उर्दू, वह भाषा जिसकी कविताएं मुझे बहुत पसंद हैं। इसके बारे में कुछ गलत धारणाएं हैं। पहला तो यही कि उर्दू विदेशी भाषा है। फ़ारसी और अरबी बेशक विदेशी भाषाएं हैं, लेकिन उर्दू देसी (स्वदेशी) भाषा है।
साबित करने के लिए यह उल्लेख किया जा सकता है कि यदि इस बात को निर्धारित करना है कि कोई वाक्य किस भाषा का है, तो उस वाक्य में ‘क्रिया’ (उर्दू में फेल) किस भाषा की है यह जानना ज़रूरी होता है। क्रिया ही है जो यह निर्धारित करती है, न कि संज्ञा या विशेषण।
उर्दू में सभी क्रियाएं सरल हिन्दी (हिन्दोंस्तानी या खड़ी बोली, जिसे आम आदमी की भाषा कहा जाता है) से संबंधित है। हालांकि इसमें कई संज्ञाएं और विशेषण फारसी या अरबी से हैं। कोई भी उर्दू कवि के किसी भी शेर (दोहे) को ले परख सकता है। वह पाएगा कि सभी क्रियाएँ हिन्दोस्तानी हैं। उदाहरण के लिए, ग़ालिब के शेर को लें –
“देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरत निगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहत नियोष है”
यहाँ क्रियाएँ ‘देखो‘, ‘सुनो’, ‘है’ सभी हिन्दोस्तानी से हैं।
या फैज़ का शेर लें –
“गुलों मेँ रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ की गुलशन का कारोबार चले”
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यहाँ फिर से क्रिया ‘चले’ हिन्दोस्तानी है। यदि शेर में क्रिया फारसी में होती, तो वह फारसी दोहे बन जाती, और यदि वे अरबी से होते तो यह अरबी बन जाती। उर्दू भाषा हिन्दोस्तानी और फ़ारसी को मिलाकर बनाई गई भाषा है। इसीलिए एक समय में इसे ‘रेख्ता’ कहा जाता था जिसका अर्थ है हाइब्रिड या मिलीजुली (मेरा लेख ‘What is Urdu’ पढ़ें)।
लेकिन यह स्वदेशी (देसी) है, विदेशी भाषा नहीं। यह एक विशेष प्रकार की हिन्दोस्तानी है, न कि क विशेष प्रकार की फारसी। उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है यह भी गलत है। वास्तव में यह धारणा ब्रिटिश शासकों और उनके स्थानीय एजेंटों की फूट डालो और राज करो नीति का हिस्सा थी, जिन्होंने प्रचार किया कि हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है, और मुसलमानों की उर्दू।
वास्तव में 1947 तक उर्दू भारत के बड़े हिस्सों में शिक्षित वर्ग की आम भाषा थी, चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम या सिख हो।
हमारे सभी पूर्वज (जो शिक्षित थे) भारत के बड़े हिस्सों में उर्दू जानते थे। 1947 के बाद फारसी और अरबी शब्द जो सामान्य उपयोग में आ गए थे, उनके प्रयोग खत्म करने हेतु कुछ धर्मांध व्यक्तियों द्वारा एक सम्मिलित हमला किया गया, और उन्हें संस्कृत के शब्दों से बदल दिया गया। उदाहरण के लिए, शब्द ‘जिला’ (district) को ‘जनपद’ से बदल दिया गया था।
जब मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश था, वहां एक वकील थे जो हमेशा हिन्दी में बहस किया करते थे। एक दिन उन्होंने मेरे सामने ‘प्रतिभू आवेदन पत्र’ शीर्षक से एक याचिका पेश की थी।
मैंने उनसे पूछा कि ‘प्रतिभू’ शब्द का क्या मतलब है। उन्होंने कहा कि इसका मतलब ज़मानत है। मैंने उनसे कहा कि उन्हें बेल (bail) या ज़मानत शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए जो हर कोई समझता है, न कि प्रतिभू, जो शब्द कोई इस्तेमाल नहीं करता।
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यह एक गलत धारणा है कि यदि विदेशी शब्द जब एक भाषा में प्रयोग होते हैं और सामान्यता से उपयोग होते हैं तो वह भाषा कमज़ोर हो जाती है। वास्तव में बल्कि यह और भी ज़्यादा शक्तिशाली हो जाती है।
उदाहरण के लिए, फ्रेंच, जर्मन, अरबी, हिन्दोस्तानी, इत्यादि से शब्द लेकर अंग्रेजी शक्तिशाली हुई, इसलिए यह गलत धारणा है कि फारसी और अरबी से शब्द लेने से हिन्दोस्तानी कमज़ोर हो गई। जबकि वास्तव में यह और भी शक्तिशाली हो गई।
फ़ारसी और अरबी शब्दों का इस्तेमाल घृणित भाव से समाप्त करके, हिन्दी नामक एक कृत्रिम भाषा की रचना की गई (यहां मैं साहित्यिक हिन्दी का उल्लेख कर रहा हूं, न कि सरल हिन्दी जिसे हिन्दोस्तानी आम तौर पर बोलते हैं), जिसे समझना अक्सर मुश्किल होता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में मुझे अक्सर हिन्दी की रकारी सूचनाओं को समझना कठिन लगता था। कई हिन्दी किताबें, लेख आदि कभी-कभी समझने में मुश्किल होते हैं।
उर्दू ने कई भाषाओं से शब्द लिए (जैसे कि महान उर्दू कवि अकबर अलाहाबादी की कविता में कई अंग्रेजी शब्द हैं), और इसने कभी भी संस्कृत आदि के शब्दों पर आपत्ति नहीं जताई (वास्तव में उर्दू में लगभग 70 प्रतिशत शब्द संस्कृत से हैं।)
(यह आलेख 22 सितम्बर को जनसत्ता में छपा था।)
जाते जाते :
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लेखक सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं।