जब बेनाम ख़ौफ़ से पिछा करती हैं ‘मौत की परछाईं !’

ज़िन्दगी में तीन बार मुझे लगा है कि मौत परछाईं की तरह बहुत पास से निकल गयी। आप यह भी कह सकते हैं कि मैं जिंदगी में तीन बार बहुत डरा हूं ।

इनमें से एक घटना में बारे में बताता हूँ।

ये सब

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अनुवाद में कठिन शब्दों को निकालने कि ‘आज़ादियां’ है

पंडित रतन नाथ सरशार’ (1846-1903) उर्दू के एक विलक्षण लेखक थे जिनकी सबसे बड़ी रचना तीन हज़ार पृष्ठों में फैला उपन्यास फ़सान-ए-आज़ादहै जिसे 19वीं शताब्दी के सामाजिक – सांस्कृतिक इतिहास का एक प्रामाणिक दस्तावेज भी माना जाता है।

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अनुवाद में मूल भाषा का मिज़ाज

अनुवाद में मूल भाषा का मिज़ाज क्यों जरुरी हैं ?

रसरी तौर पर देखने से लगता है की उर्दू टेक्स्ट का हिन्दी अनुवाद एक बहुत सरल काम है क्योंकि भाषा एक है। इसलिए केवल लिप्यंतरण से काम चल जाएगा। माना भी यही जाता है की उर्दू-हिन्दी और हिन्दी-उर्दू का अनुवाद लिप्यंतरण तक सीमित रहना

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