरत में डाल चुकी है। बात 1989 की है।

शिवसेना ने अपने विरोधी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के साथ गठनबंधन किया था। दिलचस्प बात ये है कि तब हिंदू हृदय सम्राट ठाकरे ने मुस्लिम नेता गुलाम मुहंमद बनातवाला के साथ स्टेज भी साझा किया था। आप को बताते चलें कि IUML नेता बनातवाला को शिवसेना विशेष कर बाल ठाकरे का प्रबल आलोचक माना जाता था।

ऐसे तमाम मौके आए थे जब बनातवाला ने ठाकरे के लिए तीखी टिप्पणियां की थीं। सेना ने 1970 में अपना मेयर बनाए जाने के लिए मुस्लिम लीग से गठबंधन कर मदद ली थी। तब सेना और मुसलमानों के साथ आने को एक बड़े मास्टर स्ट्रोक की तरह देखा गया था।

ऐसा इसलिए भी कहा जाता है कि तब शिवसेना और मुस्लिम लीग दोनों ही एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे। 1978 में बाल ठाकरे ने मुंबई स्थित नागपाड़ा के मस्तान तलाव मैदान में रैली की और इलाके के मुसलमानों के सामने अपना पक्ष रखा।

बात अगर उस रैली की हो तो रैली के दौरान भी कई ऐसे मौके आए थे जब शिवसेना और मुस्लिम लीग के बीच का मतभेद साफ़ दिखाई पड़ रहा है। माना जाता है कि तब शिवसेना और मुस्लिम लीग दोनों ही दलों का राजनीतिक भविष्य अधर में लटका था और दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत थी इसलिए दोनों ने साथ आना जरूरी समझा और राजनीतिक लाभ लिया।

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जोशी हटे और राणे बने मुख्यमंत्री

महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी को पहली बार सत्ता में आने का मौका वर्ष 1995 के चुनाव से मिला। मनोहर जोशी गठबंधन सरकार के पहले मुख्यमंत्री बने। बाद में राणे फॅक्टर आया जिसने पार्टी की में कई अहम मोड आए।

तकरीबन तीन दशक की सियासत में नारायण राणे ने बड़ी तेजी से करवटें बदली। उनका जन्म 10 अप्रैल 1952 को एक सामान्य परिवार में हुआ। राजनीति में आने से पहले राणे ने रोजगार के लिए एक चिकन शॉप खोली थी। राणे के विरोधी उन पर आपराधिक इतिहास का आरोप लगाते हैं।

राणे पर आरोप है कि साठ के दशक में वो उत्तर-पूर्व के चेंबूर इलाके में सक्रिय हरया-नारया गैंग से जुड़े थे। वहीं घाटला पुलिस स्टेशन में राणे के खिलाफ हत्या का भी मामला दर्ज बताया जाता है। ये भी कहा जाता है कि विरोधी गैंग के महादेव ठाकुर से बदला लेने के लिए राणे ने शिवसेना का दामन थामा था।

1968 में केवल 16 साल की उम्र में ही नारायण राणे युवाओं को शिवसेना से जोड़ने में जुट गए। सेना में शामिल होने के बाद उनकी लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती चली गई। युवाओं के बीच उन की ख्याति को देख कर शिवसेना प्रमुख भी प्रभावित हुए। उनकी संगठन क्षमता ने उन्हें जल्द ही चेंबूर में शिवसेना का शाखा प्रमुख बना दिया।

राणे के युवा जोश और नेतृत्व क्षमता ने उनके सियासी कद को बड़ी तेजी से ऊंचा उठाने का काम किया। साल 1985 से 1990 तक राणे शिवसेना के कारपोरेटर रहे। साल 1990 में वो पहली दफे शिवसेना से विधायक बने। इसके साथ ही वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बने।

लेकिन राणे के सियासी करियर ने रफ्तार तब पकड़ी जब छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ दी। साल 1996 में शिवसेना-बीजेपी सरकार में राणे राजस्व मंत्री बने। इसके बाद मनोहर जोशी के मुख्यमंत्री पद से हटने पर राणे को सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। 1 फरवरी 1999 को शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार में नारायण राणे मुख्यमंत्री बने। हालांकि सीएम की कुर्सी का सुख थोड़े समय तक ही रहा।

कहा जाता है कि राणे अगर उस रोज भी ठाकरे के सामने चुप्पी साधे रह जाते, तो शायद जोशी को मुख्यमंत्री पद से हटाने का फैसला टल सकता था। लेकिन राणे के सवाल पूछने की हिम्मत ने उसी वक्त मनोहर जोशी की मुख्यमंत्री पद से विदाई तय कर दी।

मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मनोहर जोशी ने भी कहा था कि ‘वह अपने को बहुत भाग्यशाली समझते हैं कि साहेब ने उन्हें इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उठाने के योग्य समझा।’ साहेब के ‘आशीर्वाद’ से वह सरकार चलाते गए। करीब चार साल गुजर गए, लेकिन उन्हें यह भनक नहीं लग पाई कि ‘साहेब’ के दिमाग में अब कुछ और चलने लगा है।

शिवसेना और बीजेपी के रिश्तों में आई तल्खी और मनोहर जोशी के बदलते हुए मिजाज के मद्देनजर बालासाहब अब अपने कुछ विश्वासपात्र सहयोगियों से सरकार के नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करने लगे थे। कई मौकों पर वह नारायण राणे से पूछ चुके थे कि अगर जोशी हटा दिए जाएं तो क्या वह राज्य चलाने की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं ? और फिर बात टल जाती थी।

लेकिन एक रोज उन्होंने राणे को ‘मातोश्री’ बुलाया और वही सवाल किया। राणे में न जाने उस रोज कहां से हिम्मत आ गई। कहते हैं कि उन्होंने बालासाहब से पूछ लिया, ‘साहेब, यह बात आप कई बार कह चुके हैं, लेकिन आप जोशी को हटाएंगे कब?’

उन्होंने उसी वक्त अपने सहायक को बुलाया और जोशी के लिए एक पत्र डिक्टेट किया, ‘आप राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दें। इस्तीफा सौंपने के बाद ही हम से मिलने के लिए आएं।’ इस के अगले दिन बालासाहब ने पार्टी विधायकों की बैठक बुला ली, जिस में उन्होंने नए मुख्यमंत्री के रूप में राणे के नाम का ऐलान कर दिया।

इसके बाद शिवसेना से राणे के मोहभंग होने की शुरुआत हुई। उद्धव ठाकरे के शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष के ऐलान होते ही नारायण राणे के सुरों में बगावत हावी होने लगी। राणे ने उद्धव की प्रशासनिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए जिस के बाद उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

शिवसेना छोड़ने के बाद नारायण राणे 3 जुलाई 2005 में कांग्रेस में शामिल हो गए। शिवसेना से बगावत करने के बावजूद राणे विधानसभा का चुनाव जीत कर विधायक बने। कांग्रेस सरकार में भी राणे राज्य के राजस्व मंत्री बने। हालांकि महाराष्ट्र की पृथ्वीराज सरकार की भी आलोचना कर नारायण राणे सुर्खियां बटोर चुके हैं।

इस तरह अपने 55 साल के इतिहास में शिवसेना ने कई उतार चढ़ाव देखे।

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