लोकतंत्र सही मायनों में लोकतंत्र तभी माना जाता है, जब सरकार के प्रति व्यक्त असहमति और आलोचना का भी तहेदिल से स्वागत किया जाए। कबीरदास ने कहा है “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय” अर्थात खुद की निंदा करने वालों को अपने पास ही रखना चाहिये। लेकिन, आज सबसे बड़ा सवाल यह यह है कि निंदा या आलोचना की भाषा और देशद्रोह की भाषा में अंतर क्या है?
क्या एक परिपक्व लोकतंत्र में राजद्रोह कानूनों की आवश्यकता है? असहमति भले ही लोकतंत्र का मूलभूत गुण हो लेकिन आज देश में ऐसे हालात है कि अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करना भी आपको देश-द्रोही की संज्ञा दिला सकता है। ऐसे में या तो आप जेल की सलाखों के पीछे होंगे या फिर, गली, नुक्कड़, बस या ट्रेन में या फिर सड़कों पर भीड़ आपका इंतज़ार कर रही होगी।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (A) के अनुसार, “बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष (Disaffection) उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जाएगा।”
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इस कानून का इतिहास
सबसे पहले ये कानून इंग्लैंड में आया था। 17वीं सदी में जब इंग्लैंड में वहां की सरकार और साम्राज्य के खिलाफ आवाजें उठने लगीं तो अपनी सत्ता बचाने के लिए राजद्रोह का कानून लाया गया। यहीं से ये कानून भारत में आया।
भारत में ब्रिटेन के कब्जा करने के बाद थॉमस मैकॉले को इंडियन पीनल कोड यानी आई.पी.सी. का ड्राफ्ट तैयार करने की जिम्मेदारी मिली। 1860 में आई.पी.सी. को लागू किया गया। हालांकि, उस वक्त इसमें राजद्रोह का कानून नहीं था।
बाद में जब अंग्रेजों को लगा कि भारतीय क्रांतिकारियों को शांत करने का कोई और उपाय नहीं बचा है तो उन्होंने आईपीसी में संशोधन किया और इसमें धारा 124A को जोड़ा। आईपीसी में ये धारा 1870 में जोड़ी गई।
इस धारा का इस्तेमाल स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने और सेनानियों को गिरफ्तार करने के लिए किया जाने लगा। इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी, भगत सिंह और बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ हुआ।
1947 में आजादी मिलने के बाद कई नेताओं ने देशद्रोह के कानून को हटाने की बात कही। लेकिन जब भारत का अपना संविधान लागू हुआ तो उसके बाद भी आईपीसी की धारा 124A को बरकरार रखा गया।
1951 में जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत बोलने की आजादी को सीमित करने के लिए संविधान संशोधन लाया, जिसमें अधिकार दिया गया कि बोलने की आजादी पर तर्कपूर्ण प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
1974 में इंदिरा गांधी सरकार में इस कानून से जुड़ा बड़ा बदलाव हुआ। इंदिरा गांधी की सरकार में राजद्रोह को ‘संज्ञेय अपराध’ बनाया गया। यानी, इस कानून के तहत पुलिस को किसी को भी बिना वारंट के पकड़ने का अधिकार दे दिया गया।
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कानून पर उठते सवाल
आजादी के बाद 1951 में तारा सिंह गोपी चंद मामले में पहली बार किसी अदालत ने इस कानून पर सवाल उठाए। तब पंजाब हाईकोर्ट ने धारा 124A को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध माना था।
बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर भाषण देने पर राज्य सरकार ने राजद्रोह का केस दर्ज किया। इस मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार की आलोचना कर देने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। इस मामले में तभी दंडित किया जा सकता है जब उससे हिंसा भड़कती हो। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को आज भी धारा 124A से जुड़े मामलों के लिए मिसाल के तौर पर लिया जाता है।
दिवंगत पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में देशद्रोह का केस दर्ज किया गया था। जून 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को निरस्त कर दिया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह मामले का जिक्र करते हुए कहा था कि हर नागरिक को सरकार की आलोचना करने का हक है, बशर्ते उससे कोई हिंसा न भड़के।
कितनों को सजा हो पाती है?
सरकारें लोगों पर देशद्रोह या राजद्रोह का केस दर्ज तो कर लेती हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर के खिलाफ आरोप साबित ही नहीं हो पाता। जानकार मानते हैं कि जब ज्यादातर लोग छूट रहे हैं तो इसका मतलब है कि मुकदमे गलत दायर हो रहे हैं।
केंद्र सरकार की एजेंसी NCRB के आंकड़े बताते हैं कि 2016 से 2020 के बीच 5 सालों में देशद्रोह के 322 मामले दर्ज हुए थे। इनमें 422 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन इसी दौरान सिर्फ 12 लोगों पर ही देशद्रोह का आरोप साबित हो सका और उन्हें सजा दी गई।
राजद्रोह और देशद्रोह के बीच अंतर
राजद्रोह और देशद्रोह को लेकर अक्सर ही देश की राजनीति गरमाई रहती है। हम राजद्रोह कानून और देशद्रोह कानून को लेकर भी कई बार अख़बारों में पढ़ते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि राजद्रोह क्या होता है ? और देशद्रोह क्या होता है ? या राजद्रोह और देशद्रोह में क्या अंतर है ?
यदि कोई व्यक्ति गवर्नमेंट विरोधी बातें लिखता है या बोलता है, या फिर ऐसी ही बातों का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करता है या फिर संविधान को नीचा दिखाता है तो उस व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code, IPC) की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह का केस दर्ज किया जा सकता है। इन सब बातों के साथ ही यह किसी व्यक्ति के द्वारा देश विरोधी संगठन के साथ में किसी तरह का संबंध रखा जाता है या वह ऐसे किसी संगठन का किसी भी तरह से सहयोग करता है तो भी वह राजद्रोह के अंतर्गत आता है।
सबसे पहले आपको इस बात से अवगत करवा दें कि राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। यदि किसी व्यक्ति को राजद्रोह कानून के अंतर्गत दोषी पाया जाता है तो उसे 3 साल की सजा से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है। सजा के साथ ही उक्त व्यक्ति को जुर्माना भी देना होता है।
इसके साथ ही जब कोई व्यक्ति राजद्रोह में दोषी पाया जाता है तो वह कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकता। इसके अलावा उसका पासपोर्ट भी रद्द कर दिया जाता है और उसे जब जरुरत हो तब कोर्ट में हाजिर होना पड़ता है। कई बार लोगों का एक सवाल सामने आता है कि क्या राजद्रोह कानून को खत्म किया जा सकता है?
तो इसे लेकर जुलाई 2019 के दौरान केंद्र सरकार ने कहा था कि राजद्रोह कानून यानी आईपीसी की धारा-124 (ए) को खत्म नहीं किया जा सकता है। देश के विरोधी लोगों, आतंकी तत्वों और पृथकतावादी तत्वों से निपटने के लिए राजद्रोह कानून की बहुत जरुरत है।
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देशद्रोह कानून क्या होता है?
देश में सरकार को क़ानूनी रूप से चुनौती देना देशद्रोह की श्रेणी में आता है। वैसे आपको बता दें कि सरकार का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध किया जाना या इसके अलावा उसमें बदलाव के लिए मांग किया जाना देश के हर नागरिक का अधिकार होता है। लेकिन गैरकानूनी तरीके से सरकार का विरोध देशद्रोह कहता है।
ऐसे संगठन जिनके द्वारा देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है उन्हें भी बैन कर दिया जाता है। इसके अंतर्गत ही माओवादी या अलगाववादी संगठनों को भी बैन किया जाता है। ऐसे संगठनों से किसी भी तरह का संबंध रखनेवाले व्यक्ति के खिलाफ भी देशद्रोह के मामले में या इससे जुड़ी धाराओं में केस दर्ज होता है।
IPC की धारा-121 के अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति देश के खिलाफ होने वाली चरमपंथी गतिविधियों में शामिल है तो देशद्रोह के अंतर्गत उसे सजा का प्रावधान है। वही यदि कोई व्यक्ति देश के खिलाफ युद्ध जैसे हालात पैदा करता है या युद्ध करता है या फिर लोगों को देश के खिलाफ युद्ध के लिए प्रेरित करता है तो उसे उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा दी जा सकती है।
ऐसे किसी भी क्राइम के लिए उस व्यक्ति को IPC की धारा-121 A के अंतर्गत सजा होती है। सजा की यह अवधि 10 साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है। देशद्रोह के लिए किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिम्मेदार माना जाता है जो देश के खिलाफ किसी भी गतिविध में शामिल होता है या ऐसे किसी संगठन से सम्पर्क रखता है। आतंकी विचारधारा के साथ जाने वाले व्यक्ति को भी इसके लिए दोषी माना जाता है।
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कानून से जुड़े अन्य तथ्य
IPC की धारा-122 के अंतर्गत यह कहा गया है कि यदि वह देश के खिलाफ युद्ध की नियत रखता है और इसके लिए हथियार जमा करता है या हथियार बनाता है या फिर हथियार छुपाने का काम करता है तो उस व्यक्ति को 10 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा सुनाई जा सकती है। जबकि जो लोग ऐसे लोगों का साथ देते हैं उन्हें भी धारा-123 के अंतर्गत 10 साल की सजा का प्रावधान है। जबकि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल पर हमला करता है तो उसे आई।पी।सी। की धारा-124 के अंतर्गत सजा होती है।
जब किसी व्यक्ति के द्वारा सरकार को असंवैधानिक तरिके से पलटने का कार्य किया जाता है तो उसे राजद्रोह करार दिया जाता है। जबकि जब किसी व्यक्ति के द्वारा देश के नुकसान के कार्य को अंजाम दिया जाता है या ऐसी कोई योजना बनाई जाती है तो उसे देशद्रोह कहा जाता है।
1948 के भारत के मसौदे (ड्राफ्ट) संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार शामिल था। हालांकि, यह अधिकार पूर्ण नहीं था, इस अधिकार पर कई सीमाएँ लगाई गई थी। उनमें से एक देशद्रोह था। देशद्रोह से संबंधित मौजूदा या भविष्य के कानून, क़ानूनी तौर पर वैध और सम्मत होंगे भले ही वे भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करते हों।
1 दिसंबर 1948 को के.एम. मुंशी ने संविधान सभा में एक संशोधन पेश किया जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर देशद्रोह के प्रतिबंध को हटाने का प्रस्ताव था। मुंशी ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए को लागू किया जिसने देशद्रोह का अपराधीकरण किया।
इस कानून ने आधी सदी से भी अधिक समय तक भारतीयों पर बड़ा प्रभाव डाला था। ब्रिटिश अधिकारियों ने औपनिवेशिक सरकार के उद्देश्य से अलग, असंतोष और आलोचना के सहज भावों के अभिव्यक्ति लिए, भारतीयों को दंडित करने के लिए इस कानून का मनमाने ढंग से उपयोग किया था।
ज्यादातर संविधान सभा सदस्य मुंशी के संशोधन का समर्थन करते दिखाई देते हैं। कई लोगों के लिए, राजद्रोह ने गहरी व्यक्तिगत और राजनीतिक नाराजगी पैदा की थी। उन्होंने कानून के तहत आरोप लगाए जाने और जेल भेज दिए जाने के अपने अनुभवों को साझा किया।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए देशद्रोह के कानून का व्यापक रूप से उपयोग किया गया। गांधी जी पर खुद देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। अपने राजद्रोह मुकदमे के ट्रायल के दौरान, गांधी ने भारतीय दंड संहिता की राजनीतिक धाराओं के बीच धारा 124-ए को भारतीय दंड विधान के राजकुमार के रूप में उसकी संज्ञा दिया, जो नागरिक स्वतंत्रता को दबाने के लिए बनाया गया था।
यह देखते हुए कि भारत एक लोकतांत्रिक देश बनने जा रहा था, मुंशी ने तर्क दिया की, सरकार की स्वागत-योग्य आलोचना और उकसावे जिससे सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हो सकती है, जिस पर सभ्य जीवन आधारित है, या जिसकी गणना राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए की जाती है, उसमे अंतर होना चाहिए। इसलिए देशद्रोह शब्द को छोड़ दिया गया है।
मुंशी ने आगे कहा, “सरकार की आलोचना लोकतंत्र का सार था।” वह 1942 के भारतीय फेडरल कोर्ट के फैसले से सहमत दिखाई दिए, जिसमें कहा गया था कि देशद्रोह को सरकारों के घूरने के लिए ‘अपराध नहीं बनाया गया था…’ यह दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में जो कहा उसके समान ही है… सरकार के आलोचकों को फंसाने के लिए देशद्रोह का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। अदालत 22 वर्षीय जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता दिशा रवि की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो देशद्रोह कानून के तहत हालिया आरोपित हुई हैं।
अधिकांश संविधान सभा सदस्यों ने मुंशी के साथ सहमति व्यक्त की और उनके संशोधन का समर्थन किया। बहस के अंत में, संविधान सभा ने स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध के रूप में देशद्रोह को हटा दिया। अपने भाषण में, मुंशी ने कहा था कि अगर भारतीय संविधान से देशद्रोह को नहीं हटाया गया, तो एक गलत धारणा बनाई जाएगी कि हम भारतीय दंड विधान की धारा 124-A को, या उसके अर्थ को, बनाए रखना चाहते हैं।
विडंबना यह है कि भारत के संविधान में देशद्रोह का कोई उल्लेख नहीं किया गया था, लेकिन भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए भारतीय क़ानूनी पुस्तकों पर बनी रही। धारा 124-ए को निरस्त करने के लिए लगातार सरकारों और विधायिका के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं प्रतीत होता है, बल्कि इससे इतर राज्य के अधिकारियों ने असंतोष और आलोचना को दबाने के लिए इस कानून का प्रचंड तरीके से उपयोग किया गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट से यह पता चलता है कि देश में राजद्रोह से संबंधित मामलों की संख्या बढ़ी है।
कई देशों में किसी न किसी रूप में देशद्रोह के कानून मौजूद हैं। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक लोकतंत्र के साथ राजद्रोह कानून की विसंगति को वैश्विक मान्यता रही है। कई देशों ने मौजूदा राजद्रोह कानूनों को या तो रद्द कर दिया है या उनके दायरे को काफी कम कर दिया है। न्यूजीलैंड ने 2007 में अपने राजद्रोह कानून, 2009 में यूनाइटेड किंगडम और 2010 में ऑस्ट्रेलिया ने इससे छुटकारा पा लिया। क्या भारत को को भी इन देशों की श्रेणी में शामिल हो जाना चाहिए?
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विधि आयोग की राय
भारतीय विधि आयोग या लॉ कमीशन ने 2018 में राजद्रोह के ऊपर एक परामर्श पत्र जारी किया। राजद्रोह के कानून को लेकर आगे क्या रास्ता निर्धारित किया जाना चाहिए इस पर लॉ कमीशन ने कहा कि, “लोकतंत्र में एक ही गीत की किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं है और लोगों को अपने तरीके से अपने देश के प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। ऐसा करने के लिए सरकार की नीति में ख़ामियों की ओर इशारा करते हुए कोई रचनात्मक आलोचना या बहस की जा सकती है।
लॉ कमीशन ने कहा कि, “इस तरह के विचारों में प्रयुक्त अभिव्यक्ति कुछ के लिए कठोर और अप्रिय हो सकती है लेकिन ऐसी बातों को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।” लॉ कमीशन ने यह भी कहा कि, “धारा 124ए केवल उन मामलों में लागू की जानी चाहिए जहां किसी भी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को उखाड़ फेंकने की है।”
इस परामर्श पत्र में लॉ कमीशन ने कहा कि, “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।” साथ ही यह भी कहा कि, “तत्कालीन सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए।”
लॉ कमिशन ने कहा कि, “देश या उसके किसी विशेष पहलू पर अपशब्द कह देना देशद्रोह नहीं माना जा सकता।” और साथ ही यह भी जोड़ा कि, “अगर देश सकारात्मक आलोचना के लिए खुला नहीं है तो ये आज़ादी से पहले और बाद के युगों के बीच का अंतर दर्शाता है। अपने स्वयं के इतिहास की आलोचना करने का अधिकार और ‘अपमान’ करने का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत संरक्षित अधिकार हैं।”
परामर्श पत्र में कहा गया कि, “जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए आवश्यक है इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। असहमति और आलोचना जीवंत लोकतंत्र में नीतिगत मुद्दों पर एक मजबूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्व हैं और इसीलिए अनुचित प्रतिबंधों से बचने के लिए भाषण स्वतंत्र और अभिव्यक्ति पर हर प्रतिबंध की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए।”
लॉ कमीशन ने कहा कि, “यूनाइटेड किंगडम ने दस साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त कर दिया था और ऐसा करते वक़्त कहा था कि वो देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता।” परामर्श पत्र में पूछा गया कि, “उस धारा 124ए को बनाये रखना कितना उचित है जिसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया था?”
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लेखक ग्वालियर स्थित आई.टी.एम. विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लॉ में अध्यापक हैं।