औरंगाबाद दकन में आसिफीया राजवंश की स्थापना करनेवाले नवाब मीर कमरुद्दीन सिद्दिकी नवाब फेरोज जंग के बेटे थे। नवाब फेरोज जंग मुगल राजनीति के अहम सरदारों में से थें। कई जंगो में उन्होने मुगलीया सल्तनत के लिए अहम भूमिका निभाई थी। नवाब फेरोज जंग के बेटे मीर कमरुद्दीन के राजनीति कि शुरुआत मात्र 6 साल की उम्र में ही हुई, इतनी कम उम्र में ही उन्हे मुगलों की और से 4 हजारी मनसब दी गई। मात्र 20 साल कि उम्र में बादशाह औरंगजेब ने कमरुद्दीन खान को ‘चीन कुलीच खान’ के किताब से नवाजा।
सन 1676 में मराठों के खिलाफ हुई मुहीम में नवाब कमरुद्दीन खान सिद्दिकी ने हिस्सा लिया था। औरंगजेब ने सन 1700 में उसे बिजापूर की फौजदारी दी।
वे दो साल बाद बिजापूर और कर्नाटक के सुभेदार बनाए गया। औरंगजेब के मृत्यु के बाद मुगल सल्तनत कि बदलती राजनीति में कमरुद्दीन खान ने अपना अस्तित्व बनाने की कोशिश शुरु की, और ईसवीं 1724 को औरंगाबाद में आसिफीया राजसत्ता की बुनियाद रखी।
निजाम मीर कमरुद्दीन अली खान अपनी बहादूरी के साथ शायरी के लिए भी जाना जाता हैं। उसने सेकडों कविताएं, गझलें लिखी हैं। शुरुआती दौर में ‘शाकीर’ और बाद में ‘आसिफ’ तखल्लुस इख्तियार करते हुए उसने शेर और गजलें लिखी।
मीर कमरुद्दीन ने मिर्झा अब्दुल कादर बैदल से शायरी का तंत्र सिखा था। फारसी में इनके दो दिवान मौजूद हैं। जो सन 1883 में यह दोनो दिवान प्रकाशित किए गए। निजाम उल मुल्क कमरुद्दीन खान ने कुछ उर्दू शेर भी लिखे हुए हैं।
नवाब कमरुद्दीन कि शायरी नैतिकता और सुफियाना विचारधारा से प्रेरित हैं। कहा जाता हैं कि वे इस्लाम के पहले खलिफा हजरत अबू बकर के वंशज थें। उस वजह से उनपर अरबी संस्कृति का काफी प्रभाव था। उनकी शायरी में भी अरबी भाषा की झलक देखी जा सकती हैं।
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कमरुद्दीन की शायरी एक दर्दमंद दिल की पुकार हैं। इन्होंने अपनी दिल की हालात और कैफियत को शायरी का रुप दिया था। वह खुद कहता हैं,
अजीं जहत बखुम सब्ज गश्त दर आलम,
के आह खस्ता, दलानस्त बाअसर नजदीक
उसके दोनों दिवान में ‘दिवान ए शाकिर’ पहला दिवान हैं। यह दिवान उस समय के परिस्थिती को रेखांकित करता है, जब नवाब मीर कमरुद्दीन एक आम सुभेदार था, उस समय वे आज यहां तो कल वहां भटकते हुए घुम रहा था।
कभी दरबार ए शाही में तो कभी सुभेदारी में, तो कभी राजनीति से परे होकर जिंदगी गुजार रहा था। ऐसे वातावरण में उसकी शायरी बेपनहा हौसले का नमुना बना।
शायर जब जिंदगीसे शिकस्त खाता है तो, शायरी में अपने आसुओं की तर्जुमानी करता है। लेकीन कमरुद्दीन अली एक बुलंद हौसले के शख्स थे उसे अपने आप पर भरोसा था।
यही वजह है कि, इनके कलाम सब्र हौसला, सुफियानी खयालात पाए जाते हैं। मीर कमरुद्दीन अपने एक शेर में कहते हैं,
ना हर सुरत बोद लाजीम के मानी आशना बाशुद
शिकवा पिंजा सुलत नबाशुद शेर कालीरा
दुनिया के तमाम शायरो के दिलों में यह सवाल हमेशा आता है की, दुनिया क्या है? इसी सवाल के जवाब में नवाब मीर कमरुद्दीन ने कई शेर लिखे हुए हैं।
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उनका दुसरा दिवान ‘दिवान ए आसिफ’ उनकी जिंदगी के दुसरे दौर का प्रतिनिधित्व करता है। जब नवाब मीर कमरुद्दीन आसिफीया राजवंश के सुलतान बन गए, उसके बाद यह दिवान उन्होने लिखा हैं। संजीदगी और दुरदृष्टी कि नजरसे ‘दिवान ए शाकीर’ अहम माना जाता है।
‘दिवान ए आसिफ’ के समय जिंदगी की तमाम कामयाबी नवाब मीर कमरुद्दीन ने हासील की हुई थी। शायरी के लिए सुकुन भी था, मगर जिस दर्द कि वजह शायरी जन्म लेती है, वह दर्द अब उनकी जिंदगी में न था।
इसलिए ‘दिवान ए आसिफ’ कि शायरी ‘दिवान ए शाकिर’ की तरह गहराई का मजा नहीं देती। इस दिवान की भाषा ‘दिवान ए शाकिर’ के तुलना में काफी आसान है। मिसाल के तौर पर इस शेर को देख सकते हैं -
अज पनाह दिगरां बाशुद पनाह मा कोवीं
हरकुस ऐन जागर कीसी दारद खुदा दारेम मां
(दुसरों की पनाह से हमारी पनाह अच्छी है, क्योंकी हम को खुदा की पनाह हासील है, सारी कुव्वतें खुदा के पास ही हैं। जैसे वह बाकुव्वत है, वैसे इसकी पनाह भी बाकुव्वत है।)
जाते जाते :
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