राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का इन दिनो 150वा जन्मशताब्दी वर्ष चल रहा हैं। जिस के संयोग में महात्मा गांधी के विचार तथा उनके तत्त्वज्ञान पर परिचर्चा कि जा रही हैं। अपनी आत्मकथा मेरे सत्य के प्रयोग में गांधीजीं ने अपने साधारण व्यक्ति से महात्मा बनने का प्रवास वर्णन किया हैं। जिसे वह अपना सच बोलने का और झुठ से बचने के प्रयत्नों को प्रयोग कि भांती देखते हैं। आज हम गांधी-150 के श्रृखंला में महात्मा गांधी से जुडी एक घटना उन्ही के जुबान में दे रहे हैं। गांधीजी इस बारे मे कहते हैं, कि इस घटना के बाद उनका जीवन बदल गया।
माँसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया हैं। वे दोष विवाह से पहले के अथवा उसके तुरंत बाद के हैं। अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थें। हम दोनों में से किसीका यह खयाल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा है, अथवा उसकी गंध में आनंद है। पर हमें लगा कि सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मजा है।
मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुओं उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूंकने की इच्छा हुई। गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बौड़ी के जो खुंट फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया।
पर बीड़ी के ये खुंठ हर समय मिल नहीं सकते थे, और उनमें से बहुत धुओं भी नहीं निकलता था। इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो चार पैरों में से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली, और हम बीड़ी खरीदने लगा पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखे। कहाँ।
हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया। इस बीच सुना कि एक प्रकार का पौधा होता है (उसका नाम तो मैं भूल गया हूँ) जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फैके जा सकते हैं। हमन।
उनें प्राप्त किया और फूंकने लगे! पर हमें संतोष नहीं हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुःख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थें। हम ऊब गये और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया।
पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दे? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आये। शाम का समय तय किया। केदारनाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किये और एकान्त खोज लिया।
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पर जहर खाने की हिम्मत न हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाये। अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी। दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर दर्शन करके शान्त हो जाएँ और आत्महत्या की बात भूल जाए।
मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं। इसलिए कोई आत्महत्या करने की धमकी देता है, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है, अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर होता ही नहीं।
आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फूंकने की आदत भूल गये। फिर बड़ेपन में बीड़ी पीने की कभी इच्छा नहीं हुई।
मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों है, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हैं। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहत बीड़ी पी जाती है, वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है, और उसके धुएँ से मेरा दम घुटने लगता है।
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बीड़ी के खुंठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूँ। बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर 12-13 साल की रही होगी; शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उमर 15 साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मोंसाहरी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी।
उन पर मामूली-सा, लगभग 25 रूपये का, कर्ज हो गया था। उसकी अदायगी के बारे में हम दोनों भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था। कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गयी।
मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूँगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुःखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैंने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर ही लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी।
आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिखकर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा माँग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोंहाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दुःख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की।
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मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगन्दर की बीमारी से पीड़ित थे, इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बूंदें टपकीं। चिट्ठी भीग गयी। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूंदी, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गये।
मैं भी रोया। पिताजी का दु:ख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज सम्पूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना स्पष्ट है। मोती की बूंदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना ! इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है।
रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे. (राम भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता हैं)
मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूँ। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है ? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असम्भव है।
इस प्रकार की शान्त क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरूद्ध थी। मैंने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, कटु वचन कहेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे। पर उन्होंने इतनी अपार शान्ति जो धारण की, मेरे विचार में उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से आर निष्कपट भाव से अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह शुद्धतम प्रायश्चित्त करता है।
मैं जानता हूँ कि मेरी इस स्वीकृति से पिताजी मेरे विषय में निर्भय बने और उनका महान प्रेम और भी बढ़ गया।
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