जब बेनाम ख़ौफ़ से पिछा करती हैं ‘मौत की परछाईं !’

ज़िन्दगी में तीन बार मुझे लगा है कि मौत परछाईं की तरह बहुत पास से निकल गयी। आप यह भी कह सकते हैं कि मैं जिंदगी में तीन बार बहुत डरा हूं ।

इनमें से एक घटना में बारे में बताता हूँ।

ये सब

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मनोरंजन की दुनिया से मीडिया तक भाषाई तमीज का अकाल

भी हाल में प्रकाश में आई मीडिया और जन स्वास्थ्य सेवा जैसे अहम क्षेत्रों की भाषाई दशा-दिशा पर दो खबरें गौर के लायक हैं। पहली खबर ज्योति यादव के बारे में है जो हिन्दी और अंग्रेजी- दोनों भाषाओं में ठोस जमीनी पत्रकारिता की युवा

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नैतिक पहरेदारी के शिकार हुए थे एमएफ हुसैन

मएफ हुसैन के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर मकबूल फिदा हुसैन ऐसे मुसव्विर हुए हैं, जिनकी मुसव्विरी के फ़न के चर्चे आज भी आम हैं। दुनिया से रुखसत हुए उन्हें एक दहाई होने को आई, मगर उनकी यादें अभी भी जिंदा

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अब्बास को फिल्मी दुनिया में मिलती थी ‘मुंह मांगी रकम !’

फिल्म निर्माता, निर्देशक, कलाकार, पत्रकार, उपन्यासकार, पब्लिसिस्ट और देश के सबसे लंबे समय यानी 52 साल तक चलने वाले अखबारी स्तंभ दि लास्ट पेजके स्तंभकार ख्वाजा अहमद अब्बास उन कुछ गिने चुने लेखकों में से एक

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हर दूसरा पाकिस्तानी भारत आने के लिए हैं बेताब

र्दी इतनी बढ़ गई थी कि मैं कूपे में टहलने पर मजबूर हो गया था। एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बाहर प्लेटफार्म से चाय चायकी आवाजें आने लगीं। मैंने चाय वाले को आवाज दी लेकिन कोई नहीं आया। मैंने कुछ और

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अगर ना होते अमिताभ के मामू जान ख़्वाजा अहमद अब्बास

न दिनों अब्बास फ़िल्म सात हिंदुस्तानीके लिए अभिनेताओं की तलाश में थे। एक दिन ख़्वाजा अहमद अब्बास के सामने कोई एक लंबे युवा व्यक्ति की तस्वीर ले कर आया।

अब्बास ने कहा, “मुझे इससे मिलवाइए”। तीसरे दिन शाम के

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स्टेक होल्डर की निर्भरता पर लड़खड़ाती पत्रकारिता

त्रकारिता एक पेशेवर काम है। यह एक पेशा नहीं है। बल्कि कई पेशों को समझने और व्यक्त करने का पेशा है। इसलिए पत्रकारिता के भीतर अलग-अलग पेशों को समझने वाले रिपोर्टर और संपादक की व्यवस्था बनाई गई थी जो ध्वस्त हो चुकी है।

इस

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पाकिस्तानी में ट्रेन का सफ़र और जासूस होने का डर

2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान जाना हुआ था। लौटकर मैंने 40 दिन की सघन यात्रा पर एक किताब लिखी थी जो रवींद्र कालिया ने ज्ञानोदय में छापी थी और उसे ज्ञानपीठ ने किताब की शक्ल

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वो शासक जिन्होंने ‘अहमदनगर’ को दी ऐतिहासिक पहचान !

हमद निज़ामशाह का असल नाम मलिक अहमद था। वह कुछ सालों तक बहमनी वंश के सुल्तान महमूद के अधीन पूना के करीब जुन्नर के हाकिम रहे। वह बीदर के दकनी मुसलमानों के दल के नेता निज़ामुल मुल्क बहरी के बेटे थे। अपने पिता की

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एक अफवाह ने दिलाई थी अताउल्लाह ख़ान को शोहरत

बात आज एक ऐसे फनकार की जिसके गाए गीत 90 के दशक में टूटे दिल वालों के लिए मरहम का काम किया करते थे। करीब 50 हज़ार गीतों गाकर ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज करवाने वाले इस सिंगर का नाम

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