हिन्दी और उर्दू मुझे जिन्दा रखती हैं

भाषा के धर्मकरण में हमने सृजन खो दिया हैं। संस्कृत और उर्दू इसके पहले शिकार बने हैं। साहित्य जगत में सांस्कृतिक राजनीति नें भाषाई विधा तथा अभिव्यक्ति पर बंदिशे लगा दी हैं। जिसके परिणामस्वरूप कुदरती अभिव्यक्ति और सहजता को हमने खो दिया हैं।

अंग्रेजी

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शायरी कि बारीकियां सिखाते गालिब के कुछ खत

पंधरा फरवरी को शायर मिर्झा गालिब कि पुण्यतिथी थी वे उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर माने जाते हैं उनका मूल नाम असदुल्ला खाँ ग़ालिब था। आर्थिक तंगहाली और गरिबी में 1869 में उनका निधन हुआ

गालिब को हमसे

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दकन के महाकवि सिराज औरंगाबादी

सिकंदर अली वज्द और वली दकनी के बाद सिराज औरंगाबादीमध्यकाल के तिसरे ऐसे बडे कवि थे, जिन्होंने दकनी भाषा को काव्य के लिए चुना था। उनका जन्म ईसवी 1712 में औरंगाबाद में हुआ। उनका मूल नाम सय्यद सिराजुद्दीन नाम था

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मिर्जा ग़ालिब अपने ही शायरी के थे आलोचक

मिर्जा ग़ालिब को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। जन्मदिन और पुण्यतिथी के दिन ऐसे ही कई कहानियो का बखान हम सुनते पढते हैं। ग़ालिब के बारे में जितना भी लिखा जाए और पढ़ा जाए वह कम ही हैं। ग़ालिब का एक-एक अशआर स्वतंत्र फ़लसफ़ा

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परवीन शाकिर वह शायरा जो ‘खुशबू’ बनकर उर्दू अदब पर बिखर गई

पने महबूब को हवाओं में बिखरने वाली खुशबू की मिसाल देते हुए एक दफा पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर ने ‘फूल’ की समस्या का जिक्र किया था।

1994 के दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में याने 26 तारीख को यह फूल हमेशा हमेशा के लिए मुरझा …

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