त्रिपुरा सांप्रदायिक हिंसा पर सत्ता और समाज मूकदर्शक क्यों हैं?

मारे देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा बहुत आम हो गई है। जहां एक ओर प्रधानमंत्री पोप से गले मिल रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर देश में ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की छोटी-छोटी घटनाएं हो रहीं हैं। एक समुदाय के रूप में मुसलमान भी हिंसा का शिकार हैं।

सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर कुप्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इसके नतीजे में मुसलमानों का हाशियाकरण हो रहा है। अलगाव का भाव मुसलमानों पर किस कदर हावी हो गया है यह इससे साफ़ है कि उनके एक तबके ने हाल में एक मामूली से क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़े।

सरहद के उस पार भी सांप्रदायिक तत्वों की कोई कमी नहीं है। पाकिस्तान के एक मंत्री ने निहायत बेवकूफाना बात कही। उन्होंने क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की विजय को इस्लाम की जीत निरुपित किया!

इसी तरह की सोच रखने वाले एक क्रिकेट खिलाड़ी ने हिन्दुओं के सामने नमाज़ पढ़ने को मुसलमानों की श्रेष्ठता का सुबूत बताया है। ऐसे लगता है कि मूर्खता की कोई सीमा ही नही है।

इसी बीच, त्रिपुरा में सांप्रदायिक हिंसा हुई। इस हिंसा के लिए बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हिन्दुओं और उनके पूजास्थलों पर अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय हमलों को बहाना बनाया गया।

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डर पैदा करने की कोशिश

वर्तमान में त्रिपुरा में बीजेपी का शासन है। इस राज्य में एक लम्बे समय तक वामपंथी सत्ता में रह चुके हैं और उस दौरान वहां सांप्रदायिक हिंसा की एक भी वारदात नहीं हुई थी। त्रिपुरा में हिंसा की शुरुआत वीएचपी, आरएसएस और उनसे जुड़े संगठनों द्वारा रैलियां निकाले जाने के बाद हुई।

इन रैलियों में इस आशय के नारे लगाये गए कि सच्चे हिन्दुओं को एक होकर अपनी रक्षा के लिए त्वरित कदम उठाने चाहिए, उन्हें राजनैतिक और अन्य मतभेदों को भुलाकर एक हो जाना चाहिए।

इन रैलियों के ज़रिये यह डर पैदा करने की कोशिश की गई कि हिन्दू खतरे में हैं। जाहिर है इससे सांप्रदायिक वैमनस्य फैलना स्वाभाविक था। अगर मुसलमान कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित सीमा के उस पार हिन्दुओं पर अत्याचार कर सकते हैं, तो उन्हें यहाँ हिन्दुओं पर हमले करने से भला कौन रोकेगा?

इन प्रदर्शनों में ये नारे भी लगाये गए कि बांग्लादेश में हिन्दुओं को आत्मरक्षा के लिए हथियार उपलब्ध करवाए जाने चाहिए। भड़काऊ रैलियां, मस्जिदों में आगजनी और मुसलमानों की सम्पतियों पर हमले चलते रहे और सरकार हिंसा को रोकने का नाटक भर करती रही। राज्य में हिंसा की कम से कम 20 घटनाएं हुईं, 15 मस्जिदों पर हमले हुए और तीन को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।

और यह सब तब हुआ जबकि पुलिस का दावा है कि उसने हिंसा पर नियंत्रण के लिए हर संभव प्रयास किये। डॉ विभूति नारायण राय (उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक और महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, के पूर्व कुलपति) की यह स्पष्ट मान्यता है कि सरकार के प्रच्छन्न समर्थन के बगैर साम्रप्रदायिक हिंसा 48 घंटे से अधिक अवधि तक जारी नहीं रह सकती।

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राजनीति के खेल

लोगों को भड़काने में अफवाहों की भूमिका से हम सब वाकिफ हैं। पहले अफवाहें एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक मुंहजबानी फैलाई जातीं थीं। अब सोशल मीडिया अफवाहें फैलाने और दूसरे समुदायों के खिलाफ नफरत पैदा करने का शक्तिशाली हथियार बन गया है।

बताया यह जाता है कि अल्पसंख्यक समुदाय, बहुसंख्यकों पर अत्याचार कर रहा है। सोशल मीडिया की पहुँच और प्रभाव बहुत व्यापक है। सोशल मीडिया पर कही जा रही बातों पर लोग आसानी से भरोसा कर लेते हैं।

राजनीति के खेल खेलने वालों ने अपने-अपने आईटी सेल और सोशल मीडिया योद्धाओं की सेनायें तैयार कर लीं हैं जो अपने-अपने आकाओं के निर्देश पर अफवाहें और झूठ फैलातीं हैं। अधिकांश मामलों में गरीब लोग भावनाओं में बहकर सड़कों पर हिंसा करने उतर आते हैं।

नफरत हमारे समाज में किस हद तक घर कर गई है इसका एक उदाहरण यह है कि गुजरात के आणंद में एक होटल के सामने की सड़क सिर्फ इसलिए धोई गई क्योंकि होटल के मालिकों में से एक मुसलमान था! हिन्दुओं और ईसाईयों के खिलाफ घृणा का भाव हमारी सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बनता जा रहा है।

इसके पहले देश में अनेक सुनियोजित भयावह दंगे हो चुके हैं। इनमें मुंबई (1992-93), गुजरात (2002), कंधमाल (2008) और मुज्जफरनगर (2013) शामिल हैं। सन 2013 के बाद से (दिल्ली 2020 को छोड़कर) बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए हैं। दिल्ली की हिंसा शाहीन बाग़ में आन्दोलनरत लोगों को सबक सिखाने के लिए की गई थी। शाहीन बाग़, स्वाधीन भारत का सबसे बड़ा प्रजातान्त्रिक आन्दोलन था।

बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा से व्यापक और त्वरित ध्रुवीकरण होता है। इससे बहुसंख्यक समुदाय, सांप्रदायिक ताकतों की गोदी में जा बैठता है और अल्पसंख्यक समुदाय, अपने मोहल्लों में कैद हो जाता है।

जब राज्य पर सांप्रदायिक ताकतों का शासन होता है या सांप्रदायिक तत्त्व नौकरशाही, पुलिस आदि में अपनी घुसपैठ बना लेते हैं तब राज्य तंत्र सांप्रदायिक हिंसा का मूकदर्शक बना रहता है। वह हिंसा को काबू में लाने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाता और निर्दोषों को मरने देता है।

इसका एक कारण यह भी होता है कि सत्ताधारी, अल्पसंख्यकों के वोटों पर निर्भर नहीं होते। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में असफलता के कारण अल्पसंख्यक मतदाताओं के उससे दूर हो जाने की परवाह सत्ताधारियों को इसलिए नहीं होती क्योंकि उन्हें पता होता है कि बहुसंख्यक मतदाता उन्हें हुए नुकसान की भरपूर भरपाई कर देंगे।

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सांप्रदायिक सोच और हिंसा 

भारत में सांप्रदायिक हिंसा पर अनेक विस्तृत अध्ययन और शोध हुए हैं। डॉ. असग़र अली इंजीनियर का कहना था कि “सांप्रदायिक हिंसा का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म तो राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने का औजार भर होता है।”

पॉल ब्रास के अनुसार देश में सांप्रदायिक दंगे करवाने का एक संस्थागत तंत्र है, जिसे चुनावों के आसपास सक्रिय कर दिया जाता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कि राज्य, हिंसा को नियंत्रित क्यों नहीं करता, विलकिंसन कहते हैं कि इसका कारण यह है कि सत्ताधारी दल की चुनावी सफलता, हिंसा पीड़ितों के समर्थन पर निर्भर नहीं करती।

समय के साथ, सांप्रदायिक हिंसा के स्वरुप और एजेंडा में बदलाव आ रहे हैं। त्रिपुरा और इसके पहले असम में सांप्रदायिक सोच और हिंसा ने घुसपैठ बना ली है। सत्ताधारी दल यह दावा कर सकता है कि उसके शासनकाल में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ। सच तो यह है कि अब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हिंसा की ज़रुरत ही नहीं है। इस लक्ष्य को पहले ही काफी हद तक हासिल कर लिया गया है।

वर्तमान में हो रही सांप्रदायिक हिंसा केवल नफरत और ध्रुवीकरण को बनाये रखने के लिए की जा रही है। हिंसा का हर चक्र समुदायों के बीच के रिश्तों को पुनर्परिभाषित करता है। अल्पसंख्यक अपने इलाकों में सिमट जाते हैं और समाज में अपने दोयम दर्जे को स्वीकार कर लेते हैं।

इन्हीं में से कुछ दुखी, परेशान लोग पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़ने जैसे हरकतें करते हैं। इसे राष्ट्रद्रोह के रूप में देखना अनुचित है। इससे सांप्रदायिक वैमनस्य और बढेगा। हमें घावों पर नमक छिड़कने की बजाय उन पर मरहम लगानी होगी।

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