फरवरी के 29 को पुणे के आजम कॅम्पस में नागरिकता कानून के खिलाफ जनसभा हुई। जिसमें मौलाना सज्जाद नोमानी और जमात ए इस्लामी के नायब सदर एस. अमिरुल हसन ने लोगों से खिताब किया।
अपने एक घंटे के तकरीर में उन्होंने कई बाते कि जो मुसलमानों में समाजी जागरुकता पैदा करने के लिए फायदेमंद साबित हो सकती हैं। इस तकरीर को हम तीन भागों में दे रहे हैं। पेश हैं उसका पहला भाग…
महिलाओं के बारे में हमारा यह ख्याल था कि मुस्लिम खवातिनो को दुनिया के बारे में कोई मालूमात नहीं है। वह सेकंड क्लास सिटीजन है। वह सब सिर्फ घर में बैठना जानती है। वह बेजुबान है। वह तो बात ही नहीं कर सकती। वह वास्तविक परिस्थिति को नहीं समझती, हम सब लोगों का ऐसा ही ख्याल था। लेकिन शाहीन बाग की औरतों ने इसे गलत साबित कर दिया।
आज देश भर में के शाहीन बाग और पुणे के शाहीन बाग ने यह बता दिया हैं कि वह इस मामले में मर्दों से भी आगे निकल गई है। जिस तरह से वह मीडिया के सामने पेश होती है। जिस तरह से वह पुलिस को डील करती है।
जिस तरह से वह क्राउड को मैनेज करती है। जिस तरह से वह उस माहौल को मैनेज करती है। जिस तरह से वह खाने को मैनेज करती है। यहां तक कि उनके मजलिसो के अंदर कुछ बाहरी लोग आते हैं वो उन्हे भी हैंडल करती हैं।
उनके धरने में बुर्का पहनकर विरोधी विचारो के कुछ मर्द और औरतें आती है और पाकिस्तान जिंदाबाद वगैरह के नारे लगाती हैं। हमारी औरतें इतनी चालाख है, जहीन हैं, वो इतनी इंटेलिजेंट है कि ऐसे लोगों को फौरन वह दबोच लेती है और पुलिस के हवाले कर देती है। यह अलग बात है कि पुलिस उन लोगों को आहिस्ता से निकाल छोड़ देती है।
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आज हमारे औरतों की सुझबुझ पर अब कोई सवाल पैदा नहीं कर सकता। हमारी औरतों के अकलमंदी पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सकता। माशा अल्लाह यह ईमान की देन है। ईमान ने उन्हें ऐसा बनाया है। आज ही नहीं बल्कि जिंदगी के हर मामले में और इतिहास के हर हिस्से में हमारी औरतों ने अपना किरदार अदा किया हैं।
कभी स्पेन में मुसलमानों की हुकूमत थी, उस समय वहां जो चीफ सेक्रेटरी थी वह एक खवातिन ही थी। जो सारे सरकारी व्यवस्था को नियंत्रित करती थी। ऐसे बहुत से महिलाएं हमारे इतिहास में मिल जाएंगी। जब हजरत इमाम हुसैन की मजलूमाना तरीके से शहादत हुई।
उनको और उनके तमाम साथियों को शहीद कर दिया गया। उनके औरतों को और बच्चों को पकड़ लिया गया और यजीद के दरबार में पहुंचाया गया। उनमें हजरत अली की एक बेटी और इमाम हुसैन कि बहन जैनब थी। वह बहुत बड़ी लीडर महिला थी। वह बहुत बड़ी स्पीकर थी।
जैनब खड़ी हो गई यजीद के दरबार में और उसके खिलाफ ऐसी शानदार तकरीर कर दी कि यजीद घबरा गया। यजीद के सलाहकारों ने कहा जांहपनाह बेहतरी इसी में है कि उसकी बात को मान लो और सारे कबीले को रिहा कर दे। आखिर में यजीद घुटने टेकने पर मजबूर हुआ। उसने सबको रिहा कर दिया। यह था जैनब का किरदार।
इस्लाम ने यही किरदार हमारे औरतों के अंदर पैदा किया है। आज भी हमारी खवातीन इस मामले में बहुत हिम्मत वाली नजर आती है। बहुत ही सलीके के साथ, अदब के साथ उन्होंने इस मुल्क के तामिर का बीड़ा उठाया हैं। हम उनकी शुजाअतो (बहारदुरी) को सलाम करते हैं। हम इनके हिम्मतों की कदर दानी करते हैं और इनके लिए हम दुआ करते हैं कि अल्लाह उनके सलाहियतो (भलाई) में और इजाफा फरमाए।
हमारी जिम्मेदारी बनती है कि इस्लाम ने औरतों को जो हुकूक (अधिकार) दिए हैं वह किसी वजह से उन्हे हमने नही दिए। हमने उसे रोक रखा था। हमने गलती से उन्हें वह हुकूक नहीं दिए थें। हमे यह गलती कबुल करनी चाहीए। अब मौका आ गया है कि उनके हुकूक देना पड़ेंगा। उनको शिक्षा देनी पड़ेगी।
उनकी सलाहियतो में इजाफा करना पड़ेगा। उनके समाजी हुकूक, उनके तालिमी हुकूक देने पडेंगे। इसी तरह इस्लाम ने उन्हें और भी कई हुकूक दिए हैं उन्हें वह अदा करना पड़ेगा। यह काम हम सबको करना है। मुसलमानों के लीडरों को भी करना है।
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हमारी जिम्मेदारीयां
कुछ कामों पर हमें तवज्जो देने की जरूरत है। पहला, हमारे उम्मत की नई नस्ल नें समाज कि शान को बढ़ा दिया हैं और उसे बुलंद कर दिया हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने नागरिकता कानून को सबसे पहले चैलेंज किया। उसके बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के लड़के और लड़कियों ने जबरदस्त मुजाहरा कर आंदोलन किया।
हमें यह गुमान भी न था कि ऐसा हो सकता हैं। यहां तक के बुद्धिजीवी वर्ग को भी आईडिया नहीं था। आर्टिकल 370 का तुफान आ गया, मुसलमानों ने उसको झुक कर कबूल कर लिया। उसके बाद बाबरी मस्जिद का फैसला आया, मुसलमान तब भी खामोश रहे। ट्रिपल तलाक के खिलाफ बिल पास हुआ तब भी मुसलमान खामोश थें।
इस सरकार ने सोचा कि एक जुल्म के बाद दूसरा जुल्म, दूसरे के बाद तीसरा जुल्म करते जाएंगे। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि यह सारे बिल मुसलमानों से संबंधित थें। नागरिकता का काला कानून मुसलमानों का नहीं बल्कि सारे भारतीयों से संबंधित था। इसलिए सब लोग उसके खिलाफ खड़े हो गए। शायद उन्होंने तस्सवूर भी नही किया होंगा कि मुसलमान इस मुल्क के सिलसिले इतनी बड़ी खिदमत अंजाम देंगा।
मैं आपको एक खास बात बताता हूं, कि अब अल्लाह ताला की गिरत भी जोश में आई हैं। एक मस्जिद को इन्होंने हमसे छीना और दूसरों के संबंध में फैसला कर दिया। उसे दूसरों के हवाले किया। उसके बाद यह का कानून पास हुआ। इसके खिलाफ जामिया मिलिया इस्लामिया के नौजवानों ने प्रोटेस्ट किया।
दिल्ली पुलिस ने यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी में जाकर नौजवानों के साथ बुरा बर्ताव किया। उनकी पिटाई की। रीडिंग रूम के अंदर जाकर बच्चो के साथ मारपिट की। उस विश्वविद्यालय में दो मस्जिदे हैं। एक में पुलिस घुसी। वहां बच्चे नमाज पढ़ रहे थें। पुलिस ने उन लोगों को लाठीयों से मारा।
उसके बावजूद भी वह लोग नमाज से नहीं हटे। वह बेहोश होकर गिर गए। पुलिस ने मस्जिद के खिड़कियों को तोड़ दिया। दरवाजों को तोड़ दिया। सारी मस्जिद खून से लहूलुहान हुई। वहां जो कालीन थी उस पर भी खून के धब्बे लग गए। गिरत ए इलाही जोश में आई और वही के नौजवानों से अल्लाह ने इन्कलाब बरपा कर दिया।
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मुर्दा समाज में जान
नौजवानों के इस वाकिये को, इस हिम्मत को, इन जुनून को हम देखते हैं तो, हजरत मूसा अलैहिस्सलाम का वह वाकया आ याद आता है, जब मुसा फिरऔन से टक्कर ले रहे थें। फिरऔन से मुकाबला करने के लिए आपने अपनी कौम को आवाज दी। उनमें से जो बड़े लोग थे, वह खामोश रहे।
पर नौजवान मैदान में आ गए। कुरआन कहता है कि जब मूसा ने दावत दी, तब उनके कौम के कुछ नौजवानों ने आप का साथ दिया। और बाकी लोग जो खड़े थे, उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए मूसा का साथ नहीं दिया।
कुरआन साफ कहता है कि वह लोग फिरऔन से और उसके हुकूमत से डर गए। वह सोंचने लगे कि कही ऐसा ना हो कि वह (मूसा) हमें फितने में मुबतेला कर दे। वो हमे आजमाईश में मुबतिला न कर दे। वह लोग डर गए और सहम गए। लेकिन नौजवानों का कोई नुकसान होने वाला नहीं था, उन्होंने मुर्दा समाज के अंदर जान फूंक दी। जामिया मिलिया इस्लामिया के नौजवानों ने भी यही किया हैं।
कुरआन कहता है कि फिरऔन बहुत ही सरकश (घमंडी) था। वह अपनी कौम पर बरतरी (असमानता) का इजहार करता था। उनपर एक के बाद एक जुल्म करता था। लोग समझते थे कि एक जुल्म करेगा और वह खत्म होगा।
मगर वह फिर दूसरा जुल्म करता। वह खत्म भी नही होता कि वह और नीचे जाकर तीसरा जालिमाना जुर्म करता। कुरआन कहता है कि, किसी भी हद तक वो रुकने वाला नहीं था। तब हजरत मुसा अपने नौजवानों को लेकर उसके खिलाफ खड़े हुए।
पैगम्बर मुहंमद (स) का जीवन चरित्र भी देख लीजिए। इस्लाम के आगमन के समय उनकी उम्र उस समय 40 बरस थी। साथ में उनके कई सहयोगी थे। हजरत यासीर की उम्र 36 साल थी। अबू बकर की उम्र 38 थी। हजरत उमर की उम्र 36 साल थी। और भी कई सहाबी थें जिनकी उम्र 16 साल, 17 साल, 18 साल थी।
कोई 19 का था तो कोई 20 साल का था। इनमें से कई लोगों ने विरोधीयों के सामने तेजतर्रार तकरीरे की। इसी तरह अलीगढ़ और जामिया विश्वविद्यालय के नौजवान भी एक-एक कर जमा होते गए और नागरिकता कानून के खिलाफ खडे हुए। इन सब को देख कर वो जमाना याद आता हैं।
अब हमारे बड़ों की जिम्मेदारी बनती है कि इन नौजवानों को रास्ता दिखाए। इनमें से कई नौजवान भटक रहे हैं। कुछ लोग हिंसा की बात कर रहे हैं। कुछ लोग गुमराही की बात कर रहे हैं। हमारी जिम्मेदारी बनती है कि इन नौजवानों के जोश और जज्बे की कदर करते हुए उन्हें बताए कि शांतिपूर्वक आंदोलन करना बेहद जरूरी है।
आंदोलन अहिंसात्मक तरीके से हमें करने हैं, उन्हें यह बताना होगा। हमें इसे मुस्लिम इश्शू नहीं बनाना हैं। मुसलमान, सिख, बुद्धिष्ट, ईसाई सब को लेकर इस मसले पर लड़ना हैं। हमारे नौजवानों को हमे संभालना हैं। उनके जज्बात को गरमाया रखकर उन्हें रास्ता दिखाना। यह तहरीर और आंदोलन हिंसात्मक ना होने पाए इसका खयाल हमे रखना है। यह हम सब लोगों की जिम्मेदारी बनती हैं।
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लेखक एक फायरब्रांड प्रवक्ता और व्यक्तित्व विकास ट्रेनर है। उन्होंने मनोविज्ञान में एम.एससी की हैं। SIO के कर्नाटक राज्य अध्यक्ष के रूप में कार्य किया है। वर्तमान में वे जमात ए इस्लामी के केंद्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य है।