उर्दू में कई शायर मजदूरों के हक के लिए अपनी कलम उठाते रहे हैं। मिर्जा ग़ालिब उर्दू शायरी के बाबा आदम माने जाते हैं, उन्हीं से यह सिलसिला आम हुआ। ग़ालिब ने हुकूमत के खिलाफ मजदूरों के हक में आवाज उठाई। उनकी इसी शायरी से मजदूरों के मसिहा कार्ल मार्क्स भी काफी मुतास्सिर हुए थे। करिबी मित्र एंगल्स के जरिए ग़ालिब कि शायरी मार्क्स तक पहुंची थी। इस शायरी से मार्क्स काफी प्रभावित हुए थे। जिसकी वजह से उन्होंने ग़ालिब को खत लिखा था और अपनी किताबें भी भेटस्वरूप भिजवाई थी। ग़ालिब ने भी मार्क्स को इस खत का जवाब दिया था। दोनो के बीच हुआ यह पत्राचार काफी महत्वपूर्ण है।
उर्दू कविता अपने शुरुआती दौर से ही प्रागतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करती रही है। जहां जुल्म,अन्याय, अत्याचार बढा वहां उर्दू शायरी ने इन्सानी समाज के हक में इन्कलाब का नारा दिया। समाज के भ्रम को तोडने में उर्दू शायरी का बडा योगदान है। कई इन्कलाबी तहरीकों (आंदोलन) की उर्दू शायरी रुह थी। उर्दू शायरी ने ही इन तहरीकों को कामयाबी का सहरा पहनाया।
उर्दू सुधारवादी कविता कि शुरुआत होती है, ग़ालिब कि इन्कलाबी उर्दू शायरी से, गरीबों, यतीमों, फकीरों, पिछडों और मेहनतकश मजदूरों के हक में ग़ालिब ने ही सबसे पहले अपनी कलम उठाई। ग़ालिब मेहनतकश तबके के हक में हुकूमत से जंग लढना चाहते थे। सन 1857 के गदर के बाद वह मजबूर थे मगर गरीबों, यतीमों के हक में आनेवाली तबदिलीयों कि कल्पना भी कर रहे थे।
यह वह दौर था जब दुनियापर सरमायदारी (पूँजीवाद) निजाम का कब्जा हो चुका था, औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने भारत को अपनी गुलामी में जखड लिया था। ग़ालिब इस बात से काफी नाराज थे कि दिल्ली पर चालबाज सरमायदारों का कब्जा हो चुका है और दिल्ली कि खुशनुमा हवा में गुलामी की बूँ आ रही है। किसान और मजदूरों को लुटा जा रहा था, उनकी मेहनत के साथ खिलवाड हो रहा था।
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एंगल्स ने कराया परिचय
इस जुल्म व सितम का असर ग़ालिब कि शायरी पर भी पडा। ग़ालिब ने इस नाइन्साफी के खिलाफ आवाज उठाई और सरमायदारों के खिलाफ मजदूरों के हक में कई शेर लिखे हैं। ग़ालिब के एक ऐसे ही शेर ने मजदूरों के मसिहा कार्ल मार्क्स (Karl Marx) पर भी अपना जादू चलाया। मार्क्स को ग़ालिब की पहचान एंगल्स (Friedrich Engels) के जरिए हुई।
ग़ालिब का एक शेर एंगल्स ने मार्क्स को लिखे खत में लिख दिया था। यह शेर मार्क्स को काफी पसंद आया इसके बाद मार्क्स ने इस शेर के अगले हिस्से कि खोज शुरु की, काफी कोशिशों के बाद उसे ग़ालिब के शेर का अगला हिस्सा किसी अंग्रेज लॉर्ड के निजी कुतुबखाने में मिला। जिसने मार्क्स को काफी मुतासीर किया और इसी वजह से उसने ग़ालिब को खत लिखा। और साथही अपनी अहम किताबें भी बतौर तोहफा भेज दी थी।
आबिदा रुपली (Abida Ripley) ‘व्हाईस ऑफ अमरिका’ में ब्रॉडकॉस्टर हैं। उन्होंने एक दिन इंडिया ऑफिस लायब्ररी लंदन में मुघलों के मख्तुतात देख रही थी। इसी दौरान उन्हे ग़ालिब का एक खत मिला जो कार्ल मार्क्स के नाम लिखा हुआ था। इस खत को पढने के बाद आबिदा को यह अंदाजा हो गया की यह खत मार्क्स के खत के जवाब में लिखा गया है।
आबिदा ने मार्क्स के खत कि खोज शुरु कि और पंधरा साल बाद उन्हे कामयाबी मिली। मार्क्स का खत मिलने के बाद उन्होंने अंग्रेजी में इस खत व खिताबत पर एक मजमून (निबंध) लिखा। कुछ दिन बाद पाकिस्तानी अखबार के संडे एडिशन में उन्होंने यही मजमून उर्दू जुबान में लिखा, जिसमें इन खतों के उर्दू तर्जुमे भी छपे थे। इस मजमुन पर पाकिस्तान कि अदबी दुनिया में काफी बहस हुई। यह दोनों खत पाकिस्तान के कई न्यूज पेपर कि ब्रेकिंग बन गए थे। आबिदा रुपली के इसी मजमून के आधार पर हम यहां मार्क्स और ग़ालिब के दो खत दे रहे हैं।
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वेदान्त पढने कि ग़ालिब की सलाह
पहला खत ग़ालिब को कार्ल मार्क्स ने लंदन से लिखा था। इस खत कि शुरुआत में ही कार्ल मार्क्स ने ग़ालिब को उनकी शायरी के लिए मुबारक बात दी है। और आगे सलाह देते हुए लिखा है की, ग़ालिब को बादशाहों के कसिदे लिखना छोडने के साथ, जिदली मादियात (Dialectical Materialism) को पढना चाहिए।
ग़ालिब को यह बात काफी नापंसद गुजरी। ग़ालिब ने इस खत का जवाब लिखा है। जिसमें ग़ालिब ने कार्ल मार्क्स के फलसफा (Philosophy) पढने के शौक का मजाक उडाया और सलाह दी की, फलसफा पढने का इतना ही शौक है तो ‘वेदान्त’ और ‘वहदतूल वजूद’ (Wahdat-ul-Wajood - Ultimate Unity of Being) पढो।
कार्ल मार्क्स के कसिदे लिखना छोडने कि दरख्वास्त को ठुकराते हुए ग़ालिब ने कहा, “कसीदे लिखने से दो पैसे मिल जाते हैं और उससे शराब कि जरुरत पुरी हो जाती है, इसीलिए कसिदे लिखना बुरा नहीं है।” मार्क्स और ग़ालिब के बीच हुए यह तिखे खत व खिताब काफी महत्वपूर्ण हैं।
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मार्क्स का यह पहला खत
21 एप्रिल 1867
लंदन
डियर ग़ालिब
परसों मँचेस्टर से एंगल्स का खत मिला, जो इस शेर पर ख्तम होता था -
‘कोहकन, गरसना मजदूर ए तर्ब ए गाह ए रकिब
बे सुतूं, आइन ए ख्वाब ए गिरान ए शेरिं’
काफी कोशिशों के बाद मालूम हुआ की यह शेर हिन्दुस्तानी शायर मिर्जा असदुल्ला खाँ ग़ालिब का है। भाई कमाल है, हमारे वहम और गुमान भी नहीं था की हिन्दुस्तान में इन्कलाब कि तहरीक इस कदर जल्द शुरु हो जाएगी। कल तुम्हारे कलाम का कुछ और हिस्सा भी एक लॉर्ड की प्रायव्हेट लायब्ररी से हासिल हुआ। यह शेर भी खुब था।
‘हमको मालूम है जन्नत की हककित लेकिन
दिल को बहलाने को ग़ालिब यह खयाल अच्छा है।’
अपने कलाम के अगले एडिशन में इस मौजू पर तफसीर से लिखना के ‘ऐ मेहनतकशों, जागिरदार, सरमायादार और मजहबी पेशवा जन्नत के ख्वाब दिखाकर तुम्हारी मेहनत का इस्तेहसाल (शोषण) कर रहे है, अच्छा होगा की तुम एक नजम इस मिसरे पर कह डालो।
‘दुनियाभर के मजदूरों, मुत्तहिद हो जाओं’
मैं हिन्दुस्तानी औजान (काव्यप्रकार) से ज्यादा वाकिफ नहीं हूं। तुम फनकार आदमी हो इसका वजन खुद ही दुरुस्त कर लेना। असल काम तो अवाम तक पैगाम पहुंचाना है, बल्की मेरी मानों तो ग़ज़ल और रुबाई जैसी फरसुदा असनाफ को छोडकर आजाद नजम का रास्ता इख्तियार करो, ताकी कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैगामात पसमान्दा और पिसे हुए मजलूम तबकात तक भेजे जा सकें।
और हां ‘कोहकन ए गरसना’ वाले शेर में यह इजाफा कर देना की ‘कोहकन ए अगर शिरिन’ को हासिल करना चाहता है, तो बजौर ए बाजू करे, और नोट में यह भी लिख देना की, कोहकन ए परोलतारया यानी मेहनतकश तबके की नुमाईंदगी करता है, खुसरो पूँजीपती याने सरमायदारी और जागरिदारी का सिम्बॉल है। जब की शिरीं मेहनत के फल कि अलामत है।
इस खत के हिमरा तुम्हें ‘कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो’ (Communist manifesto) का हिन्दुस्तानी तर्जुमा भेज रहा हूं, साथ ही सरमाया (जिल्द अव्वल) है। अफसोस कि इसका तर्जुमा फिलहाल मुमकीन नहीं है। अगर पसंद करो तो अगली बार कुछ और लिटरेचर भेजुंगा।
हिन्दुस्तान इस वक्त अंग्रेज साम्राज्य का गड बन चुका है और जुल्म कि चक्की पिसते अव्वाम को सिर्फ और सिर्फ इनकी अपनी ही मुत्तहीदा कुव्वत इस जब्र के पंजे से निजाअत दिलवा सकती है। तुम एशिया के दकियानुसी फलसफे पढने के बजाए जिदली मादियात (डायलेक्टीक मटेरियलीजम) का मुतालआ किया करो और बादशाहों और नवाबों के कसिदे लिखना छोडकर अव्वामी अदब पैदा करो ताकी इन्कलाब का रास्ता हमवार हो सके।
इन्कलाब तो आकर रहेगा, दुनिया की कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती। वह वक्त आ रहा है जब शाह व गदा कि तमीज मिट जायेंगी। ख्वाजा व बन्दे का इम्तियाज जाता रहेगा।
हिन्दुस्तान को इन्कलाब के राह पर गमजीन देखने का मुतमन्नी
तुम्हारा,
कार्ल मार्क्स
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ग़ालिब का जवाब
खत के जवाब में ग़ालिब ने अपनी आर्थिक तंगदस्ती बया कि हैं और साथ में यह भी लिखा कि तुम्हे भारतीय दर्शन का अध्ययन करने कि सलाह भी दी हैं।
कार्ल मार्क्स को लिखा यह खत -
9 सितंबर 1867
मियां
कार्ल मार्क्स
तुम्हारा खत और ‘कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो’ सरमाया (जिल्द अव्वल) पिछले माह मिला। जवाब कैसे देता? एक तो तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आई दूसरा इस कदर कमजोर हो गया हूं कि लिखने तो क्या, बोलने का कासीर हूं।
‘मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब
वो अनासिर में ए‘तिदाल कहाँ’
सामेआ (सुनने की क्षमता) मर गया था अब बासीरा (देखने कि क्षमता) भी ज़ईफ (कमजोर) हो गया है। जितनी कुव्वतें इन्सान में होती हैं, सब खत्म हुई हैं। हवास सरासर मुख्तल है (चिडचिडापन महसूस हो रहा है।) हाफीजा गोया कभी न था आज मिर्जा तुफ़ता को खत लिखवाया तो सोचा तुम्हारे नामे का जवाब भी हो जाए।
फरहाद के बारे में तुम्हारा नजरिया मुझे मालूम नहीं। तुम्हारे खत से खयाल होता है की तुम इसे मजदूर समझते हो ऐसी बात नहीं मियां वह तो एक आशिक था, मगर ग़ालिब को इसके इश्क ने मुतासीर न किया के
‘सरगुश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूमव कयुद था।
और मरने के लिए तिशे का सहारा ढुंढता था।’
और तुम यह कौन सी इन्कलाब की बाते करते हो? इन्कलाब को गुजरे तो दस बरस (सन 1857) हो गए। अब तो फिरंगी दनदनाता है, हर कोई इसके गुन गाता है। शाह व गदा कि तमीज तो कब की मिट चुकी ख्वाजा व बंदा का इम्तियाज तो जाता रहा यकिन न मानो तो देहली आकर ब चश्म (अपनी आंखो से) खुद देख लो।
चांदनी चौक की तट पुंजीयों और किला ए मुअल्ला साबक मकीनों में फर्क करना दुशवार हुआ है। और फिर देहली पर ही क्या मौकुफ हाय लखनौं कुछ नहीं खिलता के इस बहारिस्तान पर क्या गुजरी, अमवाल (संपत्ती) क्या हुए अश्कास कहां गए? अब और कौन से इन्कलाब की बशारत तुम हमें देते हो?
तुम्हारे खत में यह बात भी मरकुम देखी के ऐसी शायरी पैदा करो और वैसी शायरी पैदा करो भले आदमी शायरी कि निस्बत तुम्हारा यह खयाल कतई खाम है के यह पैदा की जा सकती है?
‘आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
‘ग़ालिब’ सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है।’
और अपना हाल तो ऐसा रहा की क़सीदा या सहरा ही क्यों न हो आमद का दरिया बहा चला आता है जो लफ्ज एक मर्तबा नजम हो गया ख्वा ग़ज़ल में ख्वा कसीदे में बस गंजीना-ए-मअ’नी का तिलिस्म उस को समझिए। वह जो अंदाज ए बयां ग़ालिब का दुनियाभर से निराला ठहरा तो इसी सबब से।
बादशाह तो जाता रहा अब रियासतों में जो नवाब और वाली मुझपर नजर ए करम रखते हैं इनकी सरपस्ती से भी मुझे क्यूँ महेरुम देखना चाहते हो?
किसी की मदाह में दो चार अशार रकम कर दूं तो मेरा क्या बिगडता है बस जरा आतिश ए सय्याल (शराब) का सबब बन जाता है।
‘ग़ालिब छठी शराब पर अब भी कभी कभी
पिता हूं रोज ए अबर वह शब ए माहताब में’
फलसफा क्या है? और जिन्दगी से इसका क्या राबता है? यह हमसे ज्यादा और कौन जानेगा? भाई मेरे यह कौन सी जदली मादियत लिए फिरते हो? फलसफे का शौक है तो ‘वेदान्नत’ और ‘वहदतूल वजूद’ (अस्तित्व कि एकता) पढो और यह खाली खोली हमदर्दीयां जताने के बजाए कोई करके दिखाओ।
फिरंगीस्तान (Englishman) के बासी हो मियां व्हाईसराय के नाम एक चिठ्ठी ही रवाना करवा दो की मेरी साबिका पेन्शन बहाल की जावे। 16 बरस तक कलकत्ते की खाक छाना क्या मगर बेसुद अब समंदर पार एक मदाह पैदा हो गया है। क्या खबर आसमान कुछ रंग बदले और वह जो शाह ए हिन्द के बारे में कहा था अब व्हाईसराय ए हिंद या मलिका ए इंग्लिस्तान के निस्बत कहने कि जसारत हुए के
‘ग़ालिब’ वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं’
हवास साथ नहीं दे रहे इस लिए बस करता हूं।
आफियत का तालीब
ग़ालिब
कार्ल मार्क्स और ग़ालिब के बीच हुआ यह खत व खिताब काफी महत्वपुर्ण है। जो उर्दू शायरी के इन्कलाबी इतिहास का एक अहम हिस्सा है। बदकिस्मती से इस विषय को लेकर भारत में अबतक कोई बहस नजर नहीं आती।
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