नैतिक पहरेदारी के शिकार हुए थे एमएफ हुसैन

मएफ हुसैन के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर मकबूल फिदा हुसैन ऐसे मुसव्विर हुए हैं, जिनकी मुसव्विरी के फ़न के चर्चे आज भी आम हैं। दुनिया से रुखसत हुए उन्हें एक दहाई होने को आई, मगर उनकी यादें अभी भी जिंदा

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अब्बास को फिल्मी दुनिया में मिलती थी ‘मुंह मांगी रकम !’

फिल्म निर्माता, निर्देशक, कलाकार, पत्रकार, उपन्यासकार, पब्लिसिस्ट और देश के सबसे लंबे समय यानी 52 साल तक चलने वाले अखबारी स्तंभ दि लास्ट पेजके स्तंभकार ख्वाजा अहमद अब्बास उन कुछ गिने चुने लेखकों में से एक

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शमीम हनफ़ी के साथ ‘महफ़िल ए उर्दू’ की रौनक़ चली गई

प्रोफेसर शमीम हनफ़ी, उर्दू अदब की आबरू थे। उर्दू अदब के वे जैसे इनसाइक्लोपीडिया थे। उर्दू अदब की तारीख और अहम शख़्सियतों के बारे में उन्हें मुंह जबानी याद था। पूछने भर की देर होती और उनके अंदर से अनेक किस्से बाहर निकलकर

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हसरत जयपुरी का गीत ना बजे तो भारत में कोई शादी पूरी नही मानी जाती

दोस्तो आज भी जब हम रेडियो को ट्यून करते हैं, तो इसमें सबसे ज्यादा जिन गीतकारों का नाम गूंजता है, उनमें हसरत जयपुरी का नाम पहले पायदान पर रहता है। उनका नाम सुनते ही ज़ुबां पर, वह गीत चला आता है

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जलियांवाला बाग वो हत्याकांड जो आज़ादी के लिए मील का पत्थर बना

भारत की आज़ादी के आंदोलन में जिस घटना ने देशवासियों पर सबसे ज्यादा असर डाला, वह है जलियांवाला बाग हत्याकांड। इस घटना ने हमारे देश के इतिहास की पूरी धारा को ही बदल के रख दिया था।

एक सदी पहले, साल 1919

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जब बलराज साहनी ने सच में सड़कों पर चलाया हाथ रिक्शा !

लराज साहनी एक जनप्रतिबद्ध कलाकार, हिन्दी-पंजाबी के महत्वपूर्ण लेखक और संस्कृतिकर्मी थे। जिन्होंने अपने कामों से भारतीय लेखन, कला और सिनेमा को एक साथ समृद्ध किया। उनके जैसे कलाकार कभी कभी ही पैदा होते हैं। बलराज ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के

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प्रगतिशील लेखक संघ : साहित्य आंदोलन का मुकम्मल खाका

नौ अप्रैल, प्रगतिशील लेखक संघ (Progressive Writers Association) का स्थापना दिवस है। साल 1936 में आज ही के दिन लखनऊ के मशहूर रफा-ए-आमक्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ था, जिसमें बाकायदा संगठन की

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भारतीय रंगमंच

पारसी रंगमंच के शेक्सपीयर ‘आगा हश्र काश्मीरी’

गा मुहंमद शाह हश्र काश्मीरी का नाम पारसी रंगमंच के बडे़ नाटककारों में शुमार किया जाता है। वे एक ऐसी अजीम शख्सियत हैं, जिन्होंने भारतीय रंगमंच में नाटककारों को प्रतिष्ठा दिलाने का अहमतरीन काम किया।

3 अप्रैल, 1879 को बनारस के एक मध्यवर्गीय, पारंपरिक

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मुल्क की मुख्यधारा में कैसे आएगें मुसलमान ?

ज से इकहत्तर साल पहले संविधान बनाते वक्त हमारे मुल्क के कर्णधारों ने भले ही किसी के साथ मजहब, जाति, संप्रदाय, नस्ल और लिंग की बिना पर कोई फर्क न करने का एलान किया हो, मगर आज हकीकत इसके उलट

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आज भी हर पहली तारीख़ को बजता हैं क़मर जलालाबादी का गीत

मर जलालाबादी अपने नाम के ही मुताबिक फिल्मी दुनिया आकाश के ‘क़मर’ थे। ऐसे चांद, जिनके गानों से दिल आज भी मुनव्वर होते हैं। पूरी चार दहाई तक उनका फिल्मों से वास्ता रहा और इस दौरान उन्होंने अपने चाहने वालों को अनेक सदाबहार, मदहोश …

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