उर्दू जबान के साथ एक अजीब सी ट्रेजेडी हो गई है। वह जब तक आपके समझ में आती है तब तक उसे आप हिंदी समझते हैं। और जब समझ में आना बंद हो जाए तब कहते हैं कि यह उर्दू हैं। हम जब आपस में बात करते हैं, वही उर्दू हैं और असली उर्दू तो यही है। लखनऊ के एक बड़े शायर थें, जिनका नाम आरजू लखनवी था।
उनसे किसीने कहा की, उर्दू क्या है? उर्दू बिना किसी पर्शियन वर्ड के या अरेबिक वर्ड की थोड़ी ही जबान हैं? उसने कहा, आपका ख्याल है किसी भी जबान में, किसी भी लैंग्वेज में के लफ्ज इस्तेमाल किए जा सकते हैं। लेकिन उर्दू कोई डिपेंडेंट नहीं है। वह किसी जबान के भरोसे नहीं जी रही है।
उन्होंने कहा कि मैं उर्दू में एक किताब लिखूंगा जिसमें एक वर्ड भी ऐसा नहीं होगा जो पर्शियन रूटेड या अरेबिक रूटेड हो। और उन्होंने पूरी किताब लिख डाली। वही तो सच्ची उर्दू हैं।
पिछले दिनों मैं जयपुर के ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ में गया था। वहां भी कुछ इस तरह के उर्दू के बारे में बातें हो रही थी। मैंने वहां उनको 4–5 जुमले बोले। जो मैं आपको भी बताता हूँ।
एक मकान में एक गोरा चिट्टा आदमी और एक नन्हा-मुन्ना सा बच्चा बैठे थें। बावर्ची ने नाश्ता लाकर दिया। नाश्ते में उड़द की दाल और तुअर थी। नाश्ता करने के बाद उसने चिक हटाई। एक संदूक खोला। उसमें से एक पिस्तौल निकाली। बाल्टी हटाकर दीवार पर टंगी बंदूक उतारी और घर से बाहर निकल गया। रास्ते में तेज हवा थी। यह जुमला सबके समझ में आ गया होगा। इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं हैं।
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हिंदी है कि उर्दू?
अब देखिए, मकान लफ्ज अरेबिक, गोरा चिट्ठा में चिट्ठा पंजाबी, नन्हा मुन्ना में नन्हा गुजराथी, बच्चा पर्शियन, बावर्ची टर्कीश, उडद तमिल, टोस्ट इंग्लिश, बाल्टी पोर्तुगीज, नाश्ता फारसी, चिक टर्कीश, पिस्तौल अंग्रेजी, संदूक टर्कीश, बंदूक टर्कीश, दिवार पर्शियन, रास्ता पर्शियन; यह कितनी जुबानी हैं। हमे मालूम भी है क्या हम क्या बोल रहे हैं।
अगर इस तरह से अपनी जबानों से हम शब्द निकालना शुरू कर देंगे तो हम बात ही नहीं कर सकेंगे। हमारी जबानों में जो ‘मैं और आप’ बोल रहे हैं वही तो जुबान हैं।
हम जब दो मिनट बात करते हैं तो उसमें 10 भाषाओं के, लैंग्वेजेस के लफ्ज होते हैं। लेकिन उससे यह जबान; वो जबान नहीं बन जाती। जबान अपनी स्क्रिप्ट भी नहीं होती। अगर मैं लिख दूं Kuch kuch hota hai यह ‘कुछ कुछ होता है’ इंग्लिश हो गया क्या? इसलिए कहता हूँ, वह स्क्रिप्ट भी नहीं होती।
पंजाबी भाषा तीन स्क्रिप्ट में लिखी जाती हैं। वह गुरुमुखी में लिखी जाती है, देवनागरी में लिखी जाती है, फारसी रस्मुल खत में भी लिखी जाती है। मगर पंजाबी तो पंजाबी ही रहती है चाहे उसे जैसे भी लिख लो।
स्क्रिप्ट जबान नहीं है। होकॅब्लरी भी जबान नहीं है। अगर मैं यह कहता हूं यह हॉल एयर कंडीशन है, तो मैं अंग्रेजी नहीं बोल रहा हूं। हालांकि इसमें दोनों जो खास शब्द है ‘हॉल’ और ‘एयर कंडीशन’ वह अंग्रेजी के हैं। लेकिन अंग्रेजी क्यों नहीं बोल रहा हूं? इधर ‘ए’ लगा है उधर ‘हय’ लगी है। लैंग्वेज आप ही अपना ग्रामर और सिनटेक्स होती हैं।
अब देखिए उर्दू क्या है। जो हम हिंदी कहते हैं। जो हम हिंदुस्तानी कहते हैं। जिसे हम उर्दू कहते हैं वह सिनटेक्स प्रोग्रामर ही है। मैं आ रहा हूं। तुम जा रहे हो। मुझे प्यास लगी है। तुम खाना खाओगे! कहां जा रहे हो। कब आओगे। तुमने सुना है। मैंने सुना है। यह सब क्या है? यह कौन सी भाषा है? यह हिंदी है कि उर्दू है? यह तो हिंदुस्तानी है, यही हिंदी है, यही उर्दू हैं।
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उर्दू से मोहब्बत और दिलचस्पी
चार शब्द आपने इधर डाल दिए तो इधर का पलडा झुक गया और चार शब्द उधर डाल दिए तो उधर का पलडा झुक गया। दाए तरफ से लिखा तो एक जबान बन गई। सिधे तरफ से लिखा तो दूसरी जबान बन गई। लेकिन एक आम आदमी जो सड़क पर बोल रहा है, जब उसका बोलना आप लिखेंगे नहीं तब तक यह तय नहीं कर सकेंगे कि वह हिंदी बोल रहा हैं कि उर्दू!
आज ‘हिंदुस्तानी’ वर्ड बड़े दिनों बाद सुनने को मिला हैं। इस हिंदुस्तानी शब्द को तो हम भूल गए हैं। महात्मा गांधी ने तो यहां तक कहा था कि इस देश की जो सरकारी जबान है, जो ऑफिशल लैंग्वेज है, जो नेशनल लैंग्वेज है वह हिंदुस्तानी होनी चाहिए। आज हिंदुस्तानी भी एक जबान है यह कोई जानता ही नहीं। हम लोग इस भूल गए है। जो बात हम करते हैं वह तो हिंदुस्तानी हैं, इसे हम जानते तक नहीं।
अजीब बात है उर्दू की स्क्रिप्ट सिमट रही है और उर्दू जबान फैल रही है। मेरी ‘तरकश’ किताब उर्दू और हिंदी दोनो में छपी हैं। सिर्फ दो दिनों मैंने हिंदी के 300–400 किताबों पर ऑटोग्राफ साइन कर चुका हूं। जो उर्दू मे थी वही देवनागरी में छपी हैं।
इससे साफ जाहिर होता हैं कि लोगों की उर्दू से मोहब्बत और दिलचस्पी कम नहीं हुई है। इसलिए कि यह आम इन्सान की जुबान है। जबाने वही जिन्दा रहती है जो आम इन्सान कि होती हैं। सरकारे जुबान नहीं चलाती। अगर ऐसा होता तो आज पूरा हिंदुस्तान या तो अंग्रेजी बोल रहा होता, या फिर फारसी में बोल रहा होता। हिंदुस्तान में बहुत साल तक अदालतों की जुबान फारसी रही है।
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जबान को ऐसे बचाएं
वैसे ही बहुत सालों तक हुक्मरानों की जबान अंग्रेजी रही है। इतने बरसो के सरकारी सौतेले बर्ताव के बावजूद यह जबान इसलिए चल रही है कि लोग उसे बोल रहे हैं। और इसलिए चल रही हैं कि यह एक आम हिंदुस्तानी की जबान हैं।
यह फिल्मों में है तो कोई हैरत की बात नहीं है। इसे तो फिल्मों में होना ही चाहिए। इसलिए के फिल्में हिंदुस्तानी है और यह जबान भी हिंदुस्तानी हैं। फिल्मो में शुरू से लेकर अब तक देखिएगा यही जबान चल रही हैं। अब तो खैर फिल्मों में बात बदल गई है। फिल्मों में अब तो जबान होती ही नहीं; तो कौन सी ढूंढने की जरूरत ही नहीं है। अब तो हमारे नए डायरेक्टर है, नए राइटर है वह रोमन में लिखते हैं। आधे से ज्यादा डायलॉग भी अंग्रेजी शब्द के होते हैं।
अब तो फिल्मों में हिंदुस्तानी जुबान सिमट रही है और शायद समाज में भी। आजकल बच्चों से बात कीजिए तो और जुमले के बाद बोलते हैं, “यू नो व्हाट आई मीन!” तो मैं बोलता हूं नही “आई डोंट नो नॉट ए मी, यू टेल मी दॅट!” तो शब्दों के साथ यह हो गया हैं।
शब्दावली जो हैं, जो लफ्ज़ है लोगों के पास वह दिन-ब-दिन कम होते जा रहे हैं। अब तो हर चिज का एसएमएस होता है वह भी स्पेलिंग छोटी करके। यह हालात अलग है। वरना सेव्हनटी और ऐटी तक आप फिल्में में देखोंगे तो उर्दू ही चली हैं।
इस डोमिनेंटली के पहले फिल्मो में जो राइटर रहे हैं, गीतकार रहे हो, या डायलॉग राइटर हो वह तो उर्दू के ही हैं। बड़ी दिलचस्प बात है कि उसके बाद बावजूद भी यह फिल्में ‘हिंदी फिल्में’ कहलाई हैं। यह सोचने वाली बात है कि उर्दू वालों ने इसे क्लेम क्यों नहीं किया? उन्होंने क्यो नही कहा कि यह जबान तो उर्दू है, हम तो उर्दू में लिख रहे थें।
एक शायरी है ‘जरिया इज्जत नहीं मुझे।’ वह लोग काम तो कर रहे थे लेकिन यह मान रहे थे कि फिल्मों में काम करना बहुत अच्छा काम नहीं है। ऐसे डबल स्टैंडर्ड आगे जाकर नुकसान कराते हैं और उनके साथ यही हुआ।
उस वक्त वह आगे आकर कहते तो उनके खानदान कि इज्जत खतरे में आ जाती। क्योंकि वह तो फिल्मों में लिखता हैं। ऐसे गलत मोरल वैल्यूज कभी-कभी आगे नुकसान दिलाते है। जो लोग इस काम मैं है अब तो उन्हे इस बात को समझना चाहिए।
एक जमाना था कि जब हिंदी और उर्दू की बातें होती थी। अब तो सिचुएशन यह आ गई है कि तमाम हिंदी और उर्दू के राइटरो को सर जोड कर बैठना चाहिए और उन्हे यह सोचना चाहिए कि हम भारत में हिंदुस्तानी जबान को कैसे बचाएं। उनके लिए यह जरूरी है।
जाते जाते :
* उर्दू और हिन्दी तरक्की पसंद साहित्य का अहम दस्तावेज़
* औरंगाबाद के वली दकनी उर्दू शायरी के ‘बाबा आदम’ थें
वैसे तो देश में यह नाम बहुत ही जाना-पहचाना नाम हैं। जावेद अख्तर शायर, फिल्मों के गीतकार और पटकथा लेखक तो हैं ही, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी एक प्रसिद्ध हस्ती हैं। वे प्रगतिशील आंदोलन के संयोजक और एक अच्छे शख्स हैं।