प्रसिद्ध शायर जाँ निसार अख्त़र शायर और फिल्मो के नगमानिगार जावेद अख्त़र के वालिद थें। जावेद अख्त़र नें अपने पिता के साथ रहे रिश्तों के बारे में हमेशा खुलकर कहां हैं।
निदा फाजली नें अपनी बायोग्राफी में उन दोनो पिता-पुत्र के रिश्तो को लेकर रुमानी अंदाज में लिखा हैं। आज हम जावेद अख्तर कि जुबानी उनके पिता को जानने कि कोशिश करते हैं। उन्होंने यह आलेख ऋतुरंग नामक मराठी पत्रिका के लिए शब्दांकित किया था।
कोई भी व्यक्ति एक ‘कोलाज’ होता है। वह किसी के पिता होता हैं। किसी का एक बेटा है। किसी का पति है। किसी का भाई हैं। किसीका दोस्त हैं। तो मेरे पिता भी ऐसे ही थे।
परंपरागत रूप से, पिता की जो छवि होती है वह मेरे लिए कभी वैसे नहीं थे। हमने एक दूसरे के साथ बहुत कम समय बिताया। इसीलिए उन्होंने कभी मुझे अपने बगल में बैठाकर, मेरी उंगली पकड़कर, मुझे तरबीयत नही दी। मुझे उन्होने कभी लेक्चर देकर पढ़ाया नहीं।
अन्य पिता अपने बच्चों के लिए बैंक बैलेंस, संपत्ति आदि छोड़ देते हैं, उन्होंने मेरे लिए वैसा कुछ भी नहीं छोड़ा है। लेकिन उन्होंने मेरे लिए जो कुछ छोड़ा है वह अनमोल है। उन्होंने मुझे प्रगतिशील और प्रोग्रेसिव्ह सोच दी।
‘लिबरल व्हॅल्यूज्’ दिए। मैं धार्मिक नहीं हूं, आध्यात्मिक नहीं हूं। सांप्रदायिकता, कट्टरता मेरे आसपास भी नहीं भटक सकती। यह वैचारिक विरासत है जो उन्होंने मुझे दी है।
अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुसवा किया न जाए
हम हैं तेरा ख़याल है तेरा जमाल है
इक पल भी अपने-आप को तन्हा किया न जाए
उठने को उठ तो जाएँ तेरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए
हमारी संस्कृति क्या है? किसी के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? क्या अच्छा है, क्या बुरा है, गुस्सा आया तो उसे किस हद तक व्यक्त करना हैं, मजाक किस हद तक ठीक है यह उन्होने मुझे समझाया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनसे मैंने काव्य को समझा हैं। यही सब मैंने उनसे सीखा है।
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प्रगतिशील और उदारवादी
वे बहुत प्रगतिशील विचार के थे। वे एक चोटी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थें। इतना कि जब मैं पैदा हुआ था और वे अपने दोस्तों के साथ मुझे देखने के लिए अस्पताल आए, तो उनके एक दोस्त ने पूछा कि जब मुस्लिम परिवार में कोई बच्चा पैदा होता हैं, तो उसके कानों में कुरआन की आयतें पढी जाती हैं। आप उसके कान में क्या कहेंगे?
उन्होंने एक मित्र से कहा कि तुम्हारे हाथ में ‘कम्युनिस्ट मेनिफिस्टो’ हैं उसे दो। उन्होंने मेनिफिस्टो का कुछ भाग मेरे कानों मे पढकर सुनाया। मेरी माँ भी ‘प्रोग्रेसिव्ह’ थी। वह तो इससे बहुत ज्यादा खुश हो गई।
वे एक तरफ, वह बहुत प्रगतिशील और उदारवादी थे। लेकिन दूसरी ओर, उनमे पारंपरिक सोच बहुत अधिक थी। उदाहरण के लिए, परंपरा में जो कुछ अच्छा था वह सब अपने आप में निहित था।
बुजुर्गों का सम्मान करना, सभी के साथ उचित व्यवहार करना, वर्गीय भेदभाव को गरीब अमीर या जातिगत भेदभाव आदि नहीं मानना, गरीबों का तिरस्कार न करना, उन्हें उनका अधिकार दिलाने की कोशिश करना, नीचता, उनके व्यवहार को नकारना था। मैं उनको बहुत ज्यादा गुस्सैल और नाराज़ भी देखा हैं। पर उस समय इनके मुँह से गाली या कोई गलत बात नही निकली।
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारों
अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्मा लिये दर पे खड़ी है यारों
उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही
बात इतनी सी है के ज़िद आन पड़ी है यारों
किसी से अपशब्द बोलना उनका स्वभाव न था। मैंने उन्हे कई बार मजाक करते हुए देखा हैं। लेकिन जब वह मजाक करते, तब भी उसमें सालिनता, सादगी और अदब होता था। उन्ही से यही सब मेरे मे आया हैं। बच्चो को जो करने को कहा जाता हैं, वह नही करते। पर वे वह अच्छी आदते दोहराते हैं जो उनके माँ-बाप उनके सामने करते हैं। शायद मेरे में वह इसी तरह आई होंगी।
उनमें एक विषेश गुण था वह यह कि उनमे देशभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। यह उनकी कविताओं से भी झलकता था। यही कारण है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें पिछले 300 सालों कि भारत का बेहतरीन काव्य संकलित कर उसे किताब कि शकल देकर प्रकाशित करने कि जिम्मेदारी सौंपी थी।
इसमें उन्होंने भारत की सर्वश्रेष्ठ काव्य सामग्री का संग्रह किया। इंदिरा गांधी द्वारा उसके दो खंड प्रकाशित किए गए। इस संग्रह में भारत पर सबसे अच्छी उर्दू कविता संकलित की गई है।जिसमें स्वंय उनकी ‘हमे नाज हैं..’ यह एक लंबी कविता भी हैं। यह पूरी कविता को उनमें कुट-कुट कर भरा राष्ट्रवाद दिखाने के लिए पर्याप्त हैं।
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मैं उनके साथ ज्यादा समय तक नहीं रह सका। मुझे अपने जीवन में जो भी सहना पड़ा, इसीलिए जब तक वे जीवित रहे तब तक उनको लेकर मेरे दिल में कड़वाहट बनी रही पहले 6-7 साल, जब मेरी माँ जीवित थी और वे मुंबई आने के पहले तक हम एक साथ थे। लेकिन मैं इतना छोटा था कि मेरे पास उनको लेकर बताने के लिए कोई खास यादें नहीं हैं।
जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौराँ के तले जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
मेरी स्कूली शिक्षा के बाद, मेरे पिता ने मुझे अलीगड से मुंबई जाते समय भोपाल में, या दूसरे शब्दों में कहूँ तो सड़क पर छोड़ दिया था। कुछ दिन मैं अपनी सौतेली माँ के घर में रहा। पर वह घर भी छुट गया। वह ‘सौतेली माँ’ के प्रतिमा को जिन्दा रखनेवाली औरत थी। लेकिन अब मैंने उन्हे भी माफ कर दिया हैं।
मैं जब मुंबई आया तब भी वही हुआ था। छह दिनों के भीतर, मुझे अपने पिता का घर छोड़ना पड़ा। उस समय मेरी जेब में, यह केवल 27 पैसे थें। उसके बाद एक कठिन संघर्ष के बाद मैं इस मकाम तक पहुँचा हूँ। इसीलिए मेरे दिल में अब्बू को लेकर कई दिनों तक नाराजगी रही।
इस नाराजगी के आए विद्रोह और आक्रोश के कारण और कवि के खानदान से होने के तथा विताओ कि अच्छी समझ होने बावजूद मैंने कविता नही की। लेकिन उन्होंने महसूस किया कि मुझे कविता की अच्छी समझ हैं।
इसीलिए जब मैं मुंबई आया, जब भी हम मिलते थे, तो वह उनकी कविता मुझे पढ़कर सुनाते थें।इसपर मैं बहुत स्पष्ट रूप से उन्हें अपनी राय देता। वे उसे सुनते और मानते।
वह पारंपरिक रितीरिवाजों के पिता नहीं थें। ऐसे स्थिति में, वह जब मुझसे चर्चा करते उसमें पिता वाला रुबाब नही होता। वह चर्चा तो किसी युवा से बहस चल रही हैं इस तरह होती. इस चर्चा में, मुझे उनकी बहुत सी बाते भा जाती इसीलिए मुझे वह अब तक याद हैं।
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वैसे तो देश में यह नाम बहुत ही जाना-पहचाना नाम हैं। जावेद अख्तर शायर, फिल्मों के गीतकार और पटकथा लेखक तो हैं ही, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी एक प्रसिद्ध हस्ती हैं। वे प्रगतिशील आंदोलन के संयोजक और एक अच्छे शख्स हैं।