दक्षिण भारत मे ‘सुफी दर्शन’ के प्रसार-प्रचार के लिए मौलाना अब्दुल गफूर कुरैशी का बडा योगदान रहा हैं। उदगीर जैसे छोटे शहर का यह व्यक्ति का सुफी दर्शन का ज्ञान अदभूत था।
सुफी दर्शन पर उर्दू भाषा में उन्होने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथो कि रचनाए की हैं, जो सुफी दर्शन के अध्ययन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। उनकी सुफी दर्शन और इस्लामिक दर्शन पर लिखे गए इस पुस्तकों में दक्षिण भारत के सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक जिवन का विलोभनीय दर्शन होता हैं।
दक्षिण भारत सुफी दर्शन का जन्मस्थान रहा हैं। उसी तरह यह जगह सुफी कार्यस्थल रही हैं। जिसमे मोमिन आरिफ़ बिल्ला, राजू कत्ताल, शेख जलालुद्दीन गंजरवा सुहरावर्दी, बंदनवाज गेसूदराज, ख़्वाजा अमीनुद्दीन, शेख सैफुल मुल्क, ख़्वाजा शम्सुद्दीन गाजी जैसे सैकड़ों सुफियों ने दक्षिण में तीन-चार शताब्दियों तक इस्लामी समाजक्रांति के लिए महत् कार्य किया हैं।
इन सुफी फकिरो नें इस्लामी आध्यात्मिकता के बल को आधार बनाकर सामाजिक असमानता को चुनौती दी। वर्ण और नस्लवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। लेकिन समय के साथ-साथ मुस्लिम शासकों के सत्ता के मूल्यों में परिवर्तन होता रहा।
तब इन सुफियों ने, कई जनाआंदोलनों के माध्यम से सत्ता के मानवीय हितो के विरुद्ध पनप रही नीतियों का विरोध किया। इस विरोध और कई अन्य कारणों ने दक्षिण भारत के सुफी आंदोलन को समाप्त कर दिया।
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विरोध का सामना
समय के साथ, वैदिक धर्म के कई अंधविश्वासों ने सुफी खानकाहो को अपने प्रभाव में ले लिया। इसीलिए उलेमा को सुफी आंदोलन के विरोध का भी सामना करना पड़ा। यही वजह हैं कि यहां सुफियों को अपने वैचारिक वारिस नहीं मिले। इस तरह के अलग-अलग कारणों से दुर्भाग्य से सुफी दर्शन इतिहास के साधन दुर्लभ होते गए।
समय के साथ अंधभक्तों के कंधों पर सुफी आंदोलनों की जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने सुफी आंदोलन को विवेकाधीन, समतावादी आंदोलन का स्वरूप बदल दिया। जितना संभव हो सका उतनी मात्रा मे उसपर अंधविश्वासों का बोझ डाल दिया। इसीलिए आधुनिक काल में सुफी आंदोलन का अध्ययन नहीं किया जा सका।
दुर्भाग्य से, सुफी इतिहास के अध्ययन के ‘मलफुजात’ जैसे संसाधन समय के साथ ढह गए। उसे संरक्षित नही किए जाने के कारण सुफी आंदोलन सीमित हो कर रह गया। फिर भी, कुछ दक्षिणी विद्वानों ने सुफी आंदोलन के इतिहास का पता लगाने और इसे एक नई दिशा देने की कोशिश की।
उन्होंने सुफी संतो के मलफुजात के आधार पर सुफी आंदोलन का दर्शनशास्त्र, असमानता के खिलाफ समाज में विभिन्न वर्गों के लोगों के मे चल रहे आंदोलन, जन जागृति के लिए विकसित गए माध्यम, कविता और ग्रंथों के माध्यम से स्थापित दर्शन और समाज पर सुफी आंदोलन के प्रभाव के आधार पर सुफी आंदोलन के इतिहास की खोज जारी रखी। इसी परंपरा के एक वाहक है उदगीर शहर के मौलाना अब्दुल गफूर कुरैशी।
उनका पुरा नाम मौलाना शाह मुहंमद अब्दुल गफ़ूर कुरैशी था। वे दक्षिण भारत में सुफी आंदोलन के उन अग्रदूतों में से एक हैं, जिन्होंने दक्षिण की इस्लामी समाजक्रांति की विरासत को खोज निकालने में अपना बडा योगदान दिया। उन्होने अपने दीर्घकाल के अध्ययन से सुफी दर्शन के ऐतिहासिक संसाधनों का आविष्कार किया।
इन संसाधनों को आम आदमी से परिचय कराने के लिए उन्होने कई ग्रंथ लिखे। सुफी आंदोलन कि विरासत को सहेजते हुए इस्लामी दर्शनशास्त्र के तालीम के लिए विद्यालय स्थापित किए।
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कुतुब ए दकन
महाराष्ट्र के लातूर शहर में ‘कासीम उल उलूम’ नामक इस्लामी दर्शनशास्त्र के विद्यालय कि शुरुआत की। आज भी यह मदरसा सेकडों छात्रों को इस्लामी दर्शन कि शिक्षा प्रदान करता हैं। उनके इस महान कार्य के लिए उन्हे लोगों द्वारा ‘कुतुब ए दकन’ कि उपाधी दी गई।
मौलाना अब्दुल गफ़ूर कुरैशी का जन्म इसवीं 1920 में उदगीर शहर में हुआ। शहरे उदगीर में ही उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। घर में रहकर ही उन्होने अरबी लिपि का अध्ययन किया। जिसके बाद उन्होंने इस्लामी धर्मशास्त्र की बुनियादी स्तर की शिक्षा प्राप्त कर ली। इस्लामी दर्शन में उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने साल 1933 में देवबंद स्थित दारूल उलूम इस्लामिक विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया।
देवबंद से लौटने के बाद, शुरुआत में औरंगाबाद के एक निजी कॉलेज में शिक्षक के रूप में काम किया। वही रहकर उन्होंने बी.ए. तक की उच्च शिक्षा पूरी की। कुछ दिनों के भीतर, उन्हें औरंगाबाद से उस्मानाबाद जिले में स्थानांतरित कर दिया गया।
वहां उन्होंने वहां पाँच साल तक एक शिक्षक के रूप में कार्य किया। मौलाना अब्दुल गफूर ने औरंगाबाद शहर में गैर-स्कूली छात्रों को मुफ्त इस्लामी दर्शनशास्त्र पढ़ाया। निजी स्कूलों की तरह, उन्होंने निजी स्तर पर मदरसे भी चलाए। उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया।
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सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी
12 साल सरकारी सेवा में रहने के बाद उन्होंने उस्मानाबाद में अपनी नौकरी से हमेशा के लिए इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा के बाद, उन्होंने जमीयत उलेमा के सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन में भाग लिया। उस समय, जमीयत विभाजन के खिलाफ भारतीय स्वराज्य की अग्रणी भूमिका निभा रही थी।
उलेमा इस आंदोलन में सबसे आगे थे। मौलाना अब्दुल गफूर ने इस आंदोलन के माध्यम से मुस्लिम समुदाय में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की।
उन्होंने दक्षिण भारत में जमीयत उलेमा की एक शाखा शुरू की और संगठन जरीए के राष्ट्रीय आंदोलन मे अपना योगदान दिया।
जिसके बाद सन 1965 में उन्हें केंद्रीय रक्षा विभाग द्वारा कैद किया गया। ढाई महीने तक हिरासत में रहने के बाद वह जेल से रिहा हुए। जिसके बाद, उन्होंने लातूर में एक इस्लामिक स्कूल, ‘मिस्बाहुल उलूम’ में प्रिंसिपल के रूप में कार्य शुरू किया।
कुछ समय के लिए लातूर में रहने के बाद, वह अपनी जन्मभूमि उदगीर लौट आए। वहां उन्होंने स्कूल ‘कासिम उल उलूम’ विद्यालय कि जिम्मेदारी अपने हाथ में ली। इस मदरसे की स्थापना 1897 में उनके दादा मौलाना मुहंमद कासिम ने की थी।
मौलाना अब्दुल गफूर के नेतृत्व में स्कूल ने उल्लेखनीय प्रगति की। 1948 में निजाम प्रशासित हैदराबाद का भारत में विलय हुआ। इस दौरान, यह स्कूल पुलिसीयां कारवाई में पूरी तरह से नष्ट हो गया।
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